बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,
जो दिल
खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।
संत कबीर का यह दोहा मुझे तब याद आ रहा था जब
मैं “मुझसे बुरा कौन” और “मुझसे बुरा कोई नहीं” उपन्यास पढ़ रहा था। जीत सिंह सीरीज
के ये दोनों उपन्यास इसी वर्ष लगभग दो महीने के अंतराल पर छपे हैं। दोनों उपन्यास
एक ही वृहद् कहानी के दो भाग हैं – जिसका पहला भाग “मुझसे बुरा कौन”, अप्रैल में
प्रकाशित हुआ, वहीँ दूसरा भाग “मुझसे बुरा कोई नहीं” इसी महीने प्रकाशित हुआ है।
ये दोनों ही उपन्यास “हार्पर हिंदी” से प्रकाशित हुए हैं, इसलिए आसानी से सभी
बुकस्टोर और ई-कॉमर्स वेबसाइट पर उपलब्ध हैं।
*Spoiler
Alert – सावधान - अगर आपने “मुझसे
बुरा कौन” उपन्यास पढ़ा है, तो
आप पहले “मुझसे बुरा कोई नहीं” उपन्यास पढ़िए, उसके बाद ही इस समीक्षा को पढने की
कोशिश कीजियेगा। अगर आपने दोनों ही उपन्यास अभी तक नहीं पढ़ें हैं तो मेरी सलाह की आप
इस लेख को छोड़ किसी दुसरे लेख पर ध्यान लगाएं। हो सकता है कि कुछ प्रशंसकों,
पाठकों और मित्रों का हाज़मा इस लेख से खराब हो जाए, उन्हें सलाह है - ‘मुझसे बुरा
कोई नहीं’। इस सबके बावजूद भी आप इस लेख को पढने को इच्छुक हैं, तो आपका स्वागत है
लेकिन बाद में कुछ ऐसा-वैसा न कह जाइएगा जिसके बाद मुझे कहना पड़े – “मुझसे बुरा
कौन?”
मैं फिर से दोहे की तरफ आता हूँ, जो इन दोनों
उपन्यास में जीता के चरित्र को चरितार्थ करता है। यह खुद जीत सिंह का स्वयं के लिए
आंकलन है की वह बुरा इंसान है लेकिन अपनी बदनसीबी के कारण। जीत सिंह सीरीज
पढने वाले पाठकों एवं उसके प्रशंसकों ने हमेशा उससे हमदर्दी जताई है, उसे कभी बुरा
इंसान माना ही नहीं। जीत सिंह का किरदार इन दोनों उपन्यास में किसी बुरे इंसान का
नहीं है, पूर्व में प्रकाशित इस सीरीज के किसी भी उपन्यास में उसका किरदार बुरे
इंसान का था भी नहीं, बल्कि वह तो बदनसीब इंसान है, जिसके साथ बुराई, यारमारी,
धोखेबाजी आदि अपने-आप जुड़ते नज़र आते हैं और अगर ये सभी बुराइयां उसके साथ न जुड़े
तो ‘जीता’ को ‘जीता’ कहने में संकोच होता है।
लगभग ६०० पृष्ठों में फैले, इन दो उपन्यासों की
वृहद् कथा का आरम्भ वहीँ से होता है जहाँ “गोवा गलाटा” उपन्यास का अंत होता है। इस
उपन्यास के केंद्र बिंदु में जीत सिंह नहीं है, जैसा की अमूमन इस सीरीज के पूर्व
प्रकाशित उपन्यासों में हुआ है, बल्कि ‘मराठा मंच’ के कद्दावर नेता “बहरामजी
कांट्रेक्टर” है। बहरामजी कांट्रेक्टर, जिसका पूर्व में अंडरवर्ल्ड पर सिक्का चलता
था, जिसके कई गैरकानूनी काम मुंबई में उसी तरह से चलते थे जैसे राजबहादुर बखिया के
‘कम्पनी’ का निज़ाम और काम चलता था। बहरामजी कांट्रेक्टर, समय की चाल देखते हुए,
अपने सभी गैरकानूनी कामों से हाथ खींच लेता है और वह राजनीती से जुड़ कर ‘मराठा मंच’
नामक राजनैतिक पार्टी का ‘मुखिया’ बनकर महाराष्ट्र सरकार में अपनी साख बना लेता है।
वहीँ वह अपने सभी कामों को अपने सिपहसालारों में इस तरह बाँट देता है की किसी को
भी यह खबर नहीं हो पाती है कि अभी भी बहरामजी कांट्रेक्टर अंडरवर्ल्ड और ड्रग
माफिया जैसे धंधों से जुड़ा है। पुलिस, अंडरवर्ल्ड और सरकार के लिए बहरामजी
कांट्रेक्टर अपनी गैरकानूनी कर्मों की जिन्दगी से रिटायर हो चूका था और उसकी दूसरी
पारी एक सशक्त नेता के रूप में चल रही थी।
जैसा की मैंने ऊपर के पंक्तियों में कहा की इस
वृहद् कथानक के केंद्र में जीत सिंह नहीं बल्कि “बहरामजी कांट्रेक्टर” है। ऐसा
कहने की पीछे कारण यह था की उपन्यास के आरम्भ से ही “बहरामजी कांट्रेक्टर” के
निजाम को हिलाकर, उसे चोट पहुंचा कर, नेस्तानबूत करने की साज़िश चलती है, जिसमे जीत
सिंह घुन की तरह पिस जाता है। वह उस कीड़े की तरह मकड़ी के जाले में फंसता है, जिसकी
चाहत, जिसका मुकाम वहां नहीं था लेकिन फिर भी अनजाने में वह उस जाल में फंस जाता है।
वह उस जाले से निकलने का अथक प्रयास करता है लेकिन कामयाब नहीं हो पाता और अंत में
मकड़ी का शिकार बन जाता है। लेकिन जीत सिंह इस जाल में अनजाने में नहीं फंसता, उसे
बाकायदा एक सोची-समझी योजना के तहत फंसाया जाता है। वह बस षड़यंत्र का शिकार होता
है, जो की उसे मौत के कगार पर पहुंचा देती है और मौत, जो न जाने कब उसके करीब आकर,
उसकी सभी साँसे छीन लेने पर आमदा होती है। जीत सिंह की खुद को मौत के चंगुल से
बचाने की जद्दोजहद की कहानी भी इस वृहद् कथानक में है। ‘घात, आघात और प्रतिघात’ का
मिला जुला मिश्रण आपको इस वृहद् कथानक में देखने को सहज़ ही मिल जाता है।
घात – बहरामजी कांट्रेक्टर की सत्ता को उखाड़ फैंकने
के लिए उसके अनजान दुश्मन ऐसी घात लगाते हैं की बहरामजी कांट्रेक्टर सभी सुविधाएं
होते हुए भी कुछ कर ही नहीं पाता है। कुछ ऐसा ही जीत सिंह के साथ होता है की वह
चाहते हुए भी अपने आप को अपंग महसूस करता है।
अघात – फिर बहरामजी कांट्रेक्टर के ऊपर उसके अनजान
दुश्मन ऐसा अघात करते हैं की उसकी रूह उसके बनाने वाले के पास लगभग पहुँच जाती है।
जीत सिंह पर अघात तब होता है जब तूफ़ान आकर गुजर चूका होता है।
प्रतिघात – जब महाराष्ट्र के इतने
कद्दावर नेता और पूर्व में अंडरवर्ल्ड के ड्रग माफिया के खिलाफ उसके दुश्मन इतनी
दूर तक सेंध लगाने में कामयाब हो जाते हैं तो उसके नुमाइंदे शुरू करते हैं - प्रतिघात।
जिसमे जीत सिंह मौत के करीब से करीबतर पहुँचता जाता है।
इतने वृहद् कथानक में, आपको सस्पेंस, थ्रिल और
ड्रामा भी मिलेगा। ६०० पृष्ठों में पसरी इस कहानी का कथानक कसा हुआ है, किरदार
बेहतरीन और कहानी की जरूरत के अनुसार हैं। जिस गैंगवार की आशंका, पहले उपन्यास में
होती है, वह आगे चल कर, दुसरे उपन्यास में क्या गुल खिलाती है, पाठक खुद निर्धारित
करें तो अच्छा है। इतने वृहद् कथानक के बारे में एक बात और कहूँगा की सर सुरेन्द्र
मोहन पाठक जी को ‘मारिओ पूजो’ के उपन्यास ‘गॉडफादर’ से बहुत ज्यादा मोह है, इस बात
का एहसास आपको तब होगा जब आप ६०० पन्नों की कहानी को खत्म कर देते हैं। सर
सुरेन्द्र मोहन पाठक जी ने पहले भाग में कई घटनाओं को जोड़कर एक प्लाट तैयार किया
और दुसरे भाग में उसी प्लाट पर कहानी को आगे बढाते हुए, पाठकों के दिल में शमा
बाँधने जैसा एक कथानक लिख डाला।
किरदारों के बारे में बात करूँ तो – बहरामजी
कांट्रेक्टर, गाइलो, सोलोमन, खालिद, हनीफ लोधी और सावन झंकार – ये ऐसे किरदार इस
कथानक से उभर कर आये हैं, जो सर सुरेन्द्र मोहन पाठक जी के पाठकों को आने वाले
भविष्य में याद रहेंगे। घटनाओं की बात करूँ तो – बहरामजी कांट्रेक्टर के खिलाफ की
गयी साजिश की हर घटना और कथानाक का क्लाइमेक्स – इतना शानदार तरीके से लिखा गया है
कि भविष्य में पाठक जी प्रशंसकों को मुह-जुबानी याद रह सकता है। कहानी के आरम्भ से
अंत तक घटनाएं तेज़ घारा के साथ बहती हैं, जिसमे सर सुरेन्द्र मोहन पाठक जी का
प्रस्तुतीकरण और अंदाजे-बयाँ, उसे और रोचक बना देता है। कहानी की भाषा शैली की तरफ
आयें तो – इस कहानी में मुम्बईया भाषा का बहुतेरा इस्तेमाल है लेकिन साथ ही
अंग्रेजी, हिंदी और उर्दू के शब्दों का भी इस्तेमाल किया गया है।
“मुझसे बुरा कौन” उपन्यास तो मैंने हार्ड-कॉपी
में खरीद कर पढ़ा था लेकिन “मुझसे बुरा कोई नहीं” मुझे डेलीहंट पर पढना पड़ा। सबसे
पहले तो यह कमाल की बात है की उपन्यास अभी तक देश भर के बुकस्टोर पर पहुंची नहीं
है, अमेज़न पुस्तक को इस महीने के अंत या अगले महीने के आरम्भ में भेजने वाला है, पर
आप किताब ईबुक में kindle और डेलीहंट पर पढ़ सकते हैं। कमाल की बात एक यह भी है की
डिस्ट्रीब्यूटर से पुस्तक के बारे में पूछो तो कहता है की उपन्यास १५ जून से
बिक्री के लिए उपलब्ध होगा जबकि वही उपन्यास ईबुक में उपलब्ध है। डिस्ट्रीब्यूटर
कहता है की, हमारे कई बुकस्टोर मालिकों ने यह कह कर आर्डर का साइज़ कम कर दिया है
कि हम डायरेक्ट अपने पास से पुस्तक बेच रहे हैं। मुझे समझ नहीं आता की kindle और
डेलीहंट पर पुस्तक उपलब्ध हो जाने के पश्चात डिस्ट्रीब्यूटर और बुकस्टोर मालिकों
को कितना नुकसान होगा। डेलीहंट पर पुस्तक पढने का सबसे बुरा अनुभव मुझे इस बार ही
हुआ है क्यूंकि “मुझसे बुरा कोई नहीं” के पेज अरेंजमेंट बहुत वाहियात है, कई पेज
आगे और पीछे लगे हुए हैं, लाइन अलाइनमेंट का भी यही हाल और कई जगह प्रूफरीडिंग की
गलतियाँ हैं। मैंने इस बाबत जब डेलीहंट को मेल किया तो उनका जवाब था की जो किताब
पब्लिशर के पास से आई है बिलकुल वही किताब अपलोड की गयी है। कहीं कोई बदलाव या
तकनिकी समस्या नहीं है। कमाल की बात यह है की वे अपनी जगह पर टिके हैं लेकिन फिर
भी मुझे रिफंड कर रहे हैं, इसे कहते हैं ‘चोर की दाढ़ी में तिनका’। जैसे तैसे मैंने
“मुझसे बुरा कोई नहीं” पढ़ कर खत्म किया और सोचा की आप सभी को बताऊँ की पाठक साहब
ने कितने शानदार पुस्तक की रचना की है।
फिर से उपन्यास की समीक्षा की तरफ आता हूँ। “मुझसे
बुरा कौन” उपन्यास में, जीत सिंह को २७२ पन्नों में, लगभग १२० पन्नों पर जगह मिली
है और इतनी ही उपस्थिति मैं “मुझसे बुरा कोई नहीं” उपन्यास में मान लूँ तो – लगभग
६०० पन्नों में फैली हुई इस कहानी में लगभग २४० पन्ने ही जीत सिंह को मिले। चूँकि
कहानी सशक्त, कसी हुई और बेहतरीन रचना है तो इस बात को दरकिनार कर देना चाहिए।
सावन झंकार के किरदार के बारे में, मैं साफ़-साफ़ यह बात कहना चाहूँगा की पाठक साहब
ने जानबूझकर इस किरदार को इस वृहद् कथानक में घुसाया ताकि उपन्यास की लेंग्थ बढ़
जाए क्यूंकि सावन झंकार से सम्बंधित घटना का जुड़ाव पूरी कहानी में कहीं नहीं होता।
सावन झंकार और उसकी गर्लफ्रेंड कारमला की कहानी एक अलग ही चलती है और आगे की कहानी
में बिना जुड़ाव के, पाठक साहब, इस किरदार को दूध से में से मक्खी की तरह निकाल
फेंकते हैं जो साफ़-साफ़ इस बात पर इशारा करता है की कहानी की लेंग्थ बढ़ गयी है, अब इसकी
कोई जरूरत नहीं। अगर कोई पाठक जिसने दोनों उपन्यास को पढ़ा हो, क्या यह बताने की
कृपा कर सकता है की पूरी कहानी में ‘सावन झंकार’ कहाँ फिट होता है। “मुझसे बुरा
कोई नहीं” में सावन झंकार को २५ पन्नों में जगह मिली है, अर्थात पुरे ६०० पन्नों
की कहानी में ५० पन्ने एक ऐसे, किरदार और घटना को दिया गया जिसका कोई महत्व कहानी
में नज़र नहीं आता है।
मैं इस वृहद् कथानक में जीत सिंह के किरदार के
बारे में सोच रहा था। जिस तरह से पाठक साहब ने जीत सिंह के किरदार को पूर्व
प्रकाशित उपन्यास में ऊँचा उठाया था, लगता है की एक ही बार में धड़ाम नीचे गिरा
दिया है। मुझे विमल सीरीज के कुछ शुरूआती उपन्यास याद आ गए जब कोई भी विमल को
ब्लैकमेल करके कोई भी गैरकानूनी काम करा लेता था। जीत सिंह के किरदार में पाठक साहब
ने ऐसा बदनसीबी का ठप्पा मारा है (दीवार फिल्म के ‘मेरा बाप चोर जैसा’) की मिटाए
नहीं मिटेगा। कुछ प्रशंसक कहते हैं की जीते का किरदार विमल से ऊँचा जाने वाला है।
मैं इन दोनों उपन्यास को पढने के बाद कहूँगा की, बिलकुल नहीं जाने वाला। पुस्तक के
नाम के अनुसार तो उपन्यास में जीता का किरदार ऐसा नहीं की वह शीर्षक को जस्टिफाई
कर सके। मेरे हिसाब से पुस्तक का नाम कुछ यूँ होना चाहिए था:-
जीत सिंह – “मुझसे बुरा कौन” – में – “मुझसा
बदनसीब कौन” (ये नाम एन फिट है)
जीत सिंह – “मुझसे बुरा कोई नहीं” – में – “मुझसा
बदनसीब कोई नहीं” (ये नाम भी एन फिट है)
पाठक साहब ने जीत सिंह को इन दोनो उपन्यासों में
कुछ ऐसा ही दिखाया है। जीत सिंह, जिसने कई क़त्ल किये, कई तिजोरी तोड़े और बहरामजी
कांट्रेक्टर तक की आँखों में दीदादिलेरी से धुल झौंक आया, वह पुरे उपन्यास में
अपनी बदनसीबी के लिए रोता नज़र आता है। वहीँ, जीत सिंह का दोस्त, गाइलो पुरे फॉर्म
में नज़र आता है। यहाँ तक सिर्फ गाइलो ही नहीं, विक्टर, परदेशी, पक्या, शम्सी आदि
भी जीत सिंह की पुरे मनोयोग से सहायता करते हैं। ऐसे मौके पर मुझे विमल सीरीज की
सबसे असफल किताब “जो लड़े दीन के हेत” की याद आ जाती है। आप भी पढ़िए “मुझसे बुरा
कोई नहीं”, कुछ न कुछ वैसा ही याद आ जाएगा। लेकिन, लेकिन फिर भी किताब में मनोरंजक
तत्वों की कमी नहीं है। उपन्यास आपको आदि से अंत तक बांधे रखता है। अगर उपन्यास
में ये सभी बातें हैं, तो आप भले ही किसी की भी समीक्षा पढ़ लें, उपन्यास को जरूर
पढ़िए।
एक और बात की तरफ पाठक ध्यान दें, पाठक साहब ने “मुझसे
बुरा कौन” उपन्यास में तारीखों के अनुसार कहानी को विभाजित किया है। अगर अधिक गौर
किया जाए तो पायेंगे की कहीं-कहीं, कई घटनाओं से पहले पाठक साहब समय या वक़्त भी
लिख रहे हैं। थोड़ा ध्यान से अंतिम भाग को पढ़ें तो आप पायेंगे की उसमे सभी घटनाओं के
आरम्भ से पहले समय या वक़्त लिखा नज़र आता है। जिसके कारण हमें अंतिम भाग तेज़-तर्रार
नज़र आता है। ऐसा ही कारनामा वो “मुझसे बुरा कोई नहीं” में करते हैं, जिसके कारण कहानी में
रफ़्तार दिखाई देती है।
“मुझसे बुरा कौन” उपन्यास में १५ पन्नों का
लेखकीय है, जो हमारे लाइफ-स्टाइल से जुड़ा हुआ है। इस लेखकीय में पाठक साहब ने “मोटापे”
को टारगेट किया है। वहीँ “मुझसे बुरा कोई नहीं” उपन्यास, में भी लगभग १८ पन्नों का
ही लेखकीय होगा, जो हमारे लाइफ-स्टाइल, अल्कोहल ड्रिंकिंग पर आधारित है। दोनों ही
लेखकीय, सर सुरेन्द्र मोहन पाठक जी ने बहुत ही मनोयोग से लिखे हैं और पाठकों के
लिए उपन्यास को पढने से पहले “वार्म-अप” सरीखा एहसास देते हैं।
ऊपर मैंने कई जगह, इस वृहद् कथानक को लगभग ६००
पन्नों में पसरा हुआ बताया है। गौरतलब है कि, जब “मुझसे बुरा कौन”, अमेज़न पर
प्री-आर्डर होना शुरू हुआ था तो उपन्यास के स्पेसिफिकेशन में पन्नों की संख्या ३३६
के करीब थी। लेकिन जब किताब हाथ लगी तो पन्नों की संख्या सिमट कर २९४ हो गए। खैर
कोई बात नहीं, मेरा कहना है की, इस बार भी अमेज़न पर उपन्यास के पन्नों की संख्या ३२०
दर्शायी जा रही है और पुराने इतिहास को देखते हुए लगता नहीं की पन्नों की संख्या
३०० से ऊपर होगी। अब आप ये सोच रहे हैं की कितना अजीब आदमी है, खुद ही ६०० का गाना
गा रहा था और खुद ही उसकी टांग तोड़ रहा है तो कहूँगा की – “मुझसे बुरा कौन?”
उपन्यास “मुझसे बुरा कौन” की पेपर क्वालिटी उस
स्तर की नहीं है जैसा की सर सुरेन्द्र मोहन पाठक जी के, हार्पर हिंदी से छपे उपन्यासों
के थे। ऐसा लगता है की दिन-ब-दिन पेपर क्वालिटी खराब होती जा रही है। वहीँ पेपर की
क्वालिटी और पृष्ठों की संख्या के अनुसार देखा जाए तो, किताब का मूल्य ज्यादा लगता
है। ऐसा लगता है की पेपर क्वालिटी और पृष्ठों की संख्या में जिस प्रकार गिरावट नज़र
आ रही है, उसी प्रकार पुस्तक का मूल्य भी बढ़ता जा रहा है। खैर, मुझे इससे कोई फर्क
नहीं पड़ता है – मैं तो उपन्यास खरीदूंगा, चाहे जिस दर में उपलब्ध हो और फिर उसे
पढूंगा भी और फिर आगे अपनी समीक्षा में बढ़ते दर के बारे में लिखूंगा भी – क्यूंकि
– “मुझसे बुरा कोई नहीं”।
आशा है, आप सभी को, यह समीक्षा पसंद आई होगी।
समीक्षा पसंद न भी आये तो क्या, पुस्तक
तो पसंद आया न, फिर कोई गल नहीं। अंत में मुझे लगता है कि ऊपर लेख में संत कबीर का
दोहा, कहीं
न कहीं, मुझ
पर भी सही से लागू होता है|
आभार
राजीव रोशन
Hi , could you please suggest me best novel of surender pathak. and which novels are part of bakhiya puran?
ReplyDelete