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Showing posts from March, 2015

घात (सुधीर कोहली सीरीज)

घात (सुधीर कोहली सीरीज) (स्पॉयलर अलर्ट) एक क्राइम फिक्शन नावेल में आपको पढने के लिए क्या चाहिए या यूँ कहूँ की क्या-क्या चाहिए। एक मर्डर हो और उसकी तहकीकात एक डिटेक्टिव करे और अंत में करिश्मासाज तरीके से कातिल का पर्दा फास हो जाए। लेकिन अगर इस कहानी में कोर्ट रूम ड्रामा हो, वकीलों की बहस हो और एक घाघ अपराधी हो जो षड्यंत्रों के जाल को ऐसे बुनता हो कि शिकार खुद-ब-खुद उसमे फंस जाए, तो कहानी एक अविस्मरणीय मनोरंजन को जन्म देती है। एक क्राइम फिक्शन नावेल में गर कोर्ट रूम ड्रामा हो, एक डिटेक्टिव की शानदार तहकीकात हो, एक कातिल द्वारा लगाई गयी अटूट घात हो, किसी कि जिन्दगी कि डोर इन्साफ कि तराजू में अटकी हुई हो और उस डोर को बचाए रखने के लिए जो जद्दोजहद कि जाए, ऐसे मसाले से तैयार हुई कहानी सच में बेमिसाल होती है। वहीँ सोने पर सुहागा वाली बात ये हो जाए कि इस कहानी में फिलोस्फर डिटेक्टिव सुधीर कोहली हो, वो अपना खास, खासुलखास, एन दिल्ली का खास हरामी, जिसकी पूछ दिल्ली में और दिल्ली के करीब ४० कोस तक है, तब तो मजा ही आ जाए। अगर सुधीर हो किसी कहानी में तो उसकी चुलबुली लेकिन शरीफ सेक्रे

क़त्ल का सुराग

क़त्ल का सुराग - सुधीर कोहली सीरीज  “क़त्ल का सुराग” सुधीर कोहली उर्फ़ द लकी बास्टर्ड उर्फ़ द फिलोस्फर डिटेक्टिव, सीरीज का ९ वां उपन्यास है जो कि दिसम्बर १९९३ में प्रकाशित हुआ था| सर सुरेन्द्र मोहन पाठक साहब के क्रोनोलोजिकल उपन्यासों की श्रेणी में इसका स्थान १९० वां है| यह सुधीर सीरीज के उपन्यासों का वो दौर था जब पाठक साहब इस किरदार को लेकर बहुत कम कहानियां लिखा करते थे| सन १९९० में पाठक साहब ने इसी सीरीज में “आखिरी मकसद” उपन्यास लिखा था, जिससे यह पता चलता है की लगभग 3 साल बाद यह उपन्यास पाठकों के हाथ में आया था| इस तीन साल के वक्फे में पाठक साहब के ११ उपन्यास प्रकाशित हुए थे| इन ११ उपन्यासों में 3 विमल सीरीज के उपन्यास थे जिनको “जहाज का पंछी” सीरीज भी कहा जाता है, वहीँ 2 उपन्यास सुनील सीरीज के और ६ उपन्यास थ्रिलर की श्रेणी में आये थे| दिल्ली की एक मशहूर कैबरे डांसर सिर्फ इसलिए मशहूर नहीं थी की वह कैबरे डांसर थी| कैबरे डांसर के अलावा वह एक हाई प्रोफाइल कॉलगर्ल थी जिसके क्लाइंट्स समाज और दिल्ली के प्रसिद्द लोग थे| इस अजिम्मोशान जादूगरनी का नाम था हीरा ईरानी जिसके हुस्न के आगे

लूज़र कहीं का!

लूज़र कहीं का! ------------------------- ऊपर लिखे गए शब्द न मेरे लिए हैं और न आपके लिए। राजनीति से से तो इसका दूर-दूर से कोई नाता ही नहीं। क्यूंकि आजकल अगर कोई प्रेम से भरी शायरी भी लिख जाता है तो लोग उसे किसी न किसी तरीके से राजनीती से सम्बंधित जरूर कर लेते हैं। ऊपर लिखे गए शब्द “लूज़र कहीं का” एक पुस्तक का नाम है, जिसे पंकज दुबे जी ने लिखा है। यह किताब मुझे मेरे मित्र “लोकेश गौतम” के सदके प्राप्त हुई। लोकेश ने बड़े सिद्दत के साथ मुझे यह किताब पढने के लिए कहा था और जब मैंने किताब के पीछे छपे टैग-लाइन को पढ़ा तो मेरे अन्दर किताब को पढने कि इच्छा अपने आप ही जग गयी। “लूजर कहीं का” कहानी है एक ऐसे लड़के की जो बिहार से दिल्ली पढ़ाई करने आता है। उसके पिता की सिर्फ एक ही तमन्ना है, सिर्फ एक ही ख्वाहिश है कि उनका बेटा आईएस या आईपीएस अफसर बन जाए। बेटा अपने पिता कि ख्वाहिश को पूरा तो करना चाहता है लेकिन अपने मूल्यों पर। वह उन आम फूहड़ बिहारी लड़कों कि तरह नहीं रहना चाहता है। उसको अपने माता-पिता द्वारा दिया गया नाम पसंद नहीं है। उसको स्टाइलिश कपड़े पहनने हैं जैसा दिल्ली के लड़के पहनते ह

खुनी घटना (सुधीर सीरीज)

खुनी घटना (सुधीर सीरीज)  जब से मैंने हिंदी पल्प फिक्शन पढना शुरू किया और इसके बारे में कई महानुभावों से बात एवं चर्चा की तब से मुझे एक आश्चर्यजनक जानकारी भी मिली है जिसके अनुसार प्रकाशन संस्थाएं नवोदित लेखकों के साथ अन्याय करती आ रही हैं। साधारण सी बात है कि जब बिज़नस की बात होती है तो जमीर का कद पैसे के आगे छोटा पड़ जाता है। तो ऐसे में, भारत में बसी किसी प्रकाशन संस्था पर मेरा अंगुली न उठाना अजीबो-गरीब लगता है। मेरा मानना है की सभी प्रकाशन संस्था ने कभी न कभी जरूर नवोदित लेखक के साथ अन्याय किया होगा। अब सोचने वाली बात यह है कि एक नवोदित लेखक के साथ प्रकाशन संस्थान क्या-क्या गरीबमार करती है। प्रकाशन संस्थान नवोदित लेखकों के लेखों को लेते हैं और अगर पसंद आ जाए तो अपने जलील दिमागी सोच के सदके वे कहते हैं कि क्या बकवास लिखा है और छापने से मना कर देते हैं लेकिन कुछ ही महीनों बाद वो किताब या कहानी को एक अलग हक़दार के नाम से छाप दिया जाता है। ऐसे ही कुछ फिल्म इंडस्ट्री में भी होता है। कुछ लेखकों को उस तरह रॉयल्टी नहीं मिलती जिसके लिए उन्हें कहा जाता है। एक ही किताब को बार-बार छा