The impact of Crime fiction on Society
एक ऐसा इंसान जो की समाज के
ऊँचे स्तंभों के गुंडागर्दी और जुल्म से तंग आकर अपने शहर को छोड़ देता है और दुसरे
शहर में शरण ले लेता है लेकिन वो एक दिन वापिस लौटता है और अपने ऊपर हुए जुल्म का
बदला लेता है।
एक शहर में चार बेरोजगार
नौजवान, अपनी बेरोजगारी से तंग आकर जुर्म की राह पकड़ लेते हैं और अपनी धन की लालसा
को पूरा करने के लिए हर प्रकार का जुर्म करने को तैयार हो जाते हैं।
एक मुजरिम, अपनी सजा काट कर
सभ्य इंसान बनना चाहता है। लेकिन हमारा समाज उसे कहीं भी टिक कर दो जून की रोटी
खाने भी नहीं देता क्यूंकि उसने अपने भूतकाल में कुछ जुर्म किये थे और हमारा समाज
ऐसे मुजरिमों को नौकरी पर रखना पसंद नहीं करता। ऐसे में वह फिर से अपराध की राह पर
चल निकलता है क्यूंकि समाज के ताने और ठोकरों ने उसके धैर्य की सीमा को पार कर
दिया है।
ऐसे कई किस्से और कहानियां
आपको देखने और पढने को मिल जायेंगे लेकिन कहानियां समाज पर अपना असर छोड़ जाती हैं।
समाज को अगर आप कुछ सिखाना चाहते हैं तो उसे दो तरीकों से कुछ सिखाया जा सकता है।
एक तो आप सीधे तरीके से उन्हें सिखाइए लेकिन इसमें वक़्त बहुत लगेगा। दूसरा तरीका
है की समाज पर उस सीख के साथ एक चोट करिए। यह जल्दी कारगर सिद्ध होता है।
मैं कभी-कभी सोचने लगता हूँ
कि क्या समाज पर – पुस्तकों का कुछ असर होता है। एक तरह से तो लगता है कि होता है
क्यूंकि ये धर्म ग्रंथों से सम्बंधित होते हैं। लेकिन जब धर्म-ग्रंथों से अलग कुछ
पुस्तकों के ऊपर मनन करते हैं तो लगता है की नहीं होता है। इसमें भी एक बात है की
जितना असर आम पुस्तकों से समाज पर होता है वह बहुत कम होता है और हमें आसानी से
दिखाई नहीं देता।
वैसे अगर भूतकाल में देखा
जाए तो पाठक साहब के उपन्यासों का समाज पर बहुत गहरा असर हुआ है। लेकिन जो भी असर
है, जो लोगों को दिखाई दिया है वह है तंदूर काण्ड, कंपनी, दिल्ली के बैंक में डाली
गयी डकैती। लेकिन ये वे असर हैं जो जिन्हें नकारात्मक असर कह सकते हैं। क्या सिर्फ
अपराध और अपराधियों के द्वारा ही समाज पर पाठक साहब के उपन्यासों का असर हुआ है।
वैसे भी ये नकारत्मक असर ऐसे हैं जो की दुनिया के सामने खुल कर आये।
मुझे लगता है कि समाज पर
पाठक साहब के उपन्यासों या उनके समकालीन लेखकों के कृति का बहुत असर हुआ है। ये
असर ऐसे हैं जो सकारत्मक हैं लेकिन हमें आसानी से दिखाई नहीं देते। जैसे जो पाठक
साहब को पढने वाले पाठक हैं उनमें हाज़िर जवाबी आप आसानी से देख सकते हैं। ऐसे पाठक
समाज को एक अलग ही नज़रिए से देखते हैं। उनकी नजर सुधीर जैसी तीखी, नाक और दिमाग
सुनील जैसा चालाक, जुल्म से लड़ने की ताकत विमल जैसी हो जाती है। अब अगर पाठक साहब
के उपन्यासों का असर एक पाठक पर हो सकता है तो समाज पर भी यकीनन हो सकता है।
लेख की पहली तीन पंक्तियाँ किसी
फ़िल्मी कहानी को नहीं दर्शाता लेकिन पाठक साहब की कहानियों को दर्शाता है। लेकिन
क्या सच ही आपको लगता है कि ये पाठक साहब के उपन्यास की कहानी है। आजकल युवा वर्ग
किस प्रकार से बेरोजगारी से पीड़ित है और जब बेरोजगारी भूखमरी की ओर ले जाती है तो
मजबूरन उन्हें अपराध की ओर मुहं मोड़ना पड़ता है।
क्या आप सभी कुछ नए उदाहरण
दे पायेंगे की कैसे पाठक साहब के उपन्यास हमारे समाज पर असर डालते नज़र आते हैं। ये
असर सकारात्मक हो या नकारात्मक, जैसे भी लगे, वे हमसे जरूर साझा करें।
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