64 नंबर
मैं असमंजस में
इन्द्रप्रस्थ मेट्रो स्टेशन के फुटओवर ब्रिज के नीचे खड़ा था। असमंजसता इस बात की
थी कि मैं अपने गंतव्य स्थान पर जाने के लिए ऑटो पकडूँ या कैब बुलाऊं। एक बार को
तो यह सोचा की जाकर अपने बॉस को बोलता हूँ की मुझे वहां नहीं जाना, वहां किसी और
को भेज दे। लेकिन फिर यह भी सोचा की, कोई और भी जाएगा तो उसके हालात ऐसे ही होंगे।
ऐसा नहीं है की मैं बहुत डरपोक इंसान हूँ, एक्चुअली मैं डरपोक इंसान हूँ। मैंने
कहीं पढ़ा था की इंसान के अन्दर डर नामक चीज का निवास होना जरूरी है। जिस इंसान में
डर नाम की संवेदना नहीं होती वह इंसान इंसान ही नहीं होता। खैर, मैं डर नहीं रहा
था, शर्मा रहा था, लजा रहा था। लज्जा सिर्फ स्त्रियों के पाले में ही ईश्वर ने
नहीं बख्शा है, पुरुषों के अन्दर भी लज्जा होती है बस फर्क यह है की इसका प्रदर्शन
नहीं करते हैं और न ही कभी कन्फेस करते हैं। मैं, दिल्ली शहर में नया-नया कबूतर
था, इससे पहले मैं यूनिसेफ के श्रीनगर ब्रांच में कार्यरत था। लगभग वहाँ ४ वर्ष
नौकरी करने के पश्चात, मेरे काम में अच्छे प्रदर्शन को देखते हुए, मुझे दिल्ली
ट्रान्सफर किया गया था। दिल्ली आते ही, पहले ही दिन, हाँ, आज ही के दिन, मेरे बॉस ने
मुझे दिल्ली के एक ऐसे इलाके में जाने के लिए कह दिया जहाँ जाना, इवन ऑटो वाले को
उस जगह का नाम बताना ही, मेरे लिए हिमालय चढ़ने जैसा हो गया था। लेकिन जो काम मुझे
दिया गया था वह करना ही था भले ही इस स्थान पर जाने में मुझे जिस आतंक का सामना
करना पड़ रहा था वैसा मुझे जम्मू और कश्मीर के उन गाँवों में जाने पर भी नहीं लगा
था जहाँ कुछ घंटे पहले ही आतंकवादी घटना होकर घटी हो।
मैंने फुटओवर ब्रिज के नीचे
खड़े हरे-पीले रंग के सभी ऑटो और ऑटो वालों पर नज़र डाला। उनकी नज़र भी बार-बार मेरे
ऊपर जाकर टिक रही थी। क्यूंकि दोपहर के एक बज रहे थे और शायद गर्मी के कारण दिल्ली
के बासिन्दे सडकों पर गर्म हवाओं के साथ दौड़ लगाने को राजी नहीं थे। मैंने दो-तीन
ऑटो वालों को गंतव्य स्थान का नाम बता कर चलने के लिए पूछा तो सबने न कर दिया। इसी
बीच दिल्ली की चलती-फिरती-दौड़ती सड़क पर मेरे करीब दो तीन और ऑटो आकर खड़े हो गए और
इंतज़ार करने लगे के अगर स्टैंड वाला कोई ऑटो नहीं गया तो शायद उनका नंबर आ जाए।
मैं उनमें, एक से पूछा – “भैया, जी.बी. रोड चलोगे।”
“हाँ, चलेंगे भैया, बैठिये।”
मैंने अपने कंधे पर से बैग
उतारकर, उसके ऑटो में दायीं तरफ फेंका और बैठ गया और बोला – “चलो भैया।”
ऑटो दिल्ली की छाती पर बने आईटीओ
के फ्लाईओवर को क्रॉस करती हुई आगे बढ़ने लगी। मैं बाहर, उस दिल्ली के नज़ारे को देख
रहा था जो कभी सियासत के पहला बिंदु हुआ करता था और आज भी पहला बिंदु है पर फर्क
बस यह है की अब वह बिंदु रेखा में तब्दील हो चुकी है।
“भैया, एक बात पूछें।”
“हं...क्या बोले आप...
दुबारा बोलिए...?”
“भैया, एक बात पूछें?” - वो
सामान्य से थोड़ा ऊँचे आवाज़ में बोला।
मैं भी ऑटो के सीट पर थोड़ा
आगे खिसक गया और बोला – “हाँ, बोलो।”
“कितने नंबर कोठे पर जाना
है आपको?”
“क्यूँ? तुम क्यूँ पूछ रहे
हो?”
“बस यूँ ही, जानना चाह रहे
थे।”
“६४ नंबर कोठे पर जाना है। अब
बताओ इस बात से क्या फर्क पड़ता है की मैं किस कोठे पर जा रहा हूँ।”
“ओह, ६४ नंबर पर। पता नहीं
किस बेवकूफ आदमी ने इस कोठे को फेमस कर दिया है। इससे अच्छा तो आप ४४ नंबर पर जाते,
वहां आपको बहुत अच्छा माल मिल जाता।”
“हेल्लो, भाई साहब, कहाँ
बहके जा रहे हो। मैंने तुमसे एक सवाल भी किया था – “क्या फर्क पड़ता है की मैं ६४
पर जाऊं या ४४ पर?”
“भैया, बात यह की ६४ नंबर
वाली बाई जो है न हर ग्राहक का २० रुपया देती है जबकि चंदा, जो ४४ नंबर कोठे में
रहती है, अगर उसके पास ग्राहक लेकर जाऊं तो ५० रुपया देती है। और साहब वो ६४ नंबर
वाली लड़कियों के मुकाबले कम पैसे भी लेती है।”
“मुझे क्या फर्क पड़ता है यार,
मुझे तो अपना काम करना है और ऑफिस में रिपोर्ट करना है।”
उसके चेहरे पर आश्चर्य के
भाव आ गए और वह बोला – “हैं.... आप अपने ऑफिस में बताएँगे की आप जी.बी. रोड गए थे?”
मैंने भी आँखों में कई
प्रश्न लिए उससे बोला -“हाँ, वे खुद ही तो मुझे वहां भेज रहे हैं। ये तो मेरे काम
का हिस्सा है।”
“आपका मतलब है की आप ऑफिस
के काम से जी.बी. रोड जा रहे हैं?”
“हाँ? तुम्हें क्या लगा?”
“ही..ही....ही..” - वह
खिसियानी हंसी हँसता हुआ बोला – “साहब मुझे लगा की आप भी वही काम करने जा रहे हैं
जो बाकी लोग करने जाते हैं।”
“नहीं मेरे फ़ाज़िल दोस्त,
मैं वो काम करने नहीं जा रहा हूँ। मैं वहां जाकर सभी लड़कियों से मिलूँगा और पता
करूँगा की उनके साथ वहां कैसा व्यवहार किया जा रहा है, वो कितना कमाती हैं, उनको
कितना देर काम करना पड़ता है, वो अपने बच्चों का लालन-पोषण किस प्रकार से कर रही
हैं, उनको सरकार से किस प्रकार की सुविधाएं मिल रही हैं।”
“अच्छा, मतलब आप सरकारी
आदमी हैं जो वहां की सारी रिपोर्ट सरकार को सौंपेंगे।”
“अरे नहीं, मैं यूनिसेफ के
लिए काम करता हूँ। मैं जब इन लड़कियों की रिपोर्ट यूनिसेफ को भेजूंगा तो हो सकता है
की इन लड़कियों को सुविधाएं एवं सहूलियत देने के लिए कुछ संस्थाएं आगे आयें। हो
सकता ही की ये संस्थाएं इनमें से उन लड़कियों को कुछ काम दे सकें जो कुछ पढ़ी लिखी
हों या काम करना जानती हों। इस तरह से हम इस देह व्यापार को जल्दी से जल्दी खत्म
कर सकते हैं।”
“आपको लगता है की वो पैसा
या सुविधाएं इन लड़कियों तक पहुँच पाएंगी?”
मैंने सोचते हुए जवाब दिया
– “भाई, मेरी कोशिश रहेगी की अगर सुविधाएं आयें तो उसे इन लोगों तक पहुंचा सकूँ।”
“लेकिन भाई साहब मुझे नहीं
लगता की ये लड़कियां कभी इस देह व्यापार के दलदल से बाहर निकल कर, साफ़-सुथरी
जिन्दगी जी पाएंगी।”
“इसका मतलब यह तो नहीं की
हम इनमें सुधार लाने की कोशिश छोड़ देंगे। यूनिसेफ और ऐसी कई संस्थाएं राष्ट्रीय और
अन्तराष्ट्रीय स्तर पर देह व्यापार और वैश्यावृति के समाप्ति पर जोड़ दे रही है। जरूर
कभी न कभी इसका अंत होगा।”
“भैया, हम तो दुआ करेंगे की
ऐसा ही हो।”
मैं चुप हो गया और ऑटो वाला
भी, क्यूंकि अब ऑटो चांदनी चौक के भीड़-भाड़ वाले इलाके में प्रवेश कर रही थी।
ट्रैफिक के कारण ऑटो, गुरुद्वारा शीशगंज साहिब के सामने खड़ी हो गयी। मैंने ऑटो में
बैठे-बैठे ही अपने इष्ट देव के साथ, सत श्री अकाल का नाम लिया। मैंने जैसे ही आँख
खोली तो पाया की ऑटो वाले की नज़र मुझ पर थी।
“एक बात और बोले भैया?” –
ऑटो वाला मेरी आँख खुलते ही बोल पड़ा।
“हां, बोलो।”
“आप फिर ४४ नंबर कोठे पर
जाइए। ६४ नंबर कोठे पर आपको जो लड़कियां मिलेंगी वो तो मौज में रहती हैं क्यूंकि
उनके पास ग्राहकों की कमीं नहीं रहती।”
“इससे क्या फर्क पड़ता है, काम
तो दोनों जगह एक ही होता है।”
“हाँ साहब, ये तो है लेकिन ४४
नंबर कोठे की लड़कियां, सच में नरक का जीवन जीती हैं। उनके पास तो कभी-कभी महीनों
तक कोई ग्राहक नहीं पहुँचता। आप पहुंचेंगे तो, असलियत में पायेंगे की इंसान अब
शरीर बेचकर भी दो जून की रोटी नहीं खा पाता है।”
अचानक ही भैया से साहब पर
उसे बदलते देख मैं चौंका और बोला - “बात, तुम्हारी ठीक है, लेकिन उनके पास ग्राहक क्यूँ
नहीं पहुँचते?”
“साहब, सभी ग्राहक तो जी.बी.
रोड के आरम्भ के कोठे में ही चले जाते हैं जबकि ४४ नंबर कोठा थोड़ा दूर पड़ता है। आप
चंदा से मिलेंगे तो आपको पुरे जी.बी. रोड के बारे में बताएगी। उसे जी.बी. रोड पर घटने
वाली हर घटना के बारे में पता रहता है।”
“लेकिन भाई, मुझे तो आर्डर
ही ये मिला है की ६४ नंबर कोठे पर जाऊं।”
“साहब, आपकी बड़ी मेहरबानी
होगी अगर आप चन्दा के पास जायेंगे। अगर आपकी कंपनी उसे नया जीवन दे पाएगी तो मुझे
भी बहुत अच्छा लगेगा। उसका एक 6 साल का बच्चा है जो यह प्राइमरी स्कूल में जाता है।
अगर आपकी कंपनी कुछ कर देगी तो बच्चे की जिन्दगी बदल जायेगी।”
“यार, तुम समझते क्यूँ नहीं
हो, मुझे ६४ नंबर कोठे के रिपोर्ट को ही सबमिट करना है। मैं दुसरे कोठे की रिपोर्ट
सबमिट नहीं कर सकता।”
“साहब, वहां की लड़कियां
हमेशा मजे में रहती हैं। लेकिन सही भी है, वहां आपको पीने के लिए कोल्ड ड्रिंक,
बैठने के लिए सोफे, और एसी लगा हुआ कमरा भी तो मिलेगा। लीजिये साहब आ गया दिल्ली
का फेमस ६४ नंबर कोठा।”
“यार तुम गलत समझ रहे हो।” –
मैंने जेब से पर्स निकाला और मीटर में रीडिंग देखकर उसे पैसे दे दिए और उतर गया –
“मेरी मजबूरी है की मुझे इसी कोठे के रिपोर्ट को आगे भेजना है।”
“ठीक है साहब, चलता हूँ,
अच्छा लगा आपसे बात करके।”
मैं ६४ नंबर कोठे के प्रवेश
द्वार की ओर चल पड़ा लेकिन फिर मुड़ा और ऑटो वाले से पूछा - “एक बात बताओ, यहाँ इतने
कोठे हैं.. तुमने सिर्फ चंदा के कोठे का नाम क्यूँ लिया...सिर्फ इसलिए तो नहीं
लिया है की वह तुम्हें ५० रूपये देती है।”
ऑटो वाले ने नज़रें झुका ली
– “साहब, मैं उससे प्यार करता हूँ।”- इतना कहते ही, उसने ऑटो स्टार्ट किया और ये
जा ओ जा।
मैं स्तब्ध सा, जड़ सा, दिल्ली
के फेमस ६४ नंबर कोठे के सामने खड़ा था और फिर से असमंजस में था।
राजीव रोशन
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ReplyDeleteसुन्दर।
ReplyDeleteबहुत सुंदर और मजेदार।
ReplyDeleteथोड़ी सी चुस्त हो सकती थी, भाषा में भी थोड़ी सी और आधुनिक टचअप की गुंजायश लगती है।
और लिखो।
शानदार ,
ReplyDelete9354997697
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