Skip to main content

प्राइम सस्पेक्ट (समीक्षा)



प्राइम सस्पेक्ट  - श्री सुरेन्द्र मोहन पाठक



समय का मूल्य
--------------------------------------

मैं "Delhi Institute of Criminology and Forensic Science " के auditoriam के बाहर खड़ा था। सामने बोर्ड पर कार्यक्रम की सूची लगी थी। सूची के अनुसार शाम ७ बजे से कार्यक्रम का शुभारम्भ होने वाला था। फिर ब्लास्ट के प्रख्यात क्राइम पत्रकार "सुनील चक्रवर्ती" द्वारा विद्यार्थियों को भाषण दिया जाना था। ऐसा पहली बार हुआ था की "सुनील चक्रवर्ती" कही किसी समारोह में भाषण दिया जाना था। मैं भी "सुनील" को सुनने आया था। मैंने अपना निमंत्रण पत्र दिखाया और अन्दर प्रविष्ट हुआ। अन्दर बहुत भीड़ थी, सभी अपने स्थान पर बैठे थे। मैंने मंच के ऊपर स्थित व्यक्तियों पर निगाह डाली तो मैं सुनील को पहचान भी ना पाया। मैंने कभी सुनील को देखा नहीं था लेकिन मैं उसके पत्रकारिता का दीवाना था। मैंने देखा की माइक पकड़ कर कोई सजीला नौज़वान खड़ा है और पीछे बैठे एक सज्जन से मुखातिब है। अब उसने दर्शको की तरफ देखा और बोलना शुरू किया। 

" मैं आप सभी विद्यार्थियों, अध्यापको-अध्यापिकाओं और भाई-बहनों का "Delhi Institute of Criminology and Forensic Science " के वार्षिक महोत्सव में स्वागत करता हूँ। वैसे तो मैं बहुत बोलता हूँ लेकिन यह समय ८ बजे मेरे ज्यादा बोलने का नहीं है। मेरे ख्याल से कुछ लोग मेरी बातों को समझ गए होंगे और कुछ नहीं समझे होंगे और जो नहीं समझे हैं वे उन समझदारों से समझ सकते हैं जो मेरी बात समझ गए हैं । मुझे ख़ुशी है की यह वार्षिक महोत्सव ३१ दिसम्बर..वर्ष के आखिरी तारीख और आखिरी दिन रखा गया है। अब मैं आपका ज्यादा समय ना लेते हुए इस विश्वविद्यालय के डीन को इस वार्षिक महोत्सव की शुभारम्भ के लिए दीप प्रज्वलित करने का आग्रह करता हूँ"

विश्वविद्यालय के प्रमुख और कुछ और मेहमान आगे आते हैं और दीप प्रज्वलित करते हैं। और फिर उसी महाशय ने मंच संभाल लिया।

"अब मैं इस वार्षिक महोत्सव के "मुख्य अतिथि" और अपने यार और ब्लास्ट के मुख्य क्राइम रिपोर्टर श्री सुनील कुमार चक्रवर्ती को मंच पर बुलाना चाहूँगा ताकि वो अपने पत्रकारिता के संस्मरण से अपने अनुभव हमारे साथ बातें। दोस्तों "गालियाँ देकर", माफ़ी चाहूँगा, जुबान फिसल गयी, समझ नहीं आता की इतनी जल्दी कैसे फिसल गयी। दोस्तों "तालियाँ बजा कर " स्वागत कीजिये "श्री सुनील कुमार चक्रवर्ती" का..........."

और इसके बाद पुरे हाल में तालियों की गर्गाराहट गूंजने लगी और जो व्यक्ति अपने कुर्सी छोड़ के उठा और मंच संचालक के पास पहुंचा वही "सुनील कुमार चक्रवर्ती" था। सारा हाल खड़ा हो कर तालियाँ बजा रहा था। सुनील ने मंच संचालक से माइक ले लिया.....

"बैठिये बैठिये...।"

सभी बैठ गए। मैं भी अपने स्थान पर बैठ गया।

" मैं इतना बड़ा व्यक्ति भी नहीं हुआ हूँ की आप लोग मुझे खड़े होकर तालियों से स्वागत करें। लगता है मेरे दोस्त ने आप सभी को पैसे दिए हैं की जैसे ही सुनील आये आप सभी खड़े हो जाए। मजाक कर रहा था। क्यूंकि ऐसा संभव नहीं है क्यूंकि मेरा यार पैसे खर्च करने के मामले में बड़ा कंजूस है। लेकिन मुझ जैसे यार के लिए वो ऐसा कर भी सकता है। क्यूँ क्या कहते हो "रमाकांत"?"

ओह्ह.........जो मंच संचालक हैं उनका नाम रमाकांत मल्होत्रा है। सुनील का जिगरी यार। जिसने कई बार सुनील की मदद की थी।

"चलिए इनसे तो मैं बाद में निबटूंगा। मैं "Delhi Institute of Criminology and Forensic Science " का धन्यवाद करता हूँ की मुझ जैसे अदने पत्रकार को इतनी इज्जात बख्सी । मैं यहाँ बैठे सभी विद्यार्थियों, बिरादरी भाइयों, अध्यापक-अध्यापिकाओं, कॉलेज के प्रमुख डीन साहब, और ब्लास्ट के कर्ता-धर्ता और मेरे अन्नदाता मलिक साहब का धन्यवाद् करता हूँ। 
मैं अपने बारे में बता के आपको बोर नहीं करूँगा। और मैं कोशिश करूँगा की आप सभी का कम समय लूँ। मैंने आज तक इस प्रकार किसी कार्यक्रम में शिरकत नहीं की क्यूंकि मुझे आपने पत्रकारिता से ही फुरशत नहीं मिली। लेकिन आप सभी तो आने वाले दिनों के "सुनील" हैं इसलिए मुझे अपने मालिक "मलिक साहब" और "रमाकांत" के कहने पर यहाँ आप लोगो के समुक्ख आना पड़ा। और मैं अपने आपको एक विद्यार्थी समझते हुए ही आपसे मुखातिब हूँ। आशा करता हूँ अध्यापक गन मेरे द्वारा की गयी गलतियों को माफ़ कर देंगे और आप सभी दोस्त उन गलतियों पर चुटकी लेंगे लेकिन उसको दोहराएंगे नहीं।"

मैंने अपना कलम और कागज़ निकाल लिया था। 

"पहले तो मैं आप सभी को नव वर्ष की शुभकामनाये देता हूँ की अगला वर्ष आपका बहुत ही अच्छा हो। मुझे दिल्ली गैंग रेप ने बहुत हतोउत्सहित किया। इस काण्ड के बाद तो लगता है की मानवता कही मर गयी। इंसानियत का नामो निशाँ मिट गया है। जैसा इस से पहले हुआ था जब एक विमल नाम के व्यक्ति ने कुछ बलात्कारियों को सजा दी थी। लेकिन मेरे हिसाब से हमें कानून पर भरोसा करना चाहिए। लेकिन मैं चाहूँगा की हम सभी उस पीडिता के लिए २ मिनट का मौन रखें।"

सभी खड़े हो गए। सबने अपने हाथ सीधे किये और आंखे बंद और दो मिनट का मौन रखा। मुझे सुनील का यह कार्य बहुत अच्छा लगा। सच यह व्यक्ति कितना महान है। अपने आपको अभी भी एक विद्यार्थी बताता है और बातें ऐसी करता है जैसे कोई महापुरुष बोलता हो। सुनील ने फिर बोलना शुरू किया। 

"आप लोगो ने मेरे अनुभव को और कारनामों को श्री सुरेन्द्र मोहन पाठक के उपन्यासों में पढ़ा होगा। और नहीं पढ़ा तो पढियेगा। वो बहुत अच्छा लिखते हैं और जिस प्रकार से मेरे कार्य में बारकिया होती हैं उसी प्रकार उनके कार्य में भी बहुत बारीकियां हैं। देखिये मेरे पास आज अनुभवों की कमी नहीं है लेकिन मैं एक ऐसे सब्जेक्ट पर आपसे बात करूँगा जिसकी आपको जरूरत है। आप सभी अभी विद्यार्थी हैं और विद्यार्थी को हमेशा समय के बारे में सोचते रहना चाहिए। समय का सदुपयोग कैसे किया जाए इसके बारे में सोचना चाहिए। सुनिए एक बार की बात है गाँधी जी के पास एक गाँव का मुखिया ने एक सभा को संबोधित करने का निमंत्रण दिया और बोल की वो गाँधी जी को लिवा लाने को गाडी भेजेंगे। लेकिन जब मुखिया गाडी लेकर समय पर ना पहुंचा तो गांधीजी खुद साइकिल चलकर सभास्थल पर चले गए। मुखिया गाडी लेकर जब गाँधी जी के आश्रम पहुंचा तो पता चला गाँधी जी वह थे ही नहीं। मुखिया निराश होकर गाँव पहुंचा तो देखा की गाँधी जी सभा को संबोधित कर रहे हैं। बाद में जब मुखिया ने पूछा तो गाँधी जी ने जवाब दिया जब आप पौने चार बजे तक नहीं पहुँचे तो मुझे चिंता हुई कि मेरे कारण इतने लोगों का समय नष्ट हो सकता है इसलिए मैंने साइकिल उठाई और तेज़ी से चलाते हुए यहाँ पहुँचा। गाँधी जी ने कहा समय बहुत मूल्यवान होता है, हमें प्रतिदिन समय का सदुपयोग करना चाहिए। किसी भी प्रगति में समय महत्वपूर्ण होता है।"


पुरे हाल में सन्नाटा छाया हुआ था सभी मंत्रमुग्ध हो सुनील की बाते सुन रहे थे।

"वैसे मंतव्य यह कहानी सुनकर आपको समय की सीख नहीं देनी क्यूंकि आपको आपके अध्यापक समय के सदुपयोग की सिक्षा समय-समय पर देते ही होंगे। आज मैं बात करता हूँ "समय और क्राइम" की । क्राइम और समय समय का रिश्ता बहुत पुराना है। जब जब क्राइम हुआ है उसे समय से जरुर जोड़ा गया है। क्राइम कब हुआ? क्राइम किस समय हुआ। क्राइम के सम्बंधित सभी व्यक्तियों की एलिबाई के लिए भी समय बहुत मायने रखता है। क़त्ल के केस में तो समय का बहुत ही महत्व होता है। मुझे याद है की एक केस में कातिल ने क़त्ल करके मृतक को "deep freeze " में डाल कर उसके शरीर का तापमान कम कर दिया था। और किसी भी क़त्ल के बाद जब मृतक का पोस्टमॉर्टेम किया जाता है या जो फॉरेंसिक डॉक्टर्स उस लाश की प्रथम स्थिति में लाश का तापमान देखकर भी बताते हैं की क़त्ल कब हुआ था। आप लोग तो पढ़ रहे होंगे इसके बारे में। उक्त केस में मृतक के शरीर का तापमान कम करने से क़त्ल का समय बदल गया था। एक और केस में जनार्दन मोदी नामक व्यक्ति का क़त्ल हुआ जिसमे एक मोमबत्ती ने बहुत ही सहायता प्रदान की या यूँ कहूँ की क़त्ल के समय का सही से पता मुझे उसी से चला। तो क्राइम और समय का बहुत ही गहरा रिश्ता है। अब मैं आपको नवीनतम केस के बारे में बताता हूँ जिसमे समय का बहुत योगदान है। इसी समय की समस्या के कारण एक निर्दोष व्यक्ति को सजा होने वाली थी। "

"मैं आप सभी को संक्षेप में केस के बारे में बताता हूँ। आप देखिएगा की समय का क्या योगदान है इस क्राइम में। सुंदरवन के बारे में तो आप जानते ही होंगे। नहीं बंगाल का सुंदरवन नहीं मैं राजनगर के सुंदरवन की बात करता हूँ। अगर आप लोग नहीं गए है तो जाना चाहिए और जिनको फिशिंग का शौक है उन्हें तो जरूर जाना चाहिए। सुंदरवन झेरी से दूर एक ऐसा स्थान है जो ट्राउट फिशिंग के लिए बहुत मशहूर है। लेकिन सरकार ने सिर्फ एक निश्चित सीजन में ही ट्राउट फिशिंग के लिए आज्ञा देती है। बाकी समय फिशिंग पर बैन है। मुझे खबर मिली की सुंदरवन के एक कॉटेज में राजनगर के मशहूर उद्योगपति एवं व्यवसायी लालचंद G हीरवानी का क़त्ल हो गया है। मुझे यह खबर अर्जुन से प्राप्त हुई। मैं भी घटना स्थल पर पहुंचा। इंस्पेक्टर ने मुझे मौकाए वारदात के दर्शन करवाए। मौकाए वारदात पर जाकर मुझे पता चला की कॉटेज में लाश कई दिनों से सड़ रही थी। किसी यात्री की सूचना पर इस क़त्ल के बारे में पता चला। अन्दर कमरे को देखने पर मुख्या चीजे थी जाने लायक वो मैं बताता हूँ आप लोगों को। बिस्तर बिलकुल सलीके से लगा हुआ था। उस पर एक भी सिलवटे नहीं थी। बिस्तर के करीब एक अलार्म घडी राखी थी जिसमे ५ बजे का अलार्म लगा था और अलार्म on था। लेकिन घडी २:२७ पर रुकी हुई थी। घडी चाबी वाली थी रुकने का अर्थ यह था की चाबी दी नहीं गयी थी। ६ मछलियाँ एक टोकड़ी में पड़ी थी और सड़ रही थी ये मुझे पुलिस ने बताया। लकड़ी के लट्ठे सलीके से शमादान में रखे थे। लगता था की उसे जलाने के लिए रखा गया था पर मकतूल उसे जल नहीं पाया था। वहां का टेलीफोन ख़राब था। मकतूल के बरसाती और मछली पकड़ने के सामान वही करीब रखे हुए थे। जिस बन्दूक से गोली चली थी वो बहुत ही एंटीक बन्दूक थी। पता चला की हीरवानी जी हर साल ट्राउट फिशिंग के सीजन पर वहां आते थे। कॉटेज भी उन्ही का था। लेकिन यह भी पता चला की हीरवानी जी यहाँ सादा जीवन बिताते थे। हीरवानी जी वहां गुमनाम सी जिन्दगी बिताते थे। मैं वहां से बाहर निकला तो मुझे एक छोटा सा झोपडी भी वह दिखाई दिया। मैंने पुलिस को उसके बारे में बताया। ऐसा लगता था की उस झोपडी से कॉटेज के फ़ोन काल टेप की जाती थी। वहां भी एक अधूरी सिगरट पड़ी थी और टेलीफोन का रिसीवर निचे रखा था। मैंने अनुमान लगाया की जिसने भी वो लास्ट फ़ोन कॉल सुनी वो बहुत हड़बड़ी में वहां से निकल गया। 
पुलिस का क़त्ल के समय को लेकर यह वर्शन था की क़त्ल उस दिन हुआ जिस दिन ट्राउट फिशिंग के लिए सीजन की शुरुआत हुई। जबकि मैं इससे इत्तेफाक नहीं रख रहा था। 
मकतूल के परिवार में एक बेटा अशोक हिरवानी और मकतूल की दूसरी पत्नी । और हिरवानी के पत्नी का भाई विशाल । विशाल लालचंद हिरवानी का प्राइवेट प्लेन चलाता था। एक पर्सनल सेक्रेटरी सचिन शुक्ला। लालचंद हिरवानी का एक भाई भी था जो वैरागी हो गया था। उनसे सांसारिक मोह-माया से पीछा छुड़ा लिया था। लेकिन वो वर्षों से गायब है और किसी को पता नहीं वो कहा है। "

पूरा हाल सन्नाटे में था ऐसा लगता था की कोई जादूगर अपनी जादूगरी दिखा रहा हो और सभी दर्शक उस जादूगरी के आधीन हो गए हो। मेरी कलम भी रुक सी गयी थी । २ लाइन तो मैंने लिखी थी और मैं अपनी कलम को चला नहीं पा रहा था। जब सुनील की लेखनी के लोग दीवाने हैं तो आवाज के क्यूँ न होंगे। 

"मुझे उस एंटीक बन्दूक के बारे में खबर मिली की झेरी के एक म्युजिअम की बन्दूक थी। मैंने जब वह जा कर तस्दीक की तो पता चला की इस बन्दूक के सन्दर्भ में ज्यादा जानकारी "शांता मेहता " नाम की एक महिला बता सकती हैं जो इस म्युजिअम की केयर-टेकर है। मैं जब "शांता मेहता" के घर पहुंचा तो उसकी पड़ोसन से मुझे पता चला की "शांता मेहता" ने अभी २ हफ्ते पहले ही शादी की है। जब मैंने उस महिला ने शांता के पति का हुलिया बताया तो मैं आश्चर्यचकित हो गया। मुझे यह पता लगा की लालचंद हिरवानी जी शांता के पति थे। अब शांता कही खोजे नहीं मिल रही थी। मैंने अपने कुछ खबरी लालचंद हिरवानी के घर पर निगरानी के लिए लगा दिए । मुझे लगा की शायद शांता मेहता वहां जरूर आये। क्यूंकि अब वो इस केस की प्राइम सस्पेक्ट बन गयी थी। क्यूंकि क़त्ल से जुड़े सभी लोगो के पास पर परफेक्ट एलिबाई थी।

इस केस से जुड़े लगभग सभी संभावितो के पास उस समय की एलिबाई थी जो पुलिस ने निर्धारित किया था। सचिन शुक्ला और विशाल मुंबई में थे। हिरवानी की पत्नी सिंगापूर में थी जहा वो हिरवानी साहब से तलाक के लिए गयी थी। अशोक पर मेरा शक नहीं जा रहा था। सचिन शुक्ल ने बताया की क़त्ल से पिछली रात को हिरवानी साहब ने उसे एक जरूरी काम से उसको और विशाल को एअरपोर्ट पर १० बजे एक सूचना दी थी और उसे मुंबई जाना था। 

मेरे एक खबरी ने मुझे बताया की हिरवानी जी ने जो आखिरी ट्रंक कॉल किया था वो एक हस्तलिपि एक्सपर्ट और फोर्जरी एक्सपर्ट कल्याण सक्सेना को किया था। मैं कल्याण सक्सेना से मिला तो उसने बताया की हिरवानी जी ने उसे एक काम सौप था जिसके अनुसार उन्होंने मुझे बताया था की ३ चेक्स के द्वारा उनके कंपनी से सवा लाख रूपये का गबन किया गया था। उन चेक्स पर हिरवानी के नकली हस्ताक्षर थे। कल्याण सिंह के अनुसार हिरवानी जी ने पहले अपनी पत्नी के भाई विशाल शिंदे पर शक जाहिर किया था लेकिन उसकी हस्तलिपि इस चेक्स की हस्तलिपि से नहीं मिलती थी। उन्होंने आखिरी ट्रंक कॉल में बताया था की वो एक दूसरी हस्तलिपि भेज रहे थे डाक से। लेकिन सक्सेना को कोई डाक नहीं मिली थी।मैंने सक्सेना से वो रिपोर्ट ली .............................................अरे यार ये माइक नहीं चल रहा है "

माइक से आवाज नहीं आ रही थी। लगता था की कोई तकनिकी समस्या उत्पन्न हो गयी थी। सुनील बार बार रमाकांत की तरफ देख रहा था और उस पर झल्ला रहा था। ऐसा लगता था की रमाकांत ने ही इस महोत्सव के साउंड डिपार्टमेंट का ज़िम्मा लिया था या पुरे महोत्सव का जिम्मा लिया था और सुनील उसके नाकारेपन पर झल्ला रहा था। रमाकांत वह से उठा और अपने कोट की जेब में हाथ डालता हुआ निकल पीछे की तरफ निकल गया। मैं भी बैठ कर लिखना शुरू कर दिया क्यूंकि मेरे अगले उपन्यास के लिए बहुत ही सुन्दर प्लाट तैयार कर रहा था। गौरतलब है की मैं कुछ दिनों से एक उपन्यास का प्लाट खोज रहा था। और वो आज मिल गया। वैसे मैं कई सालों से सुनील के चरित्र को लेकर उपन्यास लिखता रहा हूँ। मैं कोशिश करता हूँ की सुनील जैसा है वैसा ही रहे। मैने अपनी आँखे बंद की और और सोचने लगा की कैसे कैसे इस कहानी को रूप देना है। 

"भाई साहब, भाई साहब!"
मैं अकचका कर उठ बैठा। 
"भाई साहब, प्रोग्राम ख़तम हो गया, सब चले गए। आप कब जायेंगे।"

मैंने देखा पूरा हाल खाली हो गया था। मुझे अपने आप पर गुस्सा आ रहा था की मैं क्यूँ सो गया । अभी पूरी कहानी तो ख़तम ही नहीं हुई थी। आब मुझे फिर सुनील को इस कहानी के लिए चिट्ठी लिखनी पड़ेगी ताकि वो पूरी केस डिटेल मुझे भेजे और मैं उसे उपन्यास के रूप में लिख सकूँ ।लेकिन अब मुझे थोडा इंतज़ार करना पड़ेगा जबकि मैं जल्दी इस उपन्यास को ख़तम करना चाहता था। प्रकाशक भी मेरे पीछे पड़े हैं की सुनील का नया कारनामा जल्दी लाओ। मैं हाल से निकला और एक ऑटो पकड़ घर की तरफ निकल पड़ा। 




*************************************************************
नोट - सभी दोस्तों और सदस्यों से यह प्रार्थना है की यह कहानी पूरी तरह से काल्पनिक है। केस के रूप में जो कहानी पेश की गयी है वह श्री सुरेन्द्र मोहन पाठक के उपन्यास "प्राइम सस्पेक्ट" से लिया गया है। मेरा सारांश लिखने का तरीका बहुत अलग है जिसमे मुझे वार्तालाप का प्रयोग करना पड़ता है। ऐसे कार्य में कल्पना (इमेजिनेशन) को खूब तोडा -मोड़ा जाता है। यहाँ भी मैंने इमेजिनेशन के साथ बहुत खिलवाड़ किया है। आशा करता हूँ की आप मेरे इस बचपने को क्षमा कर देंगे। 

----
विनीत
राजीव रोशन


विश्लेषण - "प्राइम सस्पेक्ट"

दोस्तों वैसे तो सुनील सीरीज हर उपन्यास अपने आप में एक रहस्यनुमा होता है। हर उपन्यास में सुनील के कारनामे से हम आश्चर्यचकित हो उठते हैं। एक पन्ना ख़तम होता है और हम दुसरे पन्ने पर होते हैं लेकिन फिर भी सोचते हैं की अगले पन्ने में क्या होगा। आसान नहीं होता सुनील की तरह सोच पाना ।
सुनील का तथ्यों एवं तर्कों के साथ गुत्थियों को सुलझाना इतना मुश्किल काम है जिसे हम जैसे पाठक शायद ही फॉलो कर सके। प्रस्तुत उपन्यास "प्राइम सस्पेक्ट" जो सुनील सीरीज के अंतर्गत आता है के सारांश के दौरान मैंने बहुत सी ऐसी छोटी बातों को नहीं लिखा है जिनका लिखना जरूरी होता। क्यूंकि प्रस्तुत वार्तालाप सुनील के द्वारा बोला गया है उसमे भी एक पब्लिक प्लेटफार्म पर तो उन बारीकियों को जिनको सुनील दुसरे हथकंडे से हासिल करता है मैंने उन्हें उधृत नहीं किया है। 

पाठक साहब ने "प्राइम सस्पेक्ट" उपन्यास का प्लाट बहुत ही सिमित दायरों में रखा है। किरदारों के दायरे भी सिमित हैं। सुनील को इस उपन्यास पुर्णतः सक्रिय दिखाया है। अर्जुन ने सुनील का बहुत ही अच्छी तरह से साथ दिया है। कहानी के उन पन्नो में खो कर देखिये जब सुनील उस घर का मुआयना करता है वह ऐसे बहुत से सुराग होते हैं जो "समय: से सम्बंधित हैं। 
१) बिने सिलवटों की बिस्तर
२) अलार्म घडी 
३) आग जलाने वाली लकड़ी
४) मछलियाँ

"ताज़ा खबर " के पश्चात इस उपन्यास में सब-इंस्पेक्टर कृपा राम और हवाल दार नेमचंद दुबारा नज़र आये हैं लेकिन इंस्पेक्टर प्रभुदयाल को भी दो ऐसे हिस्सों पर दिखाया गया है जहाँ सुनील के साथ उसकी लम्बी बहस होती है। क्लाइमेक्स के ३०-४० पन्नो में प्रभुदयाल, कृपाराम और सुनील की बीच का वार्तालाप असाधारण रूप से प्रसंसनीय है। पाठक साहब ने इन पन्नो में वह जादू बिखेरा है जिसे मुझ जैसा पाठक हमेशा चाहता है। ऊपर के चार सुरागो के द्वारा सुनील ने प्रभुदयाल के बुद्धिमानी पर सवाल उठाया और फिर प्रभुदयाल द्वारा सुनील के हर तर्क को नकार देना। इसने प्रभुदयाल पर कई सवालिया निशान उठा दिए थे। लेकिन लेखक की दृष्टि से किसी न किसी को तो झुकाना पड़ेगा ही। और जब मुख्या कलाकार ही सुनील था तो प्रभुदयाल की मट्टी पलित तो होनी ही थी। 

सुनील द्वारा कल्याण सक्सेना को झांसा देना और यह वार्तालाप। क्या कहूँ। वैसे तो इस उपन्यास में अच्छे वार्तालापों की कमी नहीं है लेकिन मैं सुनील और कल्याण सक्सेना के बीच के वार्तालाप को दूसरा स्थान दूंगा। 

मैं अपने उन पाठको से जरूर कहूँगा की इस उपन्यास को पढ़े। और इसके आखिरी ४० पन्नो के सुनील द्वारा निकले गए शानदार तार्किक विश्लेषण से रूबरू हों। यह उपन्यास पुर्णतः "समय" पर आधारित है। 

आशा करता हूँ जो पाठक इस उपन्यास के रस का पान पहले ही कर चुके हैं उनके कमेंट्स जरूर मिलेंगे। और जिन्होंने इसे नहीं पढ़ा तो कृपया इसे जरूर पढ़े और देखे की "समय का खेल" कैसा होता है।

मैंने कोशिश की है की मैं इस सारांश को अपना सर्वश्रेष्ठ दे सकूँ और मैंने दिया है। और मैंने कितना सर्वश्रेष्ठ दिया इसका उत्तर आपके कमेंट्स द्वारा मुझे प्राप्त होगा। 

---------
विनीत 
राजीव रोशन

Comments

Popular posts from this blog

कोहबर की शर्त (लेखक - केशव प्रसाद मिश्र)

कोहबर की शर्त   लेखक - केशव प्रसाद मिश्र वर्षों पहले जब “हम आपके हैं कौन” देखा था तो मुझे खबर भी नहीं था की उस फिल्म की कहानी केशव प्रसाद मिश्र की उपन्यास “कोहबर की शर्त” से ली गयी है। लोग यही कहते थे की कहानी राजश्री प्रोडक्शन की फिल्म “नदिया के पार” का रीमेक है। बाद में “नदिया के पार” भी देखने का मौका मिला और मुझे “नदिया के पार” फिल्म “हम आपके हैं कौन” से ज्यादा पसंद आया। जहाँ “नदिया के पार” की पृष्ठभूमि में भारत के गाँव थे वहीँ “हम आपके हैं कौन” की पृष्ठभूमि में भारत के शहर। मुझे कई वर्षों बाद पता चला की “नदिया के पार” फिल्म हिंदी उपन्यास “कोहबर की शर्त” की कहानी पर आधारित है। तभी से मन में ललक और इच्छा थी की इस उपन्यास को पढ़ा जाए। वैसे भी कहा जाता है की उपन्यास की कहानी और फिल्म की कहानी में बहुत असमानताएं होती हैं। वहीँ यह भी कहा जाता है की फिल्म को देखकर आप उसके मूल उपन्यास या कहानी को जज नहीं कर सकते। हाल ही में मुझे “कोहबर की शर्त” उपन्यास को पढने का मौका मिला। मैं अपने विवाह पर जब गाँव जा रहा था तो आदतन कुछ किताबें ही ले गया था क्यूंकि मुझे साफ़-साफ़ बताया गया थ

विषकन्या (समीक्षा)

विषकन्या पुस्तक - विषकन्या लेखक - श्री सुरेन्द्र मोहन पाठक सीरीज - सुनील कुमार चक्रवर्ती (क्राइम रिपोर्टर) ------------------------------------------------------------------------------------------------------------ नेशनल बैंक में पिछले दिनों डाली गयी एक सनसनीखेज डाके के रहस्यों का खुलाशा हो गया। गौरतलब है की एक नए शौपिंग मॉल के उदघाटन के समारोह के दौरान उस मॉल के अन्दर स्थित नेशनल बैंक की नयी शाखा में रूपये डालने आई बैंक की गाडी को हजारों लोगों के सामने लूट लिया गया था। उस दिन शोपिंग मॉल के उदघाटन का दिन था , मॉल प्रबंधन ने इस दिन मॉल में एक कार्निवाल का आयोजन रखा था। कार्निवाल का जिम्मा फ्रेडरिको नामक व्यक्ति को दिया गया था। कार्निवाल बहुत ही सुन्दरता से चल रहा था और बच्चे और उनके माता पिता भी खुश थे। चश्मदीद  गवाहों का कहना था की जब यह कार्निवाल अपने जोरों पर था , उसी समय बैंक की गाड़ी पैसे लेकर आई। गाड़ी में दो गार्ड   रमेश और उमेश सक्सेना दो भाई थे और एक ड्राईवर मोहर सिंह था। उमेश सक्सेना ने बैंक के पिछले हिस्से में जाकर पैसों का थैला उठाया और बैंक की

दुर्गेश नंदिनी - बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय

दुर्गेश नंदिनी  लेखक - बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय उपन्यास के बारे में कुछ तथ्य ------------------------------ --------- बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय द्वारा लिखा गया उनके जीवन का पहला उपन्यास था। इसका पहला संस्करण १८६५ में बंगाली में आया। दुर्गेशनंदिनी की समकालीन विद्वानों और समाचार पत्रों के द्वारा अत्यधिक सराहना की गई थी. बंकिम दा के जीवन काल के दौरान इस उपन्यास के चौदह सस्करण छपे। इस उपन्यास का अंग्रेजी संस्करण १८८२ में आया। हिंदी संस्करण १८८५ में आया। इस उपन्यस को पहली बार सन १८७३ में नाटक लिए चुना गया।  ------------------------------ ------------------------------ ------------------------------ यह मुझे कैसे प्राप्त हुआ - मैं अपने दोस्त और सहपाठी मुबारक अली जी को दिल से धन्यवाद् कहना चाहता हूँ की उन्होंने यह पुस्तक पढने के लिए दी। मैंने परसों उन्हें बताया की मेरे पास कोई पुस्तक नहीं है पढने के लिए तो उन्होंने यह नाम सुझाया। सच बताऊ दोस्तों नाम सुनते ही मैं अपनी कुर्सी से उछल पड़ा। मैं बहुत खुश हुआ और अगले दिन अर्थात बीते हुए कल को पुस्तक लाने को कहा। और व