दिल एक सादा कागज (डॉ. राही मासूम रज़ा)
डॉ. राही मासूम रज़ा
के उपन्यासों एवं कहानियों का मैं तब से प्रशंसक हूँ जब से मैंने उनके द्वारा
लिखित उपन्यास "टोपी शुक्ला" (समीक्षा) पढ़ा था। तब से मेरी यही कोशिश रहती है की उनके द्वारा
लिखे सभी उपन्यास एवं कहानियों को जरूर से जरूर पढूं। ऐसी ही कोशिश में, हाल ही
में “दिल एक सादा कागज़” को पढने का मौका मिला। जैसा की डॉ. राही मासूम रज़ा की
चिर-परिचित शैली है, बात को खुल कर कहने की, ऐसी ही शैली इस उपन्यास में भी देखने
और पढने को मिली।
“दिल एक सादा कागज़”
एक ऐसी कहानी है जिसमे हम एक इंसान का बचपन, जवानी और उसके जीवन के संघर्ष को
आसानी से देख सकते हैं। कहानी ‘रफ्फन’ नामक किरदार से शुरू होती है जो जैदी विला
में अपना बचपन गुजार रहा है। रफ्फ्न के जरिये हम जैदी विला में रह रहे कई ऐसे
किरदारों से मिलते हैं जिनके साथ रफ्फ्न का बचपन गुजरा। यूँ तो ज़ैदी विला में एक
से एक किरदार हैं लेकिन रफ्फ्न के मन में ‘जन्नत बाजी’ के लिए जो है वह किसी दुसरे
के लिए नहीं। वह ८ वर्ष का था और तभी से वह ‘जन्नत बाजी’ से निकाह करना चाहता था। ज़ैदी
विला में समाज का वह आइना आपको आसानी से देखने को मिलेगा, जिसको देखने के बाद आप
अपनी आँखें शर्म से झुका लेंगे। ‘रफ्फ्न’ के बचपन की कई घटनाएं हमारे समाज की उन
कलईयों को खोल देता है जिसे हम कभी देख नहीं पाते।
अब आते हैं उस दौर
में जब ‘रफ्फ्न’ ‘रफअत ज़ैदी” परिवर्तित हो जाता है। अलीगढ विश्वविद्यालय से यह वह
दौर है जब रफअत जैदी एक शायर के रूप में उभर रहे थे और उन्हें लोग बागी आज़मी के
नाम से जानते थे। अलीगढ में ही बागी आज़मी उर्फ़ रफअत जैदी उर्फ़ रफ्फ्न को अपनी
जन्नत मिली पत्नी के रूप में। उसे जन्नत बाजी नहीं मिली बल्कि जन्नत मिली। रफ्फ्न
के अनुसार जन्नत कभी जन्नत बाजी नहीं बन पाई। जन्नत के अपने ख्वाब थे लेकिन जब वह बागी
आज़मी के आसियाने में घुसी तो सभी ख्वाब चकनाचूर हो गए। ऐसे में घर में तू-तू-मैं-मैं
होना लाज़मी है। शादी से पहले भले ही लड़की की कोई इच्छा, महत्वाकांक्षा, चाहत न रही
हो, भले ही वो शादी से पहले लाखों बार कह चुकी हो ‘जैसे आप रखोगे वैसे ही रह लुंगी’,
लेकिन शादी के बाद वह विरोध करती है, आन्दोलन करती है की उसे वह सभी हक, अधिकार और
सुविधाएं दी जाए जिसके बारे में उसने कभी सोचा था।
खैर, रफ्फ्न इन्हीं कुछ
महत्वाकांक्षाओं के हवाले होता हुआ ‘नारायणगंज’ पहुँचता है जहाँ उसकी नौकरी एक
स्कूल मास्टर, उर्दू के मास्टर, के रूप लगती है। लेकिन पश्चिमीकरण जल्दी ही
नारायणगंज में अपनी सेंध लगा देता है और हम वह सब रफ्फ्न के नज़रिए से देखते हैं
जिन्हें आज हम अपने वर्तमान में देखते हैं। राजनीती, घटिया राजनीती, बदनाम
राजनीती, कला के नाम पर बाजारीकरण, भ्रष्टाचार, नारी उत्थान के नाम पर नारी शोषण,
मजदूरों के उत्थान के नाम पर शोषण आदि आपको नारायणगंज में देखने को आसानी से मिल
जाता है।
खैर, नारायणगंज में
घुटते दम को राहत की सांस तब मिलती है जब उसे मुंबई में होने वाले एक मुशायरे के
लिए बुलाया जाता है। जैसा कहा जाता है, एक बार जो मुंबई चला गया कभी वापिस नहीं
आया। ऐसा ही रफ्फ्न के साथ हुआ, वह मुंबई मुशायरे के लिए गया लेकिन वहां से कभी
वापिसी नहीं कर पाया। मुंबई में, रफ्फ्न हमें उस चकाचौंध कर देने वाली मायानगरी के
दर्शन कराता है जिसको हम रोजाना देखते ही हैं या खबरों में अब सुनते ही हैं। लेकिन
यह कहानी उस वक़्त की है जब मीडिया का नामोनिशान नहीं था। हम पाते हैं की कैसे
इंसान इतना नीचे गिर जाता है की किसी से वह नज़रें मिलाने की हिम्मत नहीं कर सकता। हम
पाते हैं की इंसान के गर्त में जाने का समय तभी शुरू हो जाता है जब वह अपने ज़मीर
से सौदा कर लेता है। यह रफ्फ्न के संघर्षशील जीवन की कहानी है लेकिन यह यही खत्म
नहीं होती है। क्यूंकि इंसान तब तक संघर्ष करता रहता है जब तक की उसके जिस्म में
आखिरी सांस बाकी है।
दो सौ से अधिक
पन्नों में सिमटा यह उपन्यास आपको हमारे समाज पर तमाचा मारता हुआ नज़र आएगा। डॉ.
राही मासूम रज़ा की भाषाशैली की अगर बात करें तो खड़ी बोली और हिंदी के साथ उर्दू का
तड़का है। उर्दू उतनी भी कलिष्ट नहीं की पाठक समझ न पायें। कई घटनाएं ऐसी ही हैं जिनको
आप अपने वास्तविक संसार के करीब ही पाते हैं। आशा है, इस बेहतरीन कृति को पढ़ कर आपको
भी सुकून मिलेगा।
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आभार
राजीव रोशन
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