तकदीर का तोहफा (लघुकथा) कहते हैं की इंसान अपनी तकदीर स्वयं ही बनाता है। इंसान की तकदीर उसके हाथों में होती है। वो कितना मेहनत करता है, कितना संघर्ष करता है, कितना अपने जमीर के साथ चलता है, यह उसकी तकदीर बनाने के लिए जरूरी होता है। लेकिन जब इंसान स्वयं को भूलना शुरू कर देता है तो अपनी सभी नकाबलियतों, दुर्दशा और बुरे दौर के लिए तकदीर को कोसना शुरू कर देता है। “तकदीर का तोहफा” लघु कथा पढने के बाद जो पहली बात मेरे दिमाग आई वो थी इकबाल साहब की निम्न पंक्ति - खुदी को कर बुलंद इतना की हर तकदीर से पहले खुदा बन्दे से खुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है प्रभात चावला नाम था उस शख्स का जो जिन्दगी भर अपनी तक़दीर को कोसता आया था। उसका ये सोचना था की तकदीर ने हमेशा उसकी जिन्दगी में डांडी मारी थी और इसमें हाथ का काम भिन्न-भिन्न लोगों ने किया था। नौकरी के चले जाने के लिए वह अपने सहकर्मी को दोषी ठहराता था, जिसके कारण उसकी नौकरी चली गयी थी। अपनी माँ से बिछड़ने के लिए, अपने सौतेले बाप को दोषी ठहराता था, जिसके कारण उसकी माँ इस दुनिया से चल बसी। अपने पत्नी से कम प्यार और अलहदगी के लिए, अपने बच्चे को दोषी...
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