दस लाख
हाल ही में मेरा दिल चकनाचूर हुआ है और हाल ही में मैंने “नोटबुक” नामक हॉलीवुड फिल्म भी देखा है। दोनों ही बातों में कुछ समानताएं हैं। जैसे की, दोनों में प्रेमी का दिल टूटता है और प्रेमिका किसी और के साथ बंधन में बंध जाती है। लेकिन दोनों ही कहानियों का अंत अलग-अलग है। जब प्रेमिका अपने प्रेमी को छोड़कर चली जाती है तो प्रेमी इश्क के जूनून को खुद पर हावी नहीं होने देता – बस यही बात है जो दोनों ही कहानियों में एक समानता नज़र आती है। दोनों ही कहानियों में प्रेमी जीवन के अंत तक अपनी प्रेमिका का इंतज़ार करने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ है।
खैर, ये बाते यहाँ कहने का कोई मतलब नहीं बनता है क्यूंकि यह एक समीक्षा है और समीक्षा में इन फ़ालतू बातों का कोई स्थान नहीं जिसका सम्बन्ध सीधे सीधे सब्जेक्ट से न हो।
“दस लाख” उपन्यास एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जो अपनी प्रेमिका के लिए ३ महीने में १० लाख रूपये का इंतजाम करना चाहता है। जीत सिंह एक ताला-तोड़ है जो ताले की चाबियाँ बना कर अपनी रोजी रोटी चलाता है और सुष्मिता नाम की लड़की के पड़ोस में रहता है। उसको सुष्मिता से एक तरफ़ा प्यार है और इस बात का उसे कोई अफ़सोस भी नहीं है। जीत सिंह के जज्बातों को बुलंदी तब मिलती है जब सुष्मिता की बहन अश्मिता के कैंसर के इलाज़ के लिए सुष्मिता को १० लाख रुपयों की जरूरत पड़ती है। सुष्मिता अपनी यह जरूरत जीत सिंह के सामने रखती और वादा करती है की गर वह १० लाख रूपये ले आया तो जिन्दगी भर उसका साथ देगी। जीत सिंह एक ताला-तोड़ है इसलिए वह इन दस लाख रुपयों को भी गैरकानूनी तरीके से हासिल करना चाहता है क्यूंकि सीधे तरीके से तो वह जिन्दगी भर में इतना रुपया नहीं कमा पायेगा।
यह जीत सिंह के मोहब्बत के जूनून की इंतिहा तो जिसे वो पार कर गया और जुर्म की दलदल में उतर गया। उसने दस लाख रूपये हासिल करने के लिए पहले मुंबई में एक सुनार के घर डाका डाला लेकिन एक साथी के धोखेबाजी के कारण उसे वहां से कुछ हासिल न हो सका।
जीत सिंह मुंबई से भाग कर गोवा पहुँचता है जहाँ एंजो नामक टैक्सी ड्राईवर की मदद से वह दो बार डकैती में हाथ डालता है जहाँ से वह डकैती की योजना बनने से पहले ही अपनी छुट्टी कर लेता है क्यूंकि योजनाओं के क्रियान्वन से पहले ही कोई न कोई विघ्न आ खड़ा होता है।
लेकिन जीत सिंह की मदद के लिए एंजो अपना हौसला नहीं छोड़ता है और ३ महीने की मियाद खत्म होने से दस दिन पहले एडुआर्डो नामक व्यक्ति से मिलवाता है जो कि डबल बुल कैसिनो को लूटने की योजना पर काम कर रहा होता है। इस काम के लिए उसे एक ऐसे वॉल्ट-बस्टर की दरकार होती है जिसके लिए जीत सिंह एक खेला-खिलाया व्यक्ति होता है क्यूंकि वह एक बार पहले भी डबल बुल कैसिनो का वॉल्ट खोल चूका था।
डबल बुल कैसिनो को आसानी से लूट लिया जाता है जिसमे से ८ सोने की बनी एंटीक मूर्तियाँ चुराई जाती है लेकिन उसके बाद जीत सिंह को आसानी से पैसा नहीं मिल पाता है। अंत में कुछ ऐसा माहौल बनता है की इस डकैती से जीत सिंह को कुछ हासिल नहीं हो पाता और बदले में एंजो की जान चली जाती है।
जीत सिंह हर मुकाम पर जीतते जीतते हारता जाता है। मुंबई के डकैती में भी रकम मिलने से पहले ही फच्चर पड़ गयी। गोवा में भी दो डकैतियों को अंजाम देने से पहले ही ठन्डे बस्ते में डाल दिया गया। वहीँ जिस डकैती को सफलता पूर्वक अंजाम दिया गया उसमे ऐसे हालात बन गए की उसकी जान जाते-जाते बची और एंजो की जान चली गयी लेकिन पैसा कुछ हासिल नहीं हुआ। ऐसा करते-करते वह वक़्त भी आ गया की जब सुष्मिता द्वारा दिया गया वक़्त भी खत्म होने जा रहा था।
क्या इस कहानी का अंत कुछ ऐसा ही है जैसा हर आशिक का होता है या फिर कोई ऐसा करिश्मा हो जाएगा जिससे जीत सिंह १० लाख रूपये हासिल कर पायेगा। मुझे लगता है की कहानी का अंत आपके द्वारा सोचे गए अंत को झकझोर कर रख देगा। जीत सिंह एक ऐसा व्यक्ति था जो अपने प्यार को पाने के लिए, अपने अंजाम की खबर होते हुए भी उसने डकैती जैसे जुर्म में हाथ डाला।
हालांकि इस उपन्यास में जीत सिंह एक मुख्य किरदार है इसलिए अधिकतम उपन्यासों पर उसकी छाप है। लेकिन एंजो, एडुआर्डो और सुष्मिता की छाप भी कम नहीं है। जीत सिंह और एंजो एक वार्तालापों में आप गोवानी भाषा का इस्तेमाल देख सकते हैं जो की करीब-करीब मुम्बैया भाषा सी लगती है और पाठक साहब की पकड़ इस हिस्से में बहुत अधिक है। एंजो का किरदार आपको मुतमुइन कर देंगा क्यूंकि उसके अन्दर आपको अपने दोस्त के लिए कुछ भी कर गुजरने का ज़ज्बा है। वहीँ एडुआर्डो में एक टीम लीडर की क्षमता को पूर्ण रूप से प्रदर्शित किया गया है उसे एक क्रिमिनल होते हुए भी अच्छा इंसान दिखाया गया है। वहीँ सुष्मिता के किरदार को पाठक साहब बहुत ही खूबसूरती से पन्नों में उकेरा है। एक ऐसी बहन का किरदार है जो बड़ी बहन को बचाने के लिए एक ताला-तोड़ से जिन्दगी भर का नाता जोड़ना चाहती और अपने भविष्य को अन्धकार में डुबोना चाहती है।
पाठक साहब के इस उपन्यास में एक बात आपको ख़ास नज़र आएगी की उन्होंने हर किरदार का परिचय चरित्र चित्रण, सौंदर्य चित्रण और व्यक्तित्व चित्रण के साथ दिया है। कम से कम पन्नों में लेकिन पूर्ण रस के साथ इस उपन्यास को लिखा गया है। पाठक साहब का चिर-परिचित अंदाजेबयां और लौह लेखनी आपको मजबूर कर देती जीत सिंह की हार की कहानी पढने को।
सन १९९६ में पहली बार प्रकाशित हुई यह कहानी थ्रिलर के अंतर्गत गिनी जाती है। यह पाठक साहब का ३८ वां थ्रिलर उपन्यास था। कहा यह जाता है की जीत सिंह, विमल की ही एक परछाई है। पाठक साहब ने विमल के समानांतर कहानी चलाने के लिए इस किरदार को गढ़ा। वैसे कहीं कहीं यह बात सही लगती है तो कहीं कहीं गलत भी। उस समय किसी ने सोचा भी नहीं था की यह थ्रिलर उपन्यास और यह किरदार आगे बढेगा। लेकिन पाठक साहब ने इस किरदार को आगे भी बढ़ाया और इसको एक प्रसिद्धि के स्तर पर पहुँचाया भी है।
आशा है आप सभी को यह लेख पसंद आएगा और गलतियों को दरकिनार करने के बजाय मुझे बताएँगे ताकि आगे से अपनी समीक्षा में सुधार कर पाऊंगा|
बेहतरीन समीक्षा राजीव जी।
ReplyDeleteशुक्रिया विकास भाई....
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