A Diary of SMPian - 1
अप्रैल-मई, सन २००३ –
दसवीं की परीक्षा बस ख़त्म हो कर हटी थी। उन दिनों गर हवा की रफ़्तार
तेज़ भी हो उठती थी तो विज्ञान के पुस्तक में पढ़े कुछ फोर्मुले और थ्योरम अचानक ही
याद आते थे। कभी-कभी रात में सपने में भी त्रिकोणमिती दस्तक दे जाती थी। दिन बहुत
मुश्किल से ही कटता था और ऊपर से लू का कहर जिसके कारण दिन भर घर में पड़ा रहता था।
ऐसे में एक दिन देखा, घर के करीब ही एक दूकान के सेल्फ में कई किताबें
लगी हैं। मैं जानता था कि वे उपन्यास थे (कैसे जानता था उसकी बात आगे) लेकिन जेब में उतने
पैसे नहीं होते थे की मैं वहां जाकर उसे खरीद सकता या किराए पर ले सकता। कुछ दिनों
की मेहनत के बाद कुछ पैसे इकट्ठे हुए और मैं उस दूकान पर पहुँच गया। उस छोटी सी
दूकान में 2 सेल्फ थे जिनमे उपन्यास ही उपन्यास करीने से लगे हुए थे। उस दूकान पर
मुख्यतः रेलवे रिजर्वेशन, मोबाइल रिचार्ज, मोबाइल के छोटे-मोटे सामान और कंप्यूटर
के कुछ समान मिला करते थे। मैं दूकान पर गया और पूछा की नावेल बेचने के लिए थे या
किराए पर देने के लिए। उसने कहा की किराए पर मिल सकते हैं पर नावेल का पूरा दाम
चुकाना पड़ेगा। मैंने कहा ठीक है और नावेल छाटने लग गया।
हिंदी पल्प फिक्शन दुनिया में उपन्यासों के नाम इतने शानदार होते थे
की हिंदी फिल्म्स के टाइटल शरमा जाएँ। वहां मौजूद दोनों शेल्फ में ऐसे ही भड़कीले
और आकर्षित करने वाले नामों वाले उपन्यास भरे हुए थे। अब मुझे तो ऐसी किताब लेनी
थी जिसको पढने में 3-४ दिन लग जाएँ और मेरी छुट्टियों के गिनती वाले दिन जल्दी से
जल्दी खत्म हों। ऐसे में मैंने वहां मौजूद सबसे मोटी किताब उठा ली, मूल्य था ४०
रुपया और नाम था “करमजले”।
हाँ, दोस्तों यही वो उपन्यास था, पाठक साहब का पहला उपन्यास जिसे
मैंने पढ़ा था। इस उपन्यास को कैसे पढ़ा था वो भी एक मजेदार वाकया था। दोस्तों, उस
दिन, मैं उपन्यास को आधे से कम ही पढ़ पाया। अगले दिन ११ बजे तक कुछ पन्ने और पढ़
डाले और सीन चल रहा था सिडनी फ़ॉस्टर के किडनैपिंग का। इतने में मेरे घर पर कई सारे
शैतान आ गए। वो भी किसलिए, क्रिकेट खेलने के लिए। भाई, मुझे उस वक़्त या इस वक़्त या
यूँ कहूँ कि किसी वक़्त क्रिकेट ठीक से खेलना ही नहीं आता था। मैं टीम का वह १४ वां
खिलाड़ी था जो मैच में पैसा लगाया करता था इसलिए भी मेरे दोस्त मुझे ले जाते थे। उस
दिन भी उनकी ऐसी ही मंशा थी।
उपन्यास को छोड़ने का मन नहीं कर रहा था इसलिए उसे भी लेता चला गया। मैंने सोचा मुझे तो ये लोग खेलने के लिए कहेंगे, तब तक मैं बैठे-बैठे उपन्यास को पढ़ लूँगा। लेकिन हुआ उल्टा, कमबख्तों ने खेलने के लिए कहा और चूँकि मेरे पैसे लगे थे इसलिए खेलना तो बनता था। पहली पारी में हमने बोलिंग की और टारगेट अचीव करने के लिए बल्ला लेकर बारी-बारी से मैदान पर उतरते रहे। मैंने उपन्यास खोलकर पढना शुरू किया क्यूंकि सिडनी फ़ॉस्टर को किडनैप करने वाला सीन चल रहा था। मेरी टीम में मेरे ऐसे हालात थे की मुझे हमेशा सबसे आखिर में जाना होता था लेकिन आज उन्होंने जैसे कुछ अलग करना था तो मुझे दुसरे नंबर पर भेज दिया। अब आप लोग ही बताइये की जब थ्रिल का इतना शानदार सीन चल रहा हो और इंसान बल्ला लेकर क्रीज़ पर गेंद खेलने आये तो क्या होगा। क्या होगा, वही हुआ, पहली ही गेंद में आउट और थ्रिल और सस्पेंस का ये आलम देखिये की सामने से आ रहे दुसरे बल्लेबाज को बल्ला सौपने से पहले ही क्रीज़ पर बल्ला रखा और दौड़कर नावेल को पकड़कर पढना शुरू किया और उसके बाद तो पढता गया- पढता गया। उस दिन शाम पांच बजे तक मैच खेला गया जिसमे से पहले मैच में ही मेरी सिरकत रही, बांकी के मैच में मैंने पैसे जरूर लगाए पर एक बॉल नहीं फेंकी, एक गेंद नहीं खेली और एक सेकंड के लिए फील्डिंग नहीं की, यहाँ तक की अम्पायर भी नहीं बना। अंततः शाम चार बजे के करीब मैंने उस नावेल को खत्म किया।
कैसा रहा “करमजले” को पढने का अनुभव उसे “एक पंखे की डायरी” के अगले
भाग में साझा करूँगा।
आभार
राजीव रोशन
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