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A Diary of SMPian – 4

A Diary of SMPian – 4




पल्प-फिक्शन की दुनिया से परिचय:-


पढने का शौक मुझे बचपन से ही था। जब भी कोई पत्रिका मुझे कहीं से मिलती थी तो मैं उसे पढ़ लिया करता था। पत्रिकाओं में आई हुई कहानियां मुझे बहुत पसंद होती थी। एक बार यूँ ही जब मैं “सरिता” नाम की पत्रिका पढ़ रहा था तो उसमे एक कहानी थी जो क्राइम-फिक्शन श्रेणी में आती थी। उस कहानी को जब मैंने पढ़ा तो मुझे बहुत मजा आया लेकिन वह कहानी पूर्ण भागों में नहीं थी। खैर मैं उस समय ऐसी हालत में नहीं था की उस पत्रिका को खरीद कर पढता इसलिए मैं उसे भूल ही गया।

यह बात सन २००३ से पहले की है, मेरे घर के सामने के घर में एक दम्पति अपने 2 बच्चों के साथ रहने आये थे। आज मेरे घर और उनके घर में इतना लगाव है की खून का रिश्ता भी कम है। एक दफा उनका पूरा परिवार गाँव चले गए तो चाबी मेरे घर पर दे गए। उस समय मैं उनके घर में ही टीवी देखा करता था क्यूंकि तब मेरे घर पर न बिजली हुआ करती थी और न ही टीवी। मैंने एक दिन वो चाबी ली और टीवी देखने के लिए जेठ की दुपहरी में उनके घर चला गया। मैं टीवी के सामने रखे बिस्तर पर लेट कर टीवी देख रहा था तो मुझे एहसास हुआ की एक तरफ बिस्तर कुछ ऊँचा उठा हुआ है। उत्सुकतावश, मैंने बिस्तर उठा कर देखा तो एक उपन्यास था, जिसका नाम था – “कानून की लोमड़ी”। किताब हाथ में आते ही मैंने टीवी बंद किया और उसे पढना शुरू कर दिया। इस उपन्यास का मुख्य किरदार एक वकील था जिसका नाम “केशव पंडित” था और लेखक भी “केशव पंडित” नाम का था (जबकि आज मुझे मालूम है ऐसे उपन्यास बाज़ार में घोस्ट लेखक लिखा करते हैं)। मुझे उपन्यास पढ़ कर बहुत मजा आया। मैंने उपन्यास को पढ़ कर वापिस वहीँ रख दिया। जब उनके छत पर शौच करने के इरादे से गया तो देखा की एक बोरे में कुछ स्कूल की किताबें रखी हैं मैंने उसको खंगाला तो 2-3 और उपन्यास मिल गए। बस फिर क्या था उनको भी आने वाले दिनों में निपटा डाला। ये छुट्टियाँ बेहतरीन गुजरी थी।

मेरे मौसा और मौसी यहीं दिल्ली में, टिकरी बॉर्डर नामक जगह पर रहते हैं। टिकरी बॉर्डर रोहतक रोड पर दिल्ली और हरियाणा का बॉर्डर है। पहले वहां कई फैक्ट्रीज चला करती थी लेकिन अब बंद हो चुकी है। जिस वक़्त की मैं बात बताने वाला हूँ उस समय भी मौसा-मौसी वहीँ रहते थे। मैं छुट्टियों में उनके घर १०-१५ दिन के लिए रहने के लिए गया था। मौसा एक फैक्ट्री में काम करते थे और उनके बड़े बेटे मतलब मेरे भैया अपनी बड़ी बहन की ससुराल बनारस गए हुए थे। मेरे भैया को भी उपन्यास पढने का बहुत शौक था इसका पता मुझे तब चला जब मौसी के घर में मुझे एक कार्टन उपन्यास मिले। लगभग ३०-४० उपन्यास देख कर तो मेरा दिल बाग़-बाग़ हो गया। मैंने उनको पढना शुरू किया और पढता रहा। जब मैं वहां से वापिस आने लगा तो मैं सारे उपन्यास अपने घर ले आया। इन उपन्यासों में, वेद प्रकाश शर्मा, केशव पंडित, टाइगर, मनोज और अनिल मोहन के उपन्यास थे। इनमे से कई उपन्यास मुझे बहुत पसंद आये, जैसे की वेद प्रकाश शर्मा की “वतन” और “तिरंगा”, टाइगर की “आँखें” और मनोज के दो सामाजिक उपन्यास। केशव पंडित के भी उपन्यास थे जो मुझे पसंद आये। इन उपन्यासों को मैंने कई वर्षों तक सहेजकर रखा लेकिन एक वक़्त मुझे जब पैसों की जरूरत थी मैंने इन उपन्यासों को बेच दिया और इस बात का मुझे आज भी दुःख है।

उसी साल या उससे अगले साल, ध्यान नहीं आ रहा है, मेरे फूफाजी, जिन्होंने हमें दिल्ली में बसाने में सहायता की थी और जो यही हमारे कॉलोनी में ही रहते हैं, काले ज्वर ने पकड़ लिया। उनका पूरा एक महीने तक एम्स में इलाज़ चला था तब जाकर वो ठीक हुए थे। मैं अपने रिश्तेदारों में बड़ा था इसलिए मेरे घर वालों ने उनकी देखभाल के लिए एम्स भेज दिया था। मैं पुरे एक महीने एम्स में उनके साथ रहा ताकि किसी भी चीज की जरूरत हो तो मैं फौरी तौर पर काम कर सकूँ। लेकिन सोचिये आपको एक महीने अकेले, बोरिंग से हॉस्पिटल जैसे जगह पर बिताना हो तो आपको कैसा लगेगा। मेरे हॉस्पिटल पहुँचने के दुसरे दिन ही मुझे कुछ दवाइयाँ लेने के लिए भेजा गया। मैं जब रोड क्रॉस करके दवाइयाँ लेने सफदरगंज हॉस्पिटल के साथ लगे दवाइयों की दुकानों की तरफ बढ़ा तो देखा की पैदल चलने वाले रस्ते पर 3-४ बड़ी दुकानें थी जिन्होंने रस्ते पर ही चटाइयों के ऊपर नावेल ही नावेल लगा रखे थे। मैं बीच रास्ते में ही रुक गया और उन दुकानों की तरफ बढ़ा। ३००-४०० उपन्यास वहां से हर आने जाने वाले के दिलचस्पी के मरकज बने हुए थे। मैं जाकर खड़ा हो गया और पूछा की क्या वह किराए पर देता है। उसने बताया की पुरे पैसे जमा करने पर वह मुझे किराए पर पढने के लिए दे सकता है। बस फिर क्या था मैंने उससे उसी दिन से उपन्यास किराए पर ले-लेकर पढना शुरू कर दिया। उस एक महीने में मैंने कई उपन्यास और कई लेखकों पढ़ा लेकिन जो नाम आज भी मुझे याद पड़ता है वह है जेम्स हेडली चेज का। मैंने पहली बार चेज का उपन्यास हिंदी में वहीँ पढ़ा था और वहीँ उनका नाम भी सूना था। गौर करेंगे की हॉस्पिटल में अपने फूफाजी के बेड के बगल वाले बेड पर लेटे-लेटे कई उपन्यास चाट डाले। इससे यह फर्क पड़ा की मेरी फिजिकल एक्टिविटी कम हो गयी जिसने मेरे पेट को हिला डाला और मैं 3-४ दिन तक लूज-मोशन से परेशान रहा। आप दिन में एक उपन्यास लगातार पढ़ सकते हैं लेकिन दिन में ५-६ उपन्यास लगातार पढना खतरनाक हो सकता है।

ऐसे ही एक और किस्सा आपको बताता हूँ। मेरे पड़ोस में एक और अंकल हैं जो पहले उपन्यास पढ़ा करते थे। उनसे मुझे दिनेश ठाकुर और रीमा भारती के उपन्यास पढने का पहली बार मौका हाथ लगा। वैसे मेरा उनका रिश्ता दोस्ताना था तो मैंने उन्हें मेरे पास रखे भैया वाले कुछ उपन्यास उनको दे दिए पढने के लिए और उनसे उनके पास रखे उपन्यास ले लिए पढने के लिए। लेकिन वो बहुत कम पढ़ा करते थे फिर भी मेरे रोज की खुराक के लिए वह बेहतर था। वह वक़्त ऐसा था, वह उम्र ऐसा था की दिनेश ठाकुर और रीमा भारती को पढना अच्छा लगता था। ऐसे वक़्त के दौरान ही उनके साले साहब गोंडा से आये जिनको उपन्यास पढने का शौक मुझसे भी बुरा लगा हुआ था। वो बाकायदा अपने बैग में उपन्यास भर कर लाये थे। मैंने जैसा अंकल के साथ किया वैसा ही उनके साले साहब के साथ भी किया और कई नए उपन्यासों का रसास्वादन किया। उनको फंतासी उपन्यास पढने का बहुत शौक था जिसके कारण वह “प्रकाश भारती” की अग्नि पुत्र सीरीज बहुत पढ़ा करते थे जिसे पढना मेरे बस की बात नहीं थी। कभी उनके घर गोंडा जाना है ताकि उनके पास रखे सभी पाठक साहब के उपन्यास उठा कर ला सकूँ।

तो दोस्तों ये कुछ किस्से थे जिसमे मैं पल्प-फिक्शन की दुनिया ज्यादा से ज्यादा जुड़ा। मेरे लिए उस समय कहानी मायने रखती थी। एक लम्बी कहानी मिलनी चाहिए चाहे वह कैसी भी हो। उस समय मेरा किसी विशिष्ट विषय पर चुनाव नहीं था। मैं तो जो मिलता था वह पढ़ लेता था। खैर अब वह दौर गुजर चूका है लेकिन कई किस्से अभी भी दिमाग में है जो कोशिश करते हैं की मैं उन्हें लिख डालूं लेकिन फिर कभी।

अगले पन्ने में मेरी कोशिश रहेगी की मैं आप सभी को इस बात से परिचित कराऊँ की कैसे पल्प-फिक्शन में मैंने क्राइम-फिक्शन और क्राइम-फिक्शन में विशिष्टः मर्डर-मिस्ट्री श्रेणी को चुना।
तब तक के लिए विदा!

आभार
राजीव रोशन


नोट:- ऊपर लेख में मैं कई लेखकों के नाम ले चूका हूँ लेकिन मेरा मंतव्य किसी लेखक को छोटा या बड़ा साबित करना नहीं था और न ही किया है। मैंने अपने संस्मरण को आप सभी के साथ साझा किया है और उम्मीद है की आप सभी इसका सम्मान करते हुए लेखकों पर चर्चा के दौरान संयम और समझदारी से काम लेंगे।


Read Previous Part:- A Diary of SMPian - 3

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