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टोपी शुक्ला - राही मासूम रज़ा


समीक्षा


पुस्तक - टोपी शुक्ला 
लेखक - राही मासूम रज़ा



जब इस पुस्तक के बारे में मुझे मुबारक भाई से पता चला तो मैंने मुबारक भाई से पुस्तक यह कह कर लिया की मैं यह पुस्तक तरविंदर भाई को दे दूंगा। क्यूंकि यह पुस्तक मुझ से पहले ही तरविंदर भाई द्वारा छेकी (बिहार आंचलिक शब्द अर्थ है चुन लेना, अलग अलग स्तर पर अलग अलग मतलब के लिए प्रयोग किया जाता है) ली गयी थी । लेकिन अब एक महिना गुजरने को है और मैं उनको दे नहीं पाया। जिसमे मेरा भी एक स्वार्थ था की मैं पढ़ लूँ फिर दूँ । लेकिन मैं पुस्तक जल्दी पढ़ भी नहीं पाया कार्यालय से समय ही बड़ी मुश्किल से मिल पा रहा है। मुबारक भाई और तरविंदर भाई से क्षमा प्रार्थी हूँ। 



चूंकि मैं किसी भी पुस्तक को पढने से पहले उसके शीर्षक में घुसता हूँ। इस पुस्तक का शीर्षक "टोपी शुक्ला" , मुझे लगा की शायद यह किसी व्यक्ति विशेष के जीवनी का प्रयोग कर उस पर व्यंग लिखा गया है। वैसे अगर मैं सोचूं तो, हाँ, यह पुस्तक एक व्यंग है लेकिन एक कटाक्ष रुपी व्यंग है। यह पुस्तक एक व्यक्ति "टोपी शुक्ला " के जीवनी तो है लेकिन इसे सिर्फ इस किरदार की जीवनी कहना सही नहीं होगा। ऐसा कहना लेखक के द्वारा दिए जाने वाले सन्देश के साथ अन्याय होगा। लेखक इस किरदार के द्वारा भारत के हर इंसान की तस्वीर को दिखाना चाहता है। भारत का हर इंसान या कहूँ मुख्यतः अधिकतर व्यक्ति आज की तारिख में या कहानी के परिपेक्ष में एक "टोपी शुक्ला" है।



"टोपी शुक्ला" एक ऐसा भारतीय है जो हिन्दू है लेकिन उसने मुस्लिम विश्वविद्यालय में शिक्षा ग्रहण की इसलिए उसे कही नौकरी नहीं मिलती। आप उस समय के हालात को समझ सकते हैं जब भारतवर्ष का १९४७ में टुकड़े हुए थे। लेखक ने अपनी इस पुस्तक में कई स्थानों पर दर्शाया है की भारतवर्ष के टुकड़े होने के पश्चात भी भारत में दो भारत बस रहे थे - हिन्दू भारत और मुस्लिम भारत। हिन्दू के अनुसार हिंदुस्तान उनका है और पाकिस्तान मुसलमानों का है। जबकि पुरे पुस्तक में लेखक ने मुस्लिमों को इस बात से जूझते हुए या लड़ते हुए दिखाया है की हिंदुस्तान उनका भी है। 
"टोपी शुक्ला" किसी ऐसे व्यक्ति की कहानी नहीं जो हिन्दू या मुस्लिम धर्म को भडकता हो या उनमे मेल मिलाप करवाता है। "टोपी" तो ऐसा किरदार है जो हमें वो आइना दिखाने का प्रयास करता है जिसे हम देखना नहीं चाहते । 



"टोपी शुक्ला" जनसंघी नहीं है, "टोपी शुक्ला" कांग्रेसी नहीं है, "टोपी शुक्ला" कम्युनिस्ट नहीं है, "टोपी शुक्ला" तो एक इंसान है जो इन टोपी पहने नेताओ या राजनितिक संगठनों में रहकर समाज की सही तस्वीर प्रस्तुत करना चाहता है। 
"टोपी शुक्ला" एक दोस्त है, एक सच्चा दोस्त जो दोस्ती को ताजिंदगी निभाना जानता है। 
"टोपी शुक्ला" एक प्रेमी है लेकिन जिससे प्रेम करता है उससे कह नहीं पाता और इश्क की बदनाम गलियों में उसके चर्चे होते हैं। लोगो का कहना है "टोपी" का उसके बचपन के दोस्त इफ़्फ़न की पत्नी "शकीना" से अनैकित सम्बन्ध है। लेकिन ऐसा है नहीं। 



जिस प्रकार से "टोपी" और "इफ़्फ़न" की दोस्ती सागर से भी अधिक गहरी और गंगा से अधिक पवित्र है। उसी तरह "टोपी" और शकीना" का प्रेम गुलाब सा सुन्दर और गंगा सा पवित्र है। "टोपी" और "शकीना" की तकरार में हम देख पाते है की उनमे कितना प्रेम है। अपने आप को बदनामी से बचाने को "टोपी" शकीना को सलाह देता है की वो उसे राखी बाँध दे। लेकिन शकीना जिस प्रकार के अपने "भूतकाल" से गुजरी है उसके सन्दर्भ में शकीना इसके लिए तैयार नहीं होती। 



जब इतनी बदनामी होती ही है तो क्यूँ "टोपी" "इफ़्फ़न" के परिवार से जुड़ा है। क्यूंकि "टोपी" अपने माता-पिता और २ भाई के होने के बावजूद भी खुद को अकेला पाता है। उसे अब "इफ़्फ़न" के द्वारा उर्दू के सही उच्चारण के लिए टोकना अच्छा लगता है, उसे "शकीना" से तकरार में अधिक प्रेम मिलता है और उसे शबनम (इफ़्फ़न और सकीना की बेटी) द्वारा अग्रेजी सीखना अच्छा लगता है। 



"टोपी" कोई और नहीं हमारा एक प्रतिबिम्ब है। मुझे ऐसा लगा की मैं अपनी कहानी पढ़ रहा हूँ। मुझे ऐसा लगा की अभी मेरे जीवन के २४ वर्ष ही बीते हैं और मेरी जीवनी लिख दी गयी है। दोस्तों कभी न कभी , कहीं न कहीं "टोपी शुक्ला" हमारे अन्तःमन में जिन्दा है लेकिन हमें दिखाई नहीं देता। सच, यह हर एक भारतीय पर ऐसा कटाक्ष है जो समय समय पर राह चलते, बस में, ट्रेन में, जनसभा में, घर में, पड़ोस में, चाय की दूकान पर, ऊँचे ऊँचे मकानों में और हर स्थान पर "टोपी शुक्ला" को देखता है या खुद एक टोपी शुक्ल बन जाता है। आज भी कई ऐसे हिन्दू वादी और मुल्सिम वादी मिल जायेंगे जो ऐसे बयान देते है जो बड़े ही बेतुके होते है । आज आज़ादी के ६० सालों बाद भी भारत "टोपी शुक्ला" के भारत जैसा ही दीखता है। बदला है तो बस रहन - सहन, ऊंचे-ऊंचे आकाश को छूते इमारतें, बड़े बड़े विश्वविद्यालय, कंप्यूटर, टेलीविज़न लेकिन इंसान जैसा ६० साल पहले था वैसा ही आज भी है।



मैंने ऊपर के लेख में "टोपी शुक्ला" के बहुत ही छोटे वृत्तांत को दर्शाया है। आशा करता हूँ की पुस्तक पढ़ कर आप सभी पुरे वृत्तांत और इस पुस्तक का अत्यधिक आनंद उठाएंगे। "टोपी शुक्ला" यह जीवनी रूपक पुस्तक इतनी भावनात्मक और क्रियाताम्क रूप से इतनी बड़ी है आप लिखते जाएँ और आपको पन्ने कम पड़ते जायेंगे। प्रत्येक किरदार अपने आप में जोरदार है और किसी न किसी तरीके से "टोपी" से जुड़ा हुआ है। इसलिए ऊपर मैंने उन्ही किरदारों के नाम लिए हैं जिनका "टोपी" के जीवन में अत्यधिक महत्व है। अब आप सोचेंगे की मैंने "टोपी" के माता पिता का अत्यधिक जिक्र क्यूँ नहीं किया ? क्या माता-पिता का दोस्त से ज्यादा महत्व नहीं होना चाहिए जिन्दगी में? तो मैं इसका सीधा और सरल जवाब दूंगा की आप पहले पुस्तक पढ़ें फिर आपको यह प्रश्न पूछना बेमानी लगेगा। 



कभी कभी हमें कोई ऐसा विषय मिल जाता है जो भावनाओ में बह जाने के बाद बड़ी परेशानी उतपन्न करता है या किसी के दिल को ठेस पहुंचता है। अगर मेरे लेख से किसी व्यक्ति विशेष के दिल को चोट पहुँचती हो तो मैं पहले ही उनसे क्षमा मांगता हूँ। यह पुर्णतः मेरे व्यक्तिगत विचार हैं । 




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विनीत 
राजीव रोशन

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