द कलर्स ऑफ़ मर्डर
भाग-1
पाठक साहब के द्वारा
लिखे गए लगभग सभी उपन्यास क्राइम-फिक्शन श्रेणी के अन्दर आते हैं। चूंकि वो
क्राइम-फिक्शन लिखते हैं तो उसमे क्राइम होना तो आम बात है। जब क्राइम हो कहानी
में तो खून के धब्बे और उसकी धार दिखना भी साधारण सी बात है। कई बार ऐसा होता है
कि मौकायेवारदात पर कुछ खून के धब्बे नज़र आते हैं जो लाश से अलग होते हैं। ऐसे में
उस खून के धब्बे की जांच पुलिस जैसी इन्वेस्टीगेशन एजेंसी के लिए बहुत मुश्किल काम
बन जाती है। मौकायेवारदात से उठाये गए सभी प्रकार के सूत्रों को फॉरेंसिक टीम अपने
लैब में लेकर जाती है जहाँ उस पर से फिंगर-प्रिंट और दुसरे सूत्रों की तालाश की
जाती है।
अगर ऐसे किसी
मौकायेवारदात पर कोई लाल धब्बा नज़र आये तो क्या उसे खून ही मान लेना चाहिए। गौर
करने वाली बात यह है “धोखा” उपन्यास में जब रोहित पहली बार लाश देखता है तो उसे
खून की धार साफ़ नज़र आती है लेकिन बाद में लाश और उसके इर्द-गिर्द फैला खून भी गायब
हो जाता है। जब विवेक अगाशे इन्वेस्टीगेशन करने के लिए आता है तो उसे भी वहां कुछ
नहीं मिलता। लेकिन सोचिये अगर विवेक अगाशे को वहाँ कोई लाल धब्बा नज़र आता है तो
कैसे यह पता चले की वह खून का ही धब्बा है, न कि कोई केमिकल या फिर विवेक अगाशे
नीचे दिए गए टेस्ट्स में से कोई टेस्ट कर लेता तो शायद पता चल जाता की वहां खून था
की नहीं।
आइये हम देखते हैं
की अगर मौकायेवारदात से ऐसा कोई धब्बा मिलता है तो कैसे फॉरेंसिक साइंस के द्वारा
पता लगाया जाए की वह एक खून का धब्बा है। इसके लिए चार टेस्ट के प्रकार हैं:-
1) Preliminary Color Tests – इस टेस्ट के दौरान धब्बे के साथ Benzidine और
hydrogen Paraoxide का रिएक्शन कराया जाता है। अगर रिएक्शन के पश्चात नीला या हरा रंग
प्राप्त होता है तो इसका अर्थ है की धब्बा खून का है। आपने कई सीरियल में देखा
होगा की फॉरेंसिक टीम एक ख़ास प्रकार का पाउडर (यह पाउडर benzidine और hydrogen
Paraoxide का मिश्रण होता है) उस स्थान पर छिड़कती है जहाँ खून के धब्बे होने की
आशंका होती है, अगर उस स्थान पर रंग नीला हो जाता है तो मतलब वह खून के धब्बे हैं।
अमूमन ऐसा अलायकत्ल गर चाक़ू या धारदार चीज़ हो तो उस पर किया जाता है।
सन १९०४
में, ओस्कर और रुडोल्फ एडलर ने इस टेस्ट की खोज की थी। वैसे मैं अभी तक पता नहीं
लगा पाया हूँ ऐसा करने की उन्हें जरूरत क्यूँ पड़ी थी। इस टेस्ट की सबसे बड़ी समस्या
यह है की Benzidine केमिकल का प्रयोग करने से कैंसर होने की आशंका होती है इसलिए
इस टेस्ट् का इस्तेमाल लगभग बंद हो चूका है। कमाल की बात यह है कि इस टेस्ट का
इस्तेमाल सबसे ज्यादा FBI ने किया और कई मुजरिमों को गिरफ्तार करवाया। कई दशकों तक
इस तकनीक ने फॉरेंसिक साइंस और मर्डर इन्वेस्टीगेशन में अपनी साख कायम रखी लेकिन इसकी
खामी ने जिसके अनुसार इसके इस्तेमाल से कैंसर हो सकता तो इस तकनीक को बंद करना पड़ा।
अगर इन्टरनेट से उपलब्ध जानकारियों पर चले तो सन १९२३ के बाद से ही अमेरिका में इस
टेस्ट का प्रयोग शुरू हो गया था। कहा जाता है जब पुलिस लैब में काम करने वाले एक
कर्मचारी को जो इस टेस्ट को करता था, पता चला की उसे कैंसर है तो उसने केमिकल
बनाने वाली कंपनी पर केस कर दिया। बाद में पुरे अमेरिका में इस Benzidine को बैन
कर दिया गया। लेकिन इस केमिकल का प्रयोग फॉरेंसिक में साइंस में बहुत सफल रहा
इसलिए फॉरेंसिक साइंस इन्वेस्टिगेटर को बड़ी निराशा हाथ लगी थी।
2) Kastle-Meyer Color Test – इसे Phenolphthalein टेस्ट भी कहते हैं। इस
टेस्ट में Phenolphthalein और hydrogen Paraoxide के मिश्रण को उन संभावित स्थानों
पर प्रयोग किया जाता है जहाँ खून के धब्बे होने की सम्भावना है। अगर रिएक्शन के
पश्चात गुलाबी रंग दिखाई देता है तो इसका अर्थ है की वहाँ खून के धब्बे मजूद हैं
या मौजूद धब्बा खून हो सकता है। इस टेस्ट की सबसे बड़ी खामी यह थी की हर उस पदार्थ
के साथ रिएक्शन करके गुलाबी रंग देता है जिसमे हेमोग्लोबीन मौजूद हो। साथ ही यह
मौकायेवारदात पर मौजूद दुसरे साक्ष्यों को भी नष्ट करता है। अगर इस टेस्ट को पहले
किया जाए और खून के धब्बे पाए जाए तो वह धब्बा आगे कई प्रकार के टेस्ट के लिए
अनुपयोगी साबित होता है। इसलिए इस टेस्ट को अंतिम में किया जाता है।
अगर आप सभी
ने सर सुरेन्द्र मोहन पाठक जी का “आज़ाद पंछी” उपन्यास पढ़ा हो तो आप पायेंगे की
उसमे फॉरेंसिक डॉक्टर मौकायेवारदात पर मिले एक रुमाल पर यही टेस्ट करता है ताकि
जाना जा सके उस रुमाल को इस्तेमाल करने वाले व्यक्ति का ब्लड ग्रुप क्या है। रुमाल
पर खून के कोई धब्बे नहीं मिले थे लेकिन रुमाल में पसीने के कणों में मौजूद
हेमोग्लोबीन के जरिये उन्होंने स्थापित किया था की इस रुमाल को किस ब्लड ग्रुप
वाले व्यक्ति ने इस्तेमाल किया था। हालांकि ब्लड ग्रुप पता करना इस टेस्ट के बाद
का अगला स्तर है जिसमे किन्ही दुसरे टेस्ट के द्वारा ब्लड ग्रुप का निर्धारण किया
जाता है।
इस
टेस्ट के उद्गम का एक शानदार इतिहास रहा है। सन १८१८ में, Louis
Jacques Thénard नाम के
वैज्ञानिक ने यह पाया की खून के द्वारा hydrogen paraoxide decompose हो जाता है।
इसी थ्योरी का प्रयोग करते हुए सन १८६३ में, Christian Friedrich
Schönbein नाम के
वैज्ञानिक ने पाया की किसी इस रिएक्शन में ऑक्सीजन के बुलबुले उठते हैं। सन १९०१
में Joseph
Hoeing Kastle नामक केमिस्ट
ने पाया की Phenolphthalein को
जब हेमोग्लोबीन के साथ रिएक्शन कराया जाता है तो वह एक रंग प्रदान करता है। सन १९०३
में, Erich
Meyer ने इसी बिंदु पर
काम करते हुए इस टेस्ट को एक नयी दिशा दी। जिसके बाद से इस टेस्ट को Kastle-Meyer Color Test का नाम दिया गया।
3) Luminol test – सन १९३७ में Walter Specht ने इस टेस्ट का सबसे
पहले प्रयोग किया था। दुसरे टेस्ट्स की तुलना में इस इस विधि ने फॉरेंसिक साइंस को
बहुत फायदा पहुँचाया। ऐसा इसलिए था क्यूंकि यह टेस्ट अपने आप में अलग था। अमूमन
ऐसे स्थानों पर इस विधि का प्रयोग किया जाता है जहाँ नग्न आँखों से खून के धब्बे
नज़र नहीं आते लेकिन इन्वेस्टिगेटर के मन में संदेह होता है कि वहां धब्बे मिलने की
सम्भावना है। याद कीजिये सर सुरेन्द्र मोहन पाठक जी का प्रसिद्द नावेल “खाली मकान”
जिसमे इंस्पेक्टर प्रभुदयाल जब उस रहस्यमयी घर में पहुँचता है तो उसे संदेह होता
है की शायद हत्या उसी स्थान पर की गयी थी। लेकिन खून का एक भी धब्बा नज़र नहीं आ
रहा था। ऐसी ही परिस्थितिओं में लुमिनोल टेस्ट का प्रयोग किया जाता है।
Luminol
एक रासायनिक पदार्थ है जिसक रिएक्शन जब खून के साथ होता है तो वह प्रकाशित हो जाता
है और सफ़ेद और नीला रंग नज़र आता है। इस रासायनिक पदार्थ का अविष्कार Schmitz नामक वज्ञानिक
ने किया था जिसके कंपाउंड को 3 aminophthalhydrazide कहा गया। बाद में इस कंपाउंड
का नामकरण “लुमिनोल” किया गया। लुमिनोल की खासियत यह है कि इसे स्प्रे के द्वारा
अधिक से अधिक जगहों पर आसानी और जल्दी से टेस्ट किया जा सकता है। साथ ही साथ इस
केमिकल के प्रयोग से मौकायेवारदात पर या खून की प्रकृति पर कोई असर नहीं पड़ता है।
फॉरेंसिक साइंटिस्ट और डॉक्टर्स इस विधि का इस्तेमाल बहुत ज्यादा करते हैं और
कोर्ट में इस टेस्ट के परिणाम को स्वीकार किया जाता है। इसमें एक खासियत यह भी है
कि खून पर बने पैटर्न को भी आसानी से दिखा सकता है। सबसे बड़ी बात यह है कि इस विधि
के प्रयोग के बाद जन्मे परिस्थिति को आसानी से कैमरे में अब कैद भी कर लिया जाता
है। इसकी कई खामियां भी हैं, जैसे कि – लुमिनोल सिर्फ खून के साथ क्रिया करके ही
ऐसा परिणाम नहीं देता। वह कई दुसरे केमिकल के साथ क्रिया करके भी ऐसा परिणाम दे
सकता है। ब्लीचिंग पाउडर के साथ इनकी क्रिया कुछ ऐसा ही अपवाद है। लुमिनोल टेस्ट
को अँधेरे में क्रियान्वित किया जा सकता है।
4) Leuco – Malachite Green ( LMG) Test– यह एक केमिकल कंपाउंड है जिसका इस्तेमाल
मौकायेवारदात पर संभावित खून के धब्बे के जांच के लिए किया जाता है। एक रुई पर LMG
के कुछ बूंदों को गिराया जाता है फिर उस रुई को संभावित धब्बे पर हलके हाथों से
रगड़ा जाता है। LMG की क्रिया जब संभावित धब्बे से होती है और वह अगर हरा रंग
प्रदर्षित करे तो यह प्रमाणित होता है कि धब्बा खून का है। कुछ परिस्थितियों में
यह केमिकल खून के धब्बे को डीएनए टेस्ट्स के लायक भी नहीं छोड़ती। इस कंपाउंड की
खोज रुडोल्फ Adlers द्वारा की गयी थी जिन्होंने benzidine टेस्ट की खोज की थी।
5) Orthotolidine Test – यह केमिकल कंपाउंड Benzidine से ही बनाया गया
है इसलिए इसका इस्तेमाल बहुत सावधानी के साथ किया जाता है क्यूंकि यह भी कैंसर के
लिए कारण हो सकता है। जब इस केमिकल कंपाउंड का प्रयोग किया जाता है तब हाथों में
ग्लव्स जरूर पहना होना चाहिए और इस केमिकल को कभी स्प्रे भी नहीं करना चाहिए। ऐसा
संभावित धब्बा जो खून का हो सकता हो उस पर स्टर्लाइज्ड रुई से रगड़ा जाता है फिर
रुई पर 2-3 बूँद Orthotolidine के डाले जाते हैं लेकिन इससे रंग बदलता नज़र नहीं
आता। जैसे इस रुई पर hydrogen paraoxide का एक बूँद डाला जाता है वैसे ही १५ सेकंड
बाद रुई का रंग नीला हो जाता है। नीला रंग यह स्थापित करता है कि जो संभावित धब्बा
था वह खून का था। चूँकि यह कंपाउंड कैंसर का कारण बन रहा था इसलिए इस कंपाउंड के
स्थान पर १९९२ से TMB (Tetramethylbenzidine) का इस्तेमाल होने लगा।
6) Tetramethylbenzidine (TMB) Test – Benzidine को जब १९७४ में कई संस्थाओं
ने प्रयोग के लिए प्रतिबंधित कर दिया तो कई फॉरेंसिक संस्थाएं और लैब सिर्फ
Phinophthalein पर निर्भर रहने लगी। १९७४ में किये गए एक सर्वे के अनुसार २१५
फॉरेंसिक लेबोरेटरी में से ५१% लेबोरेटरी Benzidine का प्रयोग करते थे। बाकी दूसरी
लेबोरटरी दुसरे टेस्ट पर निर्भर थे। ऐसे में Holland et al नामक
रसायन शास्त्री ने TMB की खोज की और कहा कि इसका इस्तेमाल खून के धब्बों की खोज
में की जा सकती है। रिसर्च से यह भी पता चला की, हालांकि यह कंपाउंड Benzidine से
निकाला गया था लेकिन कैंसर होने का खतरा इसमें नहीं था। TMB को असिटिक एसिड के घोल
में जब मिलाया जाता है तो उसका रंग हरा होता है लेकिन जब उसको संभावित धब्बों पर
प्रयोग किया जाता है तो वह नीला-हरा रंग देता है। आज तक इस कंपाउंड का इस्तेमाल
किया जा रहा है। जबकि मार्किट में और भी कई कंपाउंड आ चुके हैं जो सहजता और सुलभता
से टेस्ट को क्रियान्वित किया जाता है।
7) Hemastix test – Hemastix एक 3 इंच की प्लास्टिक स्ट्रिप है
जिसके टिप पर TMB, diisopropylbenzene dihydroperoxide और कुछ केमिकल कंपाउंड के मिश्रण का फ़िल्टर पेपर
होता है जिसका मूल रंग पीला होता है। इस टिप को संभावित धब्बे के ऊपर रगड़ा जाता है।
अगर रगड़ने के पश्चात अगर पीला रंग हरे रंग या नीला-हरा में तब्दील होता है तो वह
खून के उपस्थति को दर्ज करता है। जिस बॉक्स में Hemastix की स्ट्रिप आती है उस
डिब्बी पर एक कलर चार्ट होता है जो हेमोग्लोबीन के स्तर के निर्धारण में भी काम
आता है। यह जरूरी है कि पुरे धब्बे पर इस प्रकिया को न किया जाए नहीं तो धब्बे के
इस निर्धारण के पश्चात की यह खून का धब्बा है उसे DNA के लिए प्रयोग में लाना
मुश्किल होगा।
8)
Hemident Test – Hemident एक
फील्ड में प्रयोग की जाने वाली टेस्ट किट है जिसका इस्तेमाल अधिकतर क्राइम सीन पर
इन्वेस्टिगेटर द्वारा किया जाता है। Hemident एक पाउच के प्रकार होता है जिसमे तीन
प्लास्टिक के टयूब होते हैं जिसमे से एक
खाली होता है और दो में केमिकल कंपाउंड। संभावित धब्बे को बीच वाले टयूब में डाल दिया
जाता है और एक-एक करके केमिकल कंपाउंड वाले टयूब को तोड़ दिया जाता है। अगर क्रिया
के पश्चात पाउच में नीला-हरा रंग उभर कर आता है तो इसका मतलब है कि वह खून है।
लेकिन इससे यह साबित हो नहीं सकता की वह इंसान का खून है या जानवर का है।
9)
ब्लूस्टार फॉरेंसिक किट – यह किट खून के धब्बों
का पता लगाने का एक आधुनिक तरीका हमारे सामने रखती है। जब खून के धब्बों के साथ
ब्लूस्टार की क्रिया होती है तो वह चमकीला नीला-सफ़ेद रंग छोड़ता है। गौर करने वाली
बात यह है कि कभी-कभी मौकायेवारदात पर मौजूद कई वस्तुओं के साथ रिएक्शन करके यह
गलत रिपोर्ट भी देता है। ब्लूस्टार आपकी सुविधानुसार अलग-अलग प्रकार के समान भी
अपनी किट में मुहैया कराती है। ब्लूस्टार अलग-अलग प्रकार के किट बनाती है। पानी के
घोल में ब्लूस्टार की टेबलेट को डालिए और गोल गोल घुमाइए जब तक की टेबलेट घुल न
जाए। फिर उसे उस संभावित स्थान पर स्प्रे कीजिये जहाँ खून के धब्बे मिलने की शंका
है। अगर स्प्रे करने के पश्चात वहां नीला-सफ़ेद चमकदार परत उभर कर आती है तो इसका
मतलब यह है कि वहां खून के धब्बे हैं।
दोस्तों अंतिम के तीन टेस्ट किट आपको बड़े मेडिकल स्टोर या फॉरेंसिक
सामानों की सप्लाई करने वाली दुकानों पर मिल सकती हैं। वैसे ये दुकानें विदेशों
में तो होती हैं लेकिन भारत में होती है की इसकी कोई जानकारी नहीं।
वैसे, मैं आपको बताना चाहूँगा की शरीर से निकलने वाले द्रव की जांच,
परिक्षण और उसका विश्लेषण करने की विधा को सीरोलॉजी (Serology) कहा जाता है। जो
विधा पर काम करते हैं उन्हें सेरोलोजिस्ट (Serologist) या फॉरेंसिक सेरोलोजिस्ट
कहा जाता है। एक फॉरेंसिक सेरोलोजिस्ट शरीर से निकलने वाले अलग-अलग प्रकार के
द्रवों जैसे कि – थूक, वीर्य, पेशाब, खून और पसीने का विश्लेषण करता है। विश्व में
सन १९५० से १९८० के दशक तक फॉरेंसिक सीरोलॉजी हर फॉरेंसिक लैब का महत्वपूर्ण
हिस्सा था। जब डीएनए तकनीक का आविष्कार हुआ तो समय और पैसा को ज्यादा से ज्यादा
डीएनए लैब के विकास पर खर्च किया गया। जबकि अभी भी कई लैब ऐसे हैं जो अपनी
परम्परागत तकनीकों का ही इस्तेमाल कर रहे हैं क्यूंकि डीएनए टेस्टिंग में अधिक
वक़्त दरकार होती है। वो अब भी अपनी आधारभूत तकनीको पर ही निर्भर करते हैं क्यूंकि
डीएनए लैब को स्थापित करने में पैसा बहुत लगता है।
जब भी कोई इन्वेस्टिगेटर, फॉरेंसिक डॉक्टर या सेरोलोजिस्ट मौकायेवारदात
पर किसी धब्बे को देखता है या संभावित धब्बे वाले स्थान को देखता है तो वह ४ लेवल
का इन्वेस्टीगेशन शुरू करता है।
1)
क्या धब्बा खून का
है या संभावित स्थान पर खून का धब्बा ही है?
2)
अगर वह खून का धब्बा
है तो क्या वह इंसान का ही है?
3)
अगर वह इन्सान का है
तो खून किस प्रकार का है?
4)
वह खून का धब्बा आया
कहाँ से? अर्थात – किस उंचाई से खून गिरा, उसका कोण क्या था, धब्बे का आकार और
मात्रा क्या है, किस स्पीड से खून गिरा, धब्बे का पैटर्न क्या है?
ये सभी बिन्दुओं की स्टडी और जांच फॉरेंसिक डॉक्टर को बहुत मदद करती
है। इस भाग में मैंने पहले लेवल के बारे में चर्चा किया है। “द कलर्स ऑफ़ मर्डर” के
अगले भाग में, मैं आप सभी से सीरोलॉजी में “खून” के ऊपर दुसरे लेवल पर लेख के साथ
मिलूँगा।
तब तक लिए मुझे इज़ाज़त दीजिये और इस लेख पर अपने बहुमूल्य विचार जरूर
प्रस्तुत कीजिये।
नोट- उपरोक्त लेख पूर्णतया इन्टरनेट पर उपलब्ध कई जानकारियों को
इकठ्ठा करके बनाया गया है। हालांकि लेख में बताये गए बिन्दुओं पर सत्यता में तो
कोई शक नहीं लेकिन अगर कुछ जानकारी मैंने गलत पेश कर दी हो तो मुझे जरूर बताएं
ताकि मैं उसमे सुधार कर सकूँ। उपरोक्त लेख को तैयार करने के लिए मैंने इन्टरनेट पर
उपलब्ध कई जर्नल, रिसर्च वर्क, किताबें, ब्लॉग और वेबसाइट का इस्तेमाल किया है। लेख
में कुछ रासायानिक पदार्थों के नाम बहुत जटिल हैं इसके लिए माफ़ी चाहूँगा लेकिन यह
जरूरी है की रासायनिक नामों को उसी नाम से पुकारा जाए।
आभार
राजीव रोशन
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