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शक की सुई (समीक्षा)

शक की सुई (*****)



सर सुरेन्द्र मोहन पाठक साहब की एक रचना है – “शक की सुई”। थ्रिलर श्रेणी में प्रकाशित हुई यह उपन्यास, एक बेहतरीन शाहकार है पाठक साहब का। कहानी को एक अलग ही नज़रिए से प्रस्तुत किया गया है। जुदा किरदारों को लेकर लिखी गयी यह कहानी आपके अन्दर ‘पल्प फिक्शन’ के इस लेखक की किताबों को पढने का आकर्षण पैदा करती हैं।

वर्तमान की अगर बात करूँ तो, आप सभी ने “फाइनल डेस्टिनेशन” श्रृंखला की फ़िल्में तो जरूर देखीं होंगी जिसमे एक भयानक दुर्घटना से कुछ लोग बच जाते हैं लेकिन फिर एक-एक करके सब मौत की तरफ खींचते जाते हैं। यह कहानी भी कुछ इसी तरह की है लेकिन फर्क यह है की इसमें क़त्ल होते हैं, लेकिन हर क़त्ल को इतनी नफासत के साथ प्रस्तुत किया गया है की हादसे से अधिक कुछ लगते नहीं है। इस तरह से इस कहानी में लोगों के क़त्ल का वर्णन किया गया है की लगता है की उन लोगों की मौत आई थी इसलिए उस अंजाम तक पहुंचे, न की कोई इंसान इसका कारण बना। ऐसा महसूस होता है की यह तो सिर्फ हादसा है जिसकी तहकीकात पुलिस क़त्ल के रूप में कर रही है।

इस कहानी को पढने के दौरान मैंने पाया की कैसे आम इंसान भी पुलिस को चकमा दे सकता है या कोई इतना परफेक्ट कत्लों की प्लानिंग कर सकता है। पुलिस के आँखों से सामने क़त्ल हो जाता है लेकिन वे इसे दुर्घटना मानने से भी हिचकते हैं और क़त्ल मानने लायक उनके पास सबूत नहीं होता। पुलिस के सामने गुनाहगार या कातिल मौजूद है लेकिन वे उसे हाथ भी नहीं लगा सकते क्यूंकि उसके खिलाफ कोई सबूत नहीं है।

चलिए, मैं आपको इस उपन्यास की संक्षिप्त कहानी की ओर ले चलता हूँ। छः लोग गुडगाँव के कंट्री क्लब से तफरीह करके दिल्ली अपने घरों की ओर लौट रहे थे। अमरजीत खुराना (माइक्रो डीवाईसेस कम्पनी में २/३ भाग का हिस्सेदार), उसकी नौजवान पत्नी सलोनी (जहाँ खुराना ५० के करीब का था वहीँ सलोनी उससे आधे उम्र की। एक बेमेल रिश्ता था दोनों के बीच। फिर भी रिश्तों को निभाये जा रहे थे।), किरण (अमरजीत खुराना की एकलौती बेटी), अनिल मेहरा (किरण का मंगेतर), अनुराग रैना(अमरजीत खुराना की कंपनी माइक्रो डीवाईसेस में १/३ भाग का हिस्सेदार) और तृप्ति रैना (अनुराग रैना की पत्नी)।

ये गुडगाँव से लौट रहे थे की तभी एक क्विक ड्रिंक लेने के लिए सभी वसंत कुञ्ज स्थित अनिल मेहरा के अंकल की कोठी पर रुक जाते हैं। रम के पहले दौर के दौरान ही सभी पर बेहोशी का आलम छा जाता है। होश आने पर सभी को पुलिस से खबर मिलती है, अमरजीत खुराना मर चूका था। पुलिस उन्हें बताती है की गिलास में ज़हर मिला हुआ था, जिसकी ज्यादा मात्रा लेने के कारण अमरजीत खुराना की मृत्यु हो गयी थी और बाकी लोगों के गिलास में कम ज़हर था इसलिए उन पर उतना असर नहीं हुआ।

तहकीकात की डोर दिल्ल्ली पुलिस के काबिल सब-इंस्पेक्टर महेश्वरी के हाथों में आती है। पहले तो इस सामूहिक असफल क़त्ल की कोशिश को वसीयत से जोड़ने की कोशिश करती है, जिसके लिए महेश्वरी, अमरजीत खुराना के वकील दीवान कैलाशनाथ से मिलता है लेकिन उसे कोई सफलता हाथ नहीं लगती। ऊपर से तुर्रा ये हो जाता है की दीवान कैलाशनाथ की एक तर्क के आगे वो ढेर हो जाता है। दीवान कैलाश नाथ के अनुसार अभी और क़त्ल होने की संभावना है और जो अंत में बचेगा वही कातिल होगा, वही सारे खेल का मास्टरमाइंड होगा।

दोस्तों, आगे सिलसिलेवार तरीके से क़त्ल होता जाता है जो कहने और देखने में एक हादसा के अलावा कुछ नहीं लगता। ऐसा लगता है की ये तो होना ही था। ऐसे में सब इंस्पेक्टर महेश्वरी, ७५ वर्षीय रिटायर्ड वकील दीवान कैलाश नाथ के साथ इस पेचीदा क़त्ल के केस को कैसे हल करता है, यह देखने योग्य है।

सर सुरेन्द्र मोहन पाठक जी का कहना है की उन्होंने इस उपन्यास में एक नए प्रकार का हीरो खड़ा करने की कोशिश की है। मेरा मानना है की उन्होंने यह सफल कोशिश की है। एक ७५ वर्षीय, रिटायर्ड वकील, दीवान कैलाश नाथ, जिसने रिटायरमेंट लेने के बाद जीवन को खुल कर जीने की कोशिश की है। ऊपर से ऐसी उलझी हुई कहानी भी इस किरदार में चार चाँद लगाने में सहायता करती है।


“शक की सुई” एक बेहतरीन मर्डर मिस्ट्री है जो की क्राइम फिक्शन की दुनिया में अलग ही मुकाम रखती है। मेरी तरफ से इस उपन्यास को पांच सितारे (*****)।

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