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खुशियों का कोई मेयार नहीं होता (The Necklace by Guy de Maupassant)

खुशियों का कोई मेयार नहीं होता



मूल कथा - The Necklace
मूल कथा लेखक -  Guy de Maupassant
अनुवाद एवं भारतीयकरण – राजीव रोशन
एडिटिंग – डॉ. सबा खान

निम्न कहानी प्रसिद्ध फ़्रांसिसी लेखक Guy de Maupassant की एक मशहूर कहानी “द नेकलेस” का हिंदी एवं भारतीयकरण अनुवाद है। Guy de Maupassant को शोर्ट स्टोरी फॉर्मेट का मास्टर लेखक भी कहा जाता है। वे अपने कम शब्दों में लिखी कहानी से बहुत कुछ कह जाते थे। इस कहानी को अंग्रेजी में पढने के बाद मुझे एहसास हुआ की, मैं इसका हिंदी में अनुवाद कर सकता हूँ, भारतीय किरदारों के द्वारा भारतीय परिवेश में इसी कहानी को पेश कर सकता हूँ। आशा है, मेरी यह छोटी सी कोशिश रंग लाएगी और आप सभी को पसंद आएगी। इस कहानी की एडिटिंग करने के लिए, मैं सबा खान जी का शुक्र गुजार हूँ। आशा है, भविष्य में आने वाले, मेरे दुसरे प्रोजेक्ट्स में भी वे मेरी सहायता करेंगी और साथ-ही-साथ प्रोत्साहित भी करती रहेंगी।


२२ जून
सिद्धार्थ ने घर में घुसते ही आवाज़ लगाई – “जान, मेरी जान, कहाँ हो?”

सिद्धार्थ ने देखा कि कविता खिड़की से बाहर देख रही थी। बाहर अभी-अभी मूसलाधार बारिश हो कर हटी थी लेकिन अभी भी हल्की-फुल्की बूंदों ने मौसम को सुहाना बनाया हुआ था।

सिद्धार्थ ने कविता के कंधे पर हाथ रखा तो वह सहसा चौंकी फिर खुद को संयत करते हुवे बोली – “अरे, आप ! आप कब आये ?”

सिद्धार्थ ने अपनी बाहें उसकी गर्दन में पिरो दी – “अरे, अरे क्या कर रहे हो ? खुद भी भीगे हुए हो, मुझे भी भिगाओगे। छोड़ो मुझे।”कविता ने सिद्धार्थ के इस काम पर विरोध करते हुए कहा।

“लो छोड़ दिया,” – सिद्धार्थ न चाहते हुए भी उसके गर्दन से अपनी बाहों का शिकंजा हटाते हुए बोला – “किस सोच में गुम थी ?”

“मैं? अरे नहीं यार !” – कविता के चेहरे के भाव बदले – “तुम बताओ कब आये ? मुझे तो पता ही नहीं चला।”

“मेरी जान, मैं तब आया जब मेरी जान खिड़की से बाहर बारिश का नज़ारा देख रही थी और न जाने किस सोच में गुम थी।”

“नहीं, मैं तो बस यूँ ही। मम्मी-पापा की याद आ रही थी।”

“वो तो आएगी ही, ४ साल से तुम उनसे मिली नहीं हो। मैं तो कहता हूँ कि चलो चलते हैं, एक बार मिल लेंगे तो उनके मन में बसे सभी गिले शिकवे और खटास मिट जायेंगे।”

“नहीं! नहीं! मुझे नहीं जाना।” – कविता ने गर्दन को दो-तीन बार न में हिलाते हुए कहा – “लेकिन आप बताइये कि आज ऑफिस से जल्दी कैसे आ गए?”

“अरे आज हमारे बॉस जल्दी चले गए तो मैं भी जल्दी आ गया।” – सिद्धार्थ ने खुश होते हुए कहा – “साथ ही, एक खुशखबरी भी लेकर आया हूँ।”

“खुशखबरी ! ” – कविता ने भी खुश होते हुए कहा – “प्रमोशन या इन्क्रीमेंट हुआ है क्या?”

“अरे नहीं यार, तुम्हें पता तो है, वो दिवाली में होगा।”

“ओह! हाँ! फिर क्या बात है?”

“मेरे बॉस ने अपने घर पर, अपने बर्थडे के अवसर पर एक पार्टी रखी है जिसमे मुझे परिवार सहित आने के लिए निमंत्रित किया है।”

“पार्टी ! ” – कविता ने थोड़े अचरज, संकोच के साथ कुछ सोचते हुवे अनमने भाव से पूछा– “पार्टी कब है ?”

“ ३० जून को ।”

कविता ने सोच विचार के भाव में आते हुए कुछ ठहरकर बोला - “लेकिन यार मैं पार्टी में नहीं जाउंगी। तुम चले जाना।”

“क्यूँ क्या हुआ? तुम नहीं जाओगी तो मैं भी नहीं जाऊँगा” – सिद्धार्थ के स्वर में निराशा का पुट था, फिर उसने कविता के चेहरे पर निगाहें जमाते हुवे कहा – “अगर मैं नहीं जाऊँगा तो बॉस को अच्छा नहीं लगेगा।”

“यार, मेरे पास पार्टी में पहनने वाले ड्रेस नहीं हैं?”

“लेकिन, पिछली बार जब हम लोग मामा जी के घर गए थे और उस वक़्त तुमने जो साड़ी पहनी थी, वो तो बहुत सुन्दर है। तुम उसे पहनकर चलना।”

“अरे यार वो कोई पार्टी में पहने जाने वाली ड्रेस है?” – कविता के स्वर में खीजने जैसा भाव था । उसने  इधर उधर अपनी निगाहें फिराईं, फिर पति से नज़रें चुराती सी बोली – “तुम्हारे बॉस की बर्थडे पार्टी है, कितने बड़े-बड़े आदमी आयेंगे, उनकी पत्नियाँ आएँगी, ऐसे में मैं वो बकवास सी ड्रेस पहनकर नहीं जाउंगी।”

सिद्धार्थ को पार्टी में जाना ज़रूरी था क्यूंकि उसका भविष्य अपने बॉस के साथ जुड़ा हुआ था इसलिए उसने हार मानते हुए सवाल किया - “तो फिर तुम चाहती क्या हो?”

सिद्धार्थ का यह कथन सुनकर, कविता को लगा की उसने यकायक मैदान जीत लिया है - “मैं चाहती हूँ की मुझे एक नया ड्रेस दिला दो। प्लीज! शादी के बाद से मैंने तुमसे कुछ ख़ास नहीं माँगा और न ही तुमने कभी दिया है। कम से कम इस बार तो कोई अच्छी सी ड्रेस दिला दो।”

कुछ पलों के लिए सिद्धार्थ चुप सा रहा मानों मन ही मन किसी फैसले पर पहुंचना चाहता हो फिर निर्णायक आवाज़ में मुस्कुराते हुवे बोला – “ठीक है, सन्डे को कनाट प्लेस चलेंगे।”

कविता ने इतना सुनना था कि उसने उन्माद और भावावेश में सिद्धार्थ को गले लगा लिया I वह यह भी भूल गयी कि अभी कुछ समय पहले सिद्धार्थ के कपड़े गीले होने के कारण उसने स्वयं ही उसे खुद से अलग किया था।

सिद्धार्थ अरोड़ा, बी.कॉम. किया हुआ, नौजवान लड़का था, जिसने अभी अपने जीवन के २६ वसंत ही देखे थे। उसने चार साल पहले, कविता चौहान नामक, उस लड़की से भाग कर शादी कर ली थी जिससे वह उन दिनों से प्यार करता था जब वे दोनों १२वीं कक्षा में एक ही साथ पढ़ा करते थे । सिद्धार्थ एक सामान्य घर का लड़का था, जो दिल्ली के शालीमार बाग़ में अपने मामा के साथ उनके घर में रहता था। वहीँ कविता एक, अच्छे खासे, खाते पीते अमीर घर की लड़की थी। कविता के पापा का शालीमार बाग़ में एक पुश्तैनी हार्डवेयर एंड सेनेटरी पार्टस का शोरूम था, जिससे उन्हें अच्छी खासी आमदनी हो जाया करती थी । यह दुकान, उनके दादा के जमाने से थी, जिसके कारण उस दूकान की सेल बहुत ही अच्छी थी। जब सिद्धार्थ बी.कॉम के दूसरे वर्ष में था तभी उसने कविता से कोर्ट मैरिज कर ली थी । लेकिन इस शादी के बाद दोनों का अपने घरों से रिश्ता बिलकुल टूट सा गया था । सिद्धार्थ को, एक छोटी सी इवेंट मैनेजमेंट कंपनी में, एकाउंट्स असिस्टेंट की नौकरी मिल गयी थी, जिससे उसकी उतनी ही तनख्वाह आती थी जितने से वह अपनी और कविता की जिन्दगी ठीक-ठाक बसर कर लेता था।

जहाँ सिद्धार्थ एक संतोषी जीव के रूप में, अपने हैसियत और कमाई के साथ, ख्वाबों को बुनता था वहीँ कविता एक महत्वाकांक्षी लड़की थी। चूँकि उसका बचपन और जवानी दोनों ही, अपने पिता की छाया में बीते थे, जिसमे उसे कभी किसी कमी का अहसास नहीं हुआ था लेकिन अब मोहब्बत के बाद शादी की जिदंगी में उसे बहुत ही मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा था। वह हमेशा, घंटों बैठे-बैठे गुमसुम सी  सोचा करती थी कि काश वह बड़ी गाड़ी में घूम पाती, काश वह रोजाना अच्छे कपड़े पहन पाती, काश वो घूमने के लिए विदेश जा पाती। परन्तु, उसके अनुसार जब उसने स्वयं अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी थी तो वह सिर्फ ख्वाब ही देख सकती थी और वह लगातार देखे भी जा रही थी।

सन्डे को, सिद्धार्थ कविता के साथ कनाट प्लेस गया लेकिन वहां जो भी ड्रेस कविता पसंद करती उसका रेट बहुत ज्यादा होता था। अंततः कविता ने २०००० रूपये का एक ड्रेस खरीदा, जिस पर बहुत ही सुन्दर कढाई और ज़री का काम किया हुआ था I सिद्धार्थ ने ये २०००० रूपये बहुत मुश्किल से जमा किये थे और इसका इस्तेमाल वह भविष्य में किसी सही काम में करना चाहता था I लेकिन इस समय सिद्धार्थ अपनी पत्नी की ज़िद पूर्ति के ज़ेरेसाए अपने आने वाले भविष्य को लेकर कुछ बेहतर संभावनाओं की उम्मीद कर रहा था जिसमे आने वाली ३० जून को उसके बॉस की इस बर्थडे पार्टी में उसे खुद की मौजूदगी जरूरी लग रही थी ।

***********

३० जून

शाम ७ बजे:-

“क्या यार, अभी तक तुम तैयार नहीं हुई?” – सिद्धार्थ ने झुंझलाते हुए कहा – “हम लेट हो जायेंगे पार्टी में पहुँचते-पहुँचते।”

“आप चले जाइए पार्टी में। मेरा मन नहीं कर रहा है।” – कविता ने जवाब दिया।

“अरे, क्या बात कर रही हो? क्या हुआ अब? अब किस बात के लिए मूड खराब है तुम्हारा? ड्रेस तो दिला दिया न।”

“ड्रेस ही तो दिलाया है और इस ड्रेस के साथ का कोई नेकलेस तो दिलवाया ही नहीं। देखो तो यह ड्रेस बिना किसी नेकलेस के कितनी वाहियात लग रही है।”

सिद्धार्थ इस बार चिल्ला ही पड़ा - “यार, तुम चाहती क्या हो? तुम्हारे इन नखरों को पूरा करने के लिए, मैं खुद को बेच दूँ क्या? तुम तो जानती हो न कि हम किस तरह से अपनी जिन्दगी बसर कर रहे हैं।”

“हाँ, पता है। तभी तो कह रही हूँ की तुम पार्टी में चले जाओ।” – कविता ने उदास मन से कहा।

“नहीं! तुम्हें भी जाना होगा साथ में। तुम बिना नेकलेस डाले चलो मेरे साथ या किसी से एक दिन के लिए उधार मांग लो।”

“मैं बिना नेकलेस डाले तो जाने से रही और रही बात उधार की तो मुझे नेकलेस उधार देगा कौन?”

“क्यूँ? पड़ोस की मिसेज गौतम तुम्हारी अच्छी सहेली है। तुम एक दिन के लिए उनसे नेकलेस मांग कर देखो, शायद दे दें।”

“लेकिन!”

“लेकिन वेकिन कुछ नहीं। एक बार मांग कर देखो अगर उन्होंने अपना नेकलेस तुम्हें आज के लिए दे दिया तो ठीक है, अगर नहीं दिया तो मत जाना।”

“ठीक है। मैं कोशिश करती हूँ।”

“अब जाओ न जल्दी।” – सिद्धार्थ ने उसे दरवाजे से बाहर जाने का इशारा किया।

सिद्धार्थ और कविता, लगभग १० बजे के करीब पार्टी में पहुंचे तो सिद्धार्थ ने अपने बॉस एवं उनकी पत्नी से कविता का परिचय कराया। उसके बॉस की पत्नी ने कविता के नेकलेस को देखने के बाद न केवल  काफी तारीफ़ की, साथ ही पार्टी में आई कई महिलाओं और पुरुषों ने भी कविता के सौन्दर्य एवं नेकलेस की प्रशंसा में शब्द कहे। जिससे कविता सातवें आसमान पर पहुँच गयी। और ये गलत भी न था, कविता सच में उस दिन किसी कवि की श्रृंगाररस में डूबी हुई कविता प्रतीत हो रही थी। वैसे कहने को तो पार्टी, सिद्धार्थ के बॉस के जन्मदिन की रखी गयी थी, लेकिन पार्टी का मुख्य आकर्षण कविता थी। ऐसा नहीं था की पार्टी में, कविता जैसी सुन्दर महिलायें नहीं थी, लेकिन फिर भी पार्टी में पहुंचे सभी पुरुष के आँखों का आकर्षण कविता ही थी।

जिस नेकलेस की तारीफ़, पार्टी में मौजूद इतने लोग कर रहे थे,यह वही नेकलेस था जिसे कविता अपनी सहेली मिसेज गौतम से लेकर आई थी। कविता, जब मिसेज गौतम से एक दिन के लिए नेकलेस उधार माँगने गयी थी तो उसे विश्वास नहीं हुआ की मिसेज गौतम ने उसकी सहायता करने के लिए हामी भी भर दी थी । मिसेज गौतम ने उसे अपने कई गहनों के सेट दिखाए थे , जिनके साथ कविता ने स्वयं को आईने में देखा भी था, लेकिन वो उसे ज्यादा पसंद नहीं आये थे । अंत में मिसेज गौतम ने उसे एक ऐसा हार दिखाया था जो देखने में बहुत ही आकर्षक था और उसके ड्रेस के साथ सूट भी करता था। जब कविता ने उस हार को अपने गले में पहनकर देखा था तो उसका मन मयूर नृत्य कर उठा था । उसने उस हार के सेट को, मिसेज गौतम से अगली सुबह ही वापसी के वादे के साथ उधार ले लिया था ।

कुछ समय बाद सिद्धार्थ और कविता ने डांस किया, फिर सिद्धार्थ कविता से अलग होकर उस क्षेत्र में पहुंचा जहाँ ड्रिंक का प्रोग्राम चल रहा था। सिद्धार्थ के जाने के बाद कविता बैठी हुई थी की किसी पुरुष ने उससे डांस करने के लिए पूछा, तो कविता ने झट से हाँ कर दिया। सिद्धार्थ जब तक ड्रिंक से फ्री हो कर आया, तब तक कविता दो-तीन पुरुषों के साथ डांस कर चुकी थी । वापसी में दोनों पति-पत्नी ख़ुशी खुशी एक किराए की टैक्सी द्वारा अपने घर पहुंचे।

घर पहुँचते ही, सिद्धार्थ फ्रेश होने के लिए बाथरूम पहुँच गया जबकि कविता कपड़े चेंज करने के लिए अपने रूम में घुस गयी। कुछ ही देर बाद कविता के रोने और चीखने की आवाज़ आने लगी, तो सिद्धार्थ दौड़ता हुआ कविता के पास पहुंचा और बोला – “क्या हुआ, कवि? क्या हुआ? रो क्यूँ रही हो?”

“सिड, वो हार!” – कविता का चेहरा फक्क पड़ा हुआ था और वह रोये जा रही थी।

“हाँ! क्या हुआ हार को?” – सिद्धार्थ कविता की बचकानी हरकतों से परेशान होता हुआ बोला।

“सिड, वो हार मेरे गले में नहीं है।”

“क्या? हार गले में नहीं है। तो कहाँ गया? अपने पर्स में देखो।”

कविता ने एक ऊँगली का इशारा बेड की तरफ किया जहाँ पर्स पूरी तरह से खाली था और उसके अन्दर का सारा सामान बेड पर बिखरा पड़ा था I

“तुम्हारा कहने का मतलब है की हार तुम्हारे पर्स में नहीं है?”

“हाँ! हार पर्स में भी नहीं है और मैंने तो हार को अपने गले से उतारा ही नहीं तो फिर वह पर्स में जाता भी कैसे?” – कविता हिचकियाँ ले लेकर रोते हुए अपनी बात कह रही थी।

“अरे, तो फिर हार गया कहाँ? कहीं उस टैक्सी में तो नहीं रह गया जिससे हम वापिस आये थे।”

“चलो न सिड, देखकर आते हैं। हो सकता है टैक्सी वाला आस-पास ही हो।”

“तुम पागल हो गयी हो, वक़्त देख रही हो कितना हो रहा है। रात के १ बजने वाले हैं और ऐसे वक़्त में हम कैसे उस टैक्सी वाले को खोजेंगे।”

“सिड, प्लीज! मैं अगर मिसेज गौतम को हार वापिस नहीं दे पायी तो कैसे दुनिया को मुह दिखाउंगी?”

सिद्धार्थ ने सोचते हुए कहा - “ठीक है, चलो। टैक्सी मिल गयी तो उसमे देख लेंगे या ड्राईवर से पूछेंगे। लेकिन हमने तो टैक्सी का नंबर भी नोट नहीं किया है। न जाने कैसे उस टैक्सी वाले को खोजेंगे।”

सिद्धार्थ और कविता, दोनों ने अपने घर के करीबी, टैक्सी स्टैंड पर उस टैक्सी वाले को खोजा लेकिन वह मिला नहीं। उन्होंने एक किराए की टैक्सी पर अपने घर से बॉस के घर तक के बीच उस टैक्सी की  तलाश की लेकिन निराशा ही हाथ आई । उन्होंने बॉस के घर पर भी नेकलेस की तलाश की लेकिन वहां भी नाकामयाबी हाथ आई । अंत में हार मान कर उन्होंने पुलिस में हार के चोरी होने की रिपोर्ट लिखवा दी I

एक दिन बीता, दो दिन बीता, तीन दिन बीत गए, लेकिन हार के बारे में न तो पुलिस को कुछ पता चला न ही सिद्धार्थ और कविता को। आखिरकार दोनों ने फैसला किया की वो उस हार की जगह बिलकुल उसके जैसा ही दूसरा हार मिसेज गौतम को दे देंगे। सिद्धार्थ और कविता, दोनों ही करोल बाग़ पहुंचे और हर दुकान में जा-जाकर, वैसा ही हार देखने लगे। अंततः पी.सी. ज्वेल्लर्स के पास उन्हें वैसा ही हार मिल गया जैसा की मिसेज गौतम का था। लेकिन जब उन्होंने उस हार का रेट पता किया तो दोनों की  सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी क्यूंकि हार ३ लाख का था।उन्होंने सेल्समैन से गुजारिश की कि वे उस हार को ३-४ दिनों तक बेचे नहीं, वे जल्दी ही पैसे इकट्ठे करके लायेंगे और उस हार को खरीदेंगे। सेल्समैन ने दोनों की परेशानी को समझकर दयानतदारी दिखाते हुवे उनसे वादा किया की ३-४ दिनों तक वह उस हार को नहीं बेचेगा और उस हार पर एक स्टीकर चिपकाकर, सिद्धार्थ का नाम लिख दिया।

दोनों पति-पत्नी घर पहुंचे तो उन्होंने अपने आपको बहुत थका हुआ महसूस किया। ऐसा नहीं था की वे शारीरिक रूप से थक गए थे बल्कि वे मानसिक रूप से टूट चुके थे। कविता ने घर में मौजूद सभी गहने निकाल कर सिद्धार्थ के सामने रख दिए। सिद्धार्थ ने अपने दोस्तों से कुछ पैसे उधार लेकर और कुछ कर्ज  ब्याज पर उठाकर जैसे-तैसे करके ३ लाख रूपये इकट्ठे किये और पी.सी. ज्वेलर्स से उस हार को ले आये। कविता ने उसी ज्वेलरी बॉक्स में उस हार को रखा, जिस ज्वेलरी बॉक्स में वह मिसेज गौतम से हार लेकर आई थी। आखिरकार एक हफ्ते के बाद, उन्होंने मिसेज गौतम को उनका हार लौटा दिया।

कविता ने मिसेज गौतम को हार तो लौटा दिया लेकिन उनको इस बारे में नहीं बताया की वह एक नया हार था न ही उसके गुम जाने या चोरी चले जाने के विषय में कोई चर्चा की । कविता ने चुपचाप इस काम को अंजाम दिया वहीँ मिसेज गौतम को भी हार के बदलने के बारे में पता नहीं चला। इस घटना के बाद, कविता और सिद्धार्थ की जिन्दगी में ऐसा तूफ़ान आया की उनकी जिन्दगी ही बदल गयी।

सिद्धार्थ ने ऑफिस के काम के अलावा, दो-तीन जगहों पर एकाउंट्स का पार्ट टाइम काम पकड़ लिया  ताकि हार के कारण जो कर्ज उस पर लदा था, उसे चुका सके। कविता ने भी अपने पति का हाथ बटानें के लिए एक एक्सपोर्ट कंपनी में काम पकड़ लिया। वह सुबह जल्दी उठती थी और घर के रोजाना क्रियाकलाप के बाद कंपनी में जाती थी। शाम को घर पहुँचने के बाद, शाम के फिक्स डेली एक्टिविटी को पूरा किया करती थी। उन्होंने उस मकान को छोड़ दिया जहाँ वे रहते थे, बल्कि उन्होंने नए मकान में शिफ्ट कर लिया जो छोटा था लेकिन सस्ता था। धीरे-धीरे वक़्त बीतता गया और कर्ज चुकते गए। दोनों पति-पत्नी ने मेहनत करके सभी के कर्ज चुका दिए परन्तु इस कर्ज को चुकाते-चुकाते उन्हें ३ साल लग गए।

इस तीन सालों में, कविता पूरी तरह से बदल गयी थी। अब वह एक कुशल गृहणी बन चुकी थी। लेकिन उसके चेहरे का वह नूर जो सिद्धार्थ के बॉस की बर्थडे पार्टी पर नज़र आया था, वह उसके बाद कभी नज़र नहीं आया। वह समय से पहले ही बूढी हो गयी थी। उसकी महत्वाकांक्षाओं और ख़्वाबों को जंग लग चूका था। वह अब अपने उस भूतकाल के बारे में सोचती नहीं थी जिसमे उसने अपना जीवन एक राजकुमारी की तरह बिताया था। वह अब अपने पति के साथ ख़ुशी-ख़ुशी और संतोषी जीवन बिता रही थी।

एक दिन वह अपने कंपनी से छुट्टी होने के बाद बस स्टैंड पर खड़ी बस आने का वेट कर रही थी कि  एक कार उसके सामने आकर रुकी। उस कार की खिड़की नीचे हुई तो उसने देखा की, मिसेज गौतम अपने पति मिस्टर लोकेश गौतम के साथ बैठी हुई थी। मिसेज गौतम को देखकर कविता पहले तो हकबकाई, लेकिन फिर उसके चेहरे पर बनावटी मुस्कान ने जगह ले ली । उसने मिसेज गौतम को ‘हाई’ किया और  मिस्टर लोकेश गौतम को नमस्ते किया।

मिसेज गौतम बोली – “ हेल्लो कविता, बहुत दिनों बाद नज़र आई हो। कहाँ थी तुम अब तक? बहुत बदल गयी हो यार। चलो बैठो, हम छोड़ देते हैं।”

कविता ने जबरदस्ती मुस्कुराते हुए कहा –“नहीं! नहीं! मिसेज गौतम, मैं खुद चली जाउंगी। अभी बस आने वाली ही होगी।”

“अरे, मैं कौन सा तुम्हें रोज घर छोड़ने जाउंगी। मैं तो चाहती हूँ की साथ चलोगी तो, रास्ते में कुछ बातें भी हो जायेंगी।”

“ठीक है, मिसेज गौतम।”

मन मारकर कविता गाड़ी में बैठ गयी। वैसे भी उसके मन में बहुत दिनों से यह बात खाए जा रही थी की वह हार के खोने और उसके स्थान पर दूसरा हार देने के बारे में मिसेज गौतम को बता दे।

कविता ने मिस्टर लोकेश गौतम को बता दिया की उसे कहाँ उतरना है। मिसेज गौतम और कविता के बीच इधर–उधर की बातें शुरू हो गयी और दोनों ने एक दुसरे अपनी जिन्दगी के चार साल में बीते कई बातों को एक दुसरे के साथ शेयर किया। कविता ने मन ही मन सोच लिया की आज वह हार के खोने और बदलकर दूसरा रखने की बाबत, वह मिसेज गौतम को बता देगी।

मिसेज गौतम ने कविता से पूछा – “कविता तुम्हारे दिन अचानक कैसे बदल गए? ऐसा क्या कैसे हो गया?”

कविता ने सिर झुकाए, सकुचाते हुए कहा – “ये सब आपके कारण ही हुआ, मिसेज गौतम।”

यह सुनते ही मिसेज गौतम हक्का-बक्का हो गयी। मिस्टर गौतम भी आश्चर्यचकित हो कभी सामने देख रहे थे तो कभी अपनी पत्नी को तो कभी रियरव्यू मिरर से कविता को।

“मेरे कारण, लेकिन कविता कैसे? मैं समझ नहीं पा रही हूँ?”

“मिसेज गौतम, आपको वो नेकलेस याद है, जो आपने मुझे एक दिन के लिए पहनने के लिए दिया था, जब सिड के बॉस की बर्थडे पार्टी थी।”

“हाँ, मुझे अच्छी तरह से याद है। वह नेकलेस तुमने मुझे एक हफ्ते के बाद वापिस किया था।”

“आपको पता है, जो नेकलेस आपने मुझे दिया था, उसे मैंने खो दिया था या शायद किसी ने चुरा लिया था।”

“इसका क्या मतलब हुआ? तुम तो वह नेकलेस वापिस लेकर आई थी।”

“नहीं, मैं आपके पास आपका वाला नेकलेस नहीं लेकर आई थी। मैं आपके पास वैसा ही दूसरा नेकलेस लेकर आई थी। उस नेकलेस के कारण हमें तीन साल तक एक-एक पाई, हर उस व्यक्ति का कर्जा चुकाना पडा, जिससे उस नेकलेस को खरीदने के लिए हमने धन कर्ज पर लिया था। लेकिन अंततः अब वह कर्ज खत्म हो चुका है और मैं खुश हूँ।”

कविता ने, मिस्टर गौतम को गाड़ी साइड में रोकने के लिए कहा।

मिसेज गौतम बोली – “तुम कहना चाहती हो की तुमने मेरे हार की जगह एक नया हार लाकर दिया था।”

“हाँ, क्यूँ आपने कभी नोटिस नहीं किया। जहाँ तक मैं समझती हूँ वो दोनों हार एक ही जैसे लगते थे।” – कविता बोली।

मिसेज गौतम ने मिस्टर गौतम को देखा और मुस्कुराते हुए उसने कविता के गाल को अपने दाहिने हाथ से छुआ और बोली – “कविता, मेरी प्यारी कविता, वो हार जो मैंने तुम्हें दिया था, वह असली थोड़े न था। वह तो एक आर्टिफीसियल ज्वेलरी था, जिसके ऊपर लगे हुए डायमंड शीशे के थे और दूसरे हिस्सों पर सोने का रंग चढ़ा हुआ था, और जिसका मूल्य मात्र ५००० रूपये था।”

वो खड़ी थी, ठगी सी, हैरान सी, पशेमान सी, तीन साल, पुरे तीन साल, कितनी शिद्दत, कितनी लगन से उसने अपने पति के कंधे से कन्धा मिलाकर, हर ख़ुशी को तर्क करके, तीन साल पहले एक छोटी सी ख़ुशी की बदले कितनी बड़ी कीमत चुकाई थी। लेकिन इन तीन सालों के दरमियां ये सफ़र उसका कितना सुकूनदेह रहा था, हर एक किस्त चुकाने के बाद चेहरे पर खुशियों का सैलाब उमड़ता था, सिड प्यार से उसके गले में हाथ डालकर झूम जाया करता था और वो भी कितनी खुशनसीब समझती थी खुद को। एक हार ने कितना कुछ बदल दिया था। उसके चारों ओर बिखरी हुई खुशियाँ को समेटना सीखा दिया था। उसने मुस्कुरा कर आसमान की तरफ देखा और मन का सारा बोझ उतर गया। अब वो मुतमईन थी, उसे पता चल चूका था, की खुशियों का कहीं कोई मेयार नहीं होता, वो तो बस होती हैं, एहसास बनकर हर जगह, हमारे चारो तरफ, सिर्फ समेटना आना चाहिए।


इति समाप्त

Comments

  1. बहुत ही खूबसूरत कहानी है। बिल्कुल भारतीय परिवेश मे ढला हुआ। लगता ही नही , ये अनुवादित है।

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  2. विशुद्ध भारतीय

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  3. Uske baad us haar ka kya hua??? Kya wo haar Kavita ko mila???

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