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द कलर्स ऑफ़ मर्डर (The Colors of Murder) - Part 3

द कलर्स ऑफ़ मर्डर



भाग-3




सर सुरेन्द्र मोहन पाठक जी के कई उपन्यासों पर ध्यान दिया जाए तो उससे हमें यह पता चलता है की किसी अमुक और अजनबी लाल रंग के धब्बे का जब परिक्षण किया जाता है तो उससे सिर्फ ब्लड ग्रुप के बारे में जानकारी मिलती है जिसके आधार पर सस्पेक्टस को धीरे-धीरे एलिमिनेट किया जाता है। लेकिन हम कभी यह नहीं जान पाते की किसी अमुक लाल रंग के धब्बे से या खून के धब्बे से कैसे ब्लड ग्रुप की जानकारी निकाली जा सकती है। ‘द कलर्स ऑफ़ मर्डर’ के पिछले दो भाग हमें फॉरेंसिक विज्ञानं में खून के एनालिसिस द्वारा कई महत्वपूर्ण जानकारी निकालने का तरीका बताते हैं। पहले किसी भी इन्वेस्टिगेटर का यह लक्ष्य होता है की जो अमुक धब्बा है वह खून है की नहीं। इसके दो टेस्ट के बारे में हमने बात किया था। एक टेस्ट तो मौकाए-वारदात पर ही संपन्न किया जाता है लेकिन लैब में भी दुसरे टेस्ट द्वारा यह गारंटी ली जाती है की जो परिणाम मौकाए-वारदात पर किये गए टेस्ट के दौरान आया वह सही है की नहीं। अगर परिणाम सही आता है तो अगले कदम के तौर पर यह निर्धारित किया जाता है की अमुक खून मनुष्य का है या जानवर का। इसके उपरांत फॉरेंसिक वैज्ञानिकों के पास चैलेंज होता है यह जानने का की वह खून किस ग्रुप का है। जब तक डीएनए तकनीक का विकास नहीं हुआ था और जब तक इस तकनीक ने फॉरेंसिक लैबोरेट्रीज में अपनी जगह नहीं बना ली थी और जब तक इस तकनीक को न्यायिक अदालतों ने मान्यता नहीं दे दी थी तब तक ब्लड ग्रुप के जरिये ही सस्पेक्ट को घेरे में लिया जाता था और यही कारण है की सर सुरेन्द्र मोहन पाठक जी के उपन्यासों में सिर्फ ब्लड ग्रुप के जानकारी तक ही सीमितता रही।

द कलर्स ऑफ़ मर्डर” के इस भाग में मैं बात करूँगा की कैसे अमुक लाल धब्बे से यह जाना जा सकता है की उसका ब्लड ग्रुप क्या है। हम जानेंगे ब्लड ग्रुप की उतपत्ति के बारे में। हम जानेंगे की किस किस टेस्ट के द्वारा किसी अमुक धब्बे से ब्लड ग्रुप की जानकारी मिल सकती है।

सन १९०० में, Karl Landstiener ने पाया की कभी कभी किसी एक अमुक व्यक्ति का खून आसानी से दुसरे व्यक्ति के खून के साथ नहीं मिल पाता है। सन १९०१ में कार्ल ने लाल खुनी कोशिका पर प्रोटीन के दो समूह A और B पाए। इन दो समूहों की रेड ब्लड सेल पर उपस्थिति और अनुपस्थिति ही ब्लड ग्रुप को निर्धारित करती है। अगर किसी व्यक्ति के खून में सिर्फ प्रोटीन A पाया जाता है तो तब उसका ब्लड ग्रुप A होगा वहीँ अगर किसी व्यक्ति के खून में सिर्फ प्रोटीन B पाया जाता है तो उसका ब्लड ग्रुप B होगा। अगर व्यक्ति के खून में दोनों ही प्रोटीन के समूह मौजूद हों तो उसका ब्लड ग्रुप AB होगा। वहीँ अगर किसी व्यक्ति के खून में दोनों ही प्रोटीन के समूह अनुपस्थित हो तो उसका ब्लड ग्रुप O होगा।

सन १९४० में, अलेक्सेंडर वेइनेर नामक वैज्ञानिक Rhesus नामक बन्दर पर जब कार्य कर रहे थे तो उन्होंने एक अलग ही प्रकार का रेड सेल प्रोटीन पाया। ८५% से अधिक जनसख्या में यह प्रोटीन पाया जाता है जिसे Rh फैक्टर के नाम से जाना जाता है। खून जिसमे Rh फैक्टर पाया जाता है, Rh+ कहलाता है वहीँ जिसमे यह फैक्टर अनुपस्थित होता है उसे Rh- के नाम से जाना जाता है।

किसी व्यक्ति का खून जब दुसरे व्यक्ति पर चढ़ाया जाता है, जिनमे दोनों के ब्लड टाइप अलग हों तो उसे Transfusion या संचारित करना कहते हैं। लेकिन इस प्रक्रिया में उस व्यक्ति की मृत्यु हो सकती है जिस पर इस प्रकार से खून से चढ़ाया जाता हो। जब तक ब्लड टाइप के बारे में जानकारी प्राप्त नहीं हुई थी तब तक इस प्रक्रिया के कारण कई मौतें होती थी। जब किसी व्यक्ति को ऐसा खून संचारित किया जाता है जिसमे दुसरे प्रकार का ब्लड प्रोटीन होता है तो शरीर में मौजूद वाइट ब्लड सेल एक एंटीबाडीज छोड़ता है जो दुसरे प्रकार के ब्लड प्रोटीन से समझौता नहीं करता है जिसके कारण मौत हो जाती है।

जब कोई बाहरी आक्रमणकारी (अर्थात दुसरे ब्लड टाइप) हमारे शरीर के इम्यून सिस्टम के जानकारी में आता है तो इस आक्रमणकारी के खिलाफ एक अटैक तैयार किया जाता है। इस प्रक्रिया को एंटीजन-एंटीबाडी प्रतिक्रिया कहते हैं। वाइट ब्लड सेल ऐसे बाहरी आक्रमणकारी को पहचानता है और उसे समाप्त करने की कोशिश करता है। ऐसे बाहरी आक्रमणकारी बैक्टीरिया, वायरस या अलग प्रोटीन वाला खून हो सकता है। हमारे शरीर में ३०० प्रोटीन के ब्लड ग्रुप और १० लाख से अधिक प्रोटीन को जोड़ने वाले साईट होते हैं। जब सामान प्रोटीन ग्रुप एक दुसरे के साथ जुड़ते हैं तो इस प्रक्रिया को Agglutination या clumping कहते हैं।

खून के टाइप को जानने के लिए तीन प्रकार के टेस्ट होते हैं। जब किसी खून को प्रोटीन A वाले खून से प्रक्रिया कराई जाती है, अगर खून में मौजूद एंटीबाडीज Agglutination या clumping प्रक्रिया करते हैं तो खून का प्रकार A होगा अन्यथा वह A प्रकार का खून नहीं होगा। ऐसा ही कुछ सभी प्रकार के प्रोटीन के साथ दोहराई जाती है जिससे खून के प्रकार का ज्ञान मिल जाता है। अगर दोनों ही प्रकार के प्रोटीन (A और B) से प्रक्रिया के बाद खून में मौजूद एंटीबाडीज कोई Agglutination या clumping प्रक्रिया नहीं दिखता है तो वह O प्रकार का खून होता है वहीँ अगर दोनों से प्रतिक्रिया प्रस्तुत करता है तो वह AB प्रकार होगा।

इस टेस्ट के लिए हमें खून के मात्रा अधिक चाहिए होती है और इसका प्रयोग अधिकतर हॉस्पिटल में किया जाता है। लेकिन फॉरेंसिक साइंस में जब फॉरेंसिक इन्वेस्टिगेटर को खून का धब्बा मिलता है तो कैसे उतनी सी मात्रा से खून का प्रकार पता किया जा सके यह एक चैलेंज बन जाता है। ऐसे में इन्वेस्टिगेटर को Absorption-Elution Technique का इस्तेमाल करना पड़ता है। जब खून सूखता है तो उसके रेड सेल टूट जाते हैं लेकिन रेड सेल में मौजूद एंटीजन उसमे मौजूद रहते हैं। रेड सेल में मौजूद एंटीजन अपने ही प्रकार के एंटीबाडीज से प्रक्रिया करते हैं और इसी नियम का इस तकनीक में इस्तेमाल होता है। एक सिमित तापमान तक धब्बे को एंटी-सीरम के साथ गरम किया जाता है जिससे खून में मौजूद एंटीबाडीज और एंटीजन का बंधन टूट जाता है। उसके बाद माइक्रोस्कोपिक परिक्षण के दौरान एंटीजन के साथ एंटीबाडीज की प्रक्रिया कराई जाती है जिससे की खून का प्रकार पता चल जाता है।

विज्ञान ने जिस तरह से प्रगति की उस ने कई आयाम खोल दिए। विज्ञान और उसकी प्रगति ने कई ऐसे टेस्ट हमें दिए जिसने की ब्लड टाइप को पता करने के लिए बहुत ही आसान रास्ता खोल दिया। खून को बनाने वाले कुछ हिस्सों में से एक पार्ट था पोलीमार्फिक एन्जायेम्स। फॉरेंसिक वैज्ञानिक को जिस एंजाइम की तलाश थी वह थी आइसो-एंजायम। एलेक्ट्रोफोरेसिस प्रोसेस के जरिये आइसो-एन्जायेम का इस्तेमाल करते हुए चार नए टेस्ट फॉरेंसिक साइंटिस्ट को मिले जिसमे उन्होंने चार अलग-अलग प्रकार आइसो-एंजायम किया। ये चार एंजायम थे - phosphoglucomutase (PGM), adenylate kinase (AK), erythrocyte acid phosphatase (EAP), esterase D (EsD) और adenosine deaminase (ADA). फिलहाल मैं यह बताना चाहूँगा की इन टेस्ट को पूर्ण करने की विधि बहुत जटिल है जिसे इस प्लेटफोर्म पर बताना फिर उसको समझाना बहुत कठिन है।

अब अगर मैं डीएनए के ऊपर बात करूँ तो मैं कहूँगा की जो मैं आपको बताऊंगा उससे अधिक आप गूगल करके इसके बारे में जान सकते हैं। डीएनए या Deoxyribonucleic acid एक आर्गेनिक पॉलीमर है जो सजीव स्पीशीज में पाया जाता है। इस पॉलीमर के तीन भाग होते हैं - (1) the phosphate backbone, (2) the deoxyribose sugar, and (3) the nitrogenous base। पहले दो चीज़ें हर सजीव स्पीशीज में उपलब्ध होती हैं वहीँ तीसरा बिंदु ही वह है सभी को एक दुसरे से अलग करता है। डीएनए टेस्ट एक काम्प्लेक्स टेस्ट के साथ साथ एक वृहद् विषय है जिसके बारे में मैं “द कलर्स ऑफ़ मर्डर” में चर्चा नहीं करूँगा लेकिन आपको इस विषय पर मेरा वृहद् लेख जल्दी ही प्राप्त होगा।

“द कलर्स ऑफ़ मर्डर” के इस भाग में इस बार इस बिंदु पर ही पड़ाव डालना चाहूँगा क्योंकि अगर लेख लंबा हो जाए तो पाठक उकता जाते हैं। अगले भाग में हम खून के धब्बों से जुड़े कुछ ऐसी बातों को जानेंगे जो फॉरेंसिक साइंस की ओर देखने की हमारी नज़र को बिलकुल बदल कर रख देगा और साथ ही साथ हमें वह ज्ञान देगा जो जिसका हम अपने जीवन में भी प्रयोग कर सकते हैं। “द कलर्स ऑफ़ मर्डर” का यह भाग आप सभी को मनोरंजक लगे इस कामना के साथ विदा लेता हूँ।

आभार
राजीव रोशन



नोट- उपरोक्त लेख पूर्णतया इन्टरनेट पर उपलब्ध कई जानकारियों को इकठ्ठा करके बनाया गया है। हालांकि लेख में बताये गए बिन्दुओं पर सत्यता में तो कोई शक नहीं लेकिन अगर कुछ जानकारी मैंने गलत पेश कर दी हो तो मुझे जरूर बताएं ताकि मैं उसमे सुधार कर सकूँ। उपरोक्त लेख को तैयार करने के लिए मैंने इन्टरनेट पर उपलब्ध कई जर्नल, रिसर्च वर्क, किताबें, ब्लॉग और वेबसाइट का इस्तेमाल किया है। लेख में कुछ रासायानिक पदार्थों के नाम बहुत जटिल हैं इसके लिए माफ़ी चाहूँगा लेकिन यह जरूरी है की रासायनिक नामों को उसी नाम से पुकारा जाए।


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