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सिंगल शॉट (समीक्षा)



सिंगल शॉट (समीक्षा)


लेखक – सुरेन्द्र मोहन पाठक

*Spoiler Alert – अगर आपने सिंगल शॉट उपन्यास नहीं पढ़ा है, तो आपको सावधान किया जाता है की पहले ‘सिंगल शॉट’ (आप इस उपन्यास को यहाँ पढ़ सकते हैं - Single Shot) पढ़ लें| उसके बाद ही इस समीक्षा को पढने की कोशिश कीजियेगा। इस सबके बावजूद भी आप इस लेख को पढने को इच्छुक हैं, तो आपका स्वागत है|
हमारे समाज में, गैंबलिंग, सट्टा और जुआ आदि कुछ ऐसी बुरी आदते हैं जिनका हमारे में समाज में कोई स्थान नहीं होता है। हमारे समाज में ये आदतें घृणा की दृष्टि से देखी जाती है। यहाँ तक की हमारे देश का कानून भी इस क्रिया के मामले में सख्त है। हमारे देश में, गैंबलिंग, सट्टा और जुआ आदि, खेलने वाले को और जो इसे खेलने के लिए स्थान और सामान मुहैया कराते हैं, अगर पकड़े गए तो, उनको सख्त से सख्त सजा देता है। विदेशों में एक अलग स्थान बने होते हैं, जिन्हें सरकार, गैंबलिंग और जुआ, का खेल खेलने के लिए, स्पेशल लाइसेंस, मुहैया कराती है और इन स्थानों को कैसिनो कहा जाता है। लेकिन कैसिनो में सट्टा का खेल नहीं होता, सट्टा का खेल मूलतः ढका-छुपा खेल है, जो ऑनलाइन, ऑफलाइन और मोबाइल के द्वारा ही लगाया जाता है। यह कुछ इस प्रकार है, जैसे हमारे देश में, घोड़ों की रेस होने पर, लोग घोड़ों पर अपना धन लगाते हैं। सट्टा का बाज़ार अब बहुत बड़ा हो गया है और यह जुए का एक मॉडर्न रूप भी है। बस फ़ोन पर ही फलां खिलाड़ी पर, फलां टीम पर, फलां घोड़े पर, फलां कार पर सट्टा लगा दिया जाता है और हर क्षेत्र में इन सट्टा एजेंट्स के नुमाइंदे मौजूद होते हैं जो, सट्टा लगाने पर हारने वाले से धनराशि वसूलते हैं और जीतने वाले को उसकी राशि देकर आते हैं।

हमारे समाज में, जुओं, गैंबलिंग, सट्टा और कैसिनो आदि पर इसलिए रोक लगी है, इसलिए इस कृत्य को गैरकानूनी समझा जाता है क्यूंकि, कई बार जो इस खेल के दौरान हार जाते हैं, बहुत अधिक हार जाते हैं, वे आत्महत्या कर बैठते हैं या रकम को देने के लिए गैरकानूनी तरीका इस्तेमाल करते हैं। इसको कुछ यूँ समझ सकते हैं की एक बुराई दुसरी बुराई को जन्म देने के लिए तैयार रहती है या एक अपराध दुसरे अपराध को जन्म देती है। इस कृत्य की लत या आदत कुछ ऐसी है की अगर आप इस खेल में जीत रहे हैं, तो आपकी मंशा और जीतने, और जीतने की होती है और अंत में आप या तो बहुत अधिक धनराशि जीत जाते हैं या जो अपने पास होता है उसे भी गँवा बैठते हैं। यह कुछ ऐसा ही की अगर आप हारने लगे, तो आपके अन्दर यह भावना घर कर के बैठ जाती है की, अगली दफा तो जितना ही है ताकि जो राशि हारी गयी है उसे तो वापिस लिया जाए लेकिन हो पाना अपवाद ही होता है। जो इस अपराधिक कृत्य का संचालन करते हैं, वो इस बात पर ध्यान देते हैं की खिलाड़ी जेब भर कर आये लेकिन जेब खाली करके जाए, और इसके लिए कुछ भी करने को तैयार होते हैं या किसी भी हद तक जाने को तैयार होते हैं। आप जब हार रहे होते हैं तो वे कोशिश करते हैं की एक दो हाथ आप भी जीत जाएँ ताकि आपको यह एहसास न हो की आज आप बकरे की तरह कटने वाले हैं। यह बुराई, इस स्तर की होती है की लोग इसमें, अपना जमीन और जायदाद तक को गिरवी रख देते हैं। महाभारत में, पांडवों और दुर्योधन के बीच खेले गए द्वेत (एक प्रकार का जुआ) में, दुर्योधन की तरफ से शकुनि ने, पाँचों पांडवों से उनका राज, राज्य छीन लिया था लेकिन इस पर भी दुर्योधन और शकुनि के उकसाने पर, पांडवों ने खुद को भी दांव पर लगा दिया था और यही नहीं उन्होंने आगे दांव पर अपनी प्रिय पत्नी द्रौपदी को भी लगा दिया था। यह घटना, हमें पुरातन काल से ही यह सन्देश देता है की, द्वेत, जुआ, गैंबलिंग, सट्टा और कैसिनो आदि एक बुरी आदत है और इससे दूर रहना चाहिए।

इतनी लम्बी भूमिका, या यूँ कहूँ की भाषण बाजी को लिखने से मेरा मंतव्य उस सामाजिक दृष्टिकोण को आप सभी के सम्मुख रखना था, जिसे मैंने सर सुरेन्द्र मोहन पाठक जी के उपन्यास “सिंगल शॉट” पढने के दौरान पाया था। “सिंगल शॉट” की कहानी के केंद्रबिंदु में एक जुआघर है और उस जुआघर के कर्ज में डूबे एक युवक की कहानी से जुड़ी है। लेकिन ऐसा कभी नहीं होता की ऐसी घटनाएं सिर्फ एक ही इंसान से जुडी होती हैं। उस युवक से जुड़ी थी उसकी पत्नी और उसकी पत्नी से जुड़ी थी उसकी बड़ी बहन और उसकी बड़ी बहन से जुड़ा था एक कंपनी का डायरेक्टर जो किसी भी तरह से उस लड़की से विवाह करना चाहता था। इन रिश्तों की पहेली और सांप-सीढ़ी में, उस युवक की पत्नी की बड़ी बहन किसी तरह से युवक को निकालने की कोशिश करने के लिए जुआघर की मालिक से मिलना चाहती है। लेकिन जुआघर के मालिक से मिलने से पहले ही, जुआघर के मालिक की हत्या हो जाती है। वही शहर के दुसरे छोर पर, उसी जुआघर की डांसर की असफल क़त्ल कोशिश होती है जिसमे शहर के एक प्रतिष्ठित अखबार के एक पत्रकार की टांग कुछ इस तरह से फंस जाती है की वह चाहकर भी निकल नहीं पाता। अंततः वह अपनी तहकीकात और बुद्धिमता का प्रयोग करते हुए हत्या और असफल हत्या की गुत्थी को सुलझा देता है।

सन १९७५ में पहली बार प्रकाशित हुआ यह उपन्यास, सुनील सीरीज में ५७ वां उपन्यास है। सर सुरेन्द्र मोहन पाठक द्वारा लिखित कुल लिखे उपन्यासों में यह ८१ वें क्रम पर आता है। ४० वर्ष पहले लिखी गयी, गढ़ी गयी और प्रकाशित हुई इस कहानी में आज भी जीवन्तता का अनुभव होता है। यह कहानी किसी हार्डकोर और काम्प्लेक्स मर्डर मिस्ट्री जैसी नहीं लगती हैं और इसका कारण वर्तमान समय में इस कहानी को पढना है, शायद ४० वर्ष पहले ये कहानी पाठकों को एक शानदार मर्डर मिस्ट्री लगती हो। ये जो ४० वर्ष का अंतराल है, इसने पाठकों और उनकी सोच को बदलकर रख दिया है क्यूंकि अब अन्तराष्ट्रीय स्तर के उपन्यास आसानी से भारत में उपलब्ध हो गए और यही कारण है की उपन्यास को पढ़ते रहने के दौरान कई चीजें खटकती हैं। इस कहानी में, एक नाईट क्लब में, जुआघर चलते हुए दर्शाया गया है, जिस पर मैं सोचता हूँ की क्या ऐसे जुआघर ४० वर्ष पहले चला करते थे और क्या वर्तमान में किसी शहर में ऐसे जुआघर चलते हैं, चाहे वह कानूनी रूप में हों या गैरकानूनी रूप में? अगर इस बात को दरकिनार करके सोचा जाए तो कहानी वास्तविकता के धरातल पर अपनी रफ़्तार से आगे बढती है और कई घटनाओं को साथ लेते हुए अपने अंजाम पर पहुँचती है।

भले ही सर सुरेन्द्र मोहन पाठक की कहानियां काल्पनिक होती हैं लेकिन उनकी खासियत है की उनकी कहानियां सीधे पाठक वर्ग से जुड़ जाती हैं। कहानी रहस्य, सस्पेंस और थ्रिल का मिला-जुला कॉकटेल है जिसके कारण पाठक इसे एक ही बार में पढ़कर हटना चाहेगा और जब तक कहानी समाप्त न हो तब तक पुस्तक को छोड़ेगा नहीं। कहानी का बहाव घटनाओं के अनुसार तेज़ हैं वहीँ सर सुरेन्द्र मोहन पाठक की चिर-परिचित भाषा-शैली भी मौजूद हैं, जिसमे हमें हिंदी, उर्दू, पंजाबी, अंग्रेजी और खरी बोली के मिश्रण को पढने का मौका मिलता है। प्रस्तुतीकरण के मामले में कहूँगा की सर सुरेन्द्र मोहन पाठक जी के सुनील सीरीज के बहुत ही कम उपन्यासों में ऐसा होता है की ४०-५० % उपन्यास समाप्त हो जाने के बाद हत्या होती है, जैसा की इस उपन्यास में हुआ है। सर सुरेन्द्र मोहन पाठक जी के अंदाजे-बयाँ ही उनका स्टाइल ऑफ़ राइटिंग है जिसे वे अपने हर उपन्यास में प्रस्तुत करते नज़र आते हैं। वहीँ उनके सुनील सीरीज के उपन्यासों के प्रसिद्ध हास्य-परिहास संवाद, जो सुनील और रमाकांत के बीच होता है, उसे इस उपन्यास में नहीं पायेंगे। उपन्यास के किरदारों के चरित्रचित्रण और चित्रांकन में, सर सुरेन्द्र मोहन पाठक जी की विशेषता है, जो की इस उपन्यास में साफ़ नज़र आता है।

आशा है, कुछ कमियों के बावजूद आप सभी को यह उपन्यास पसंद आयेगा। जो उपन्यास सन ७५ में प्रकाशित हुआ था और जब आप उस उपन्यास को ४० वर्ष बाद वर्तमान समय में पढेंगे तो आपको उपन्यास की कहानी में कमियां नज़र आएँगी ही। अगर आप इन कमियों को दरकिनार कर उपन्यास को पढ़ते हैं तो पायेंगे की कहानी बढ़िया बन पड़ी है, जो एक ही बैठक में पठनीय है।

आप इस उपन्यास को यहाँ पढ़ सकते हैं - Single Shot 
आभार

राजीव रोशन 

Comments

  1. Badhiya dubara padhta ho.

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  2. रिव्यु अच्छा है। पात्रों के चरित्र चित्रण पर थोड़ी रोशनी डालते तो और भी बढ़िया रहता।
    आज़ाद हिंदुस्तान में जुआघर को कभी भी कानूनी तौर पर मान्यता नही रही (गोआ और कुछ जगहों को छोड़कर)। गैरकानूनी तौर पर चलता होगा।

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