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चन्द्रगुप्त (नाटक) - लेखक - जय शंकर प्रसाद

समीक्षा - चन्द्रगुप्त (नाटक)

लेखक – जय शंकर प्रसाद



मैंने कभी भूतकाल का सफ़र नहीं किया लेकिन इतने वर्षों की दुनियादारी देखने के बाद, कई पुस्तकों को पढने के बाद, कई प्रकार के अनुभवों को प्राप्त करने के बाद, मेरा मानना है की प्राचीन समय में पुस्तकें सिर्फ ज्ञान का श्रोत हुआ करती थी। जितने भी प्रकार की पुस्तकें थी सिर्फ वह विद्या-अध्ययन एक लिए ही प्रयोग की जाती थी। उस समय कहानियों की पुस्तकों का चलन नहीं था। मेरा सोचना है की उस समय कहानियां या कथाएं जो लोगों को मनोरंजन प्रदान करती थी और साथ ही साथ सिक्षा देती थी वह लोगों द्वारा ही सुनाई जाती थी। यूँ कथाएं एवं कहानियां बांचना वर्तमान में दादियों और नानियों के पास ही रह गया, उसमे भी ऐसी दादियों और नानियों के पास ही जिन्होंने टेलीविज़न नामक भूत को अपने साथ नहीं चिपका लिया है। मेरी एक महिला मित्र ने कुछ दिनों पहले एक बात कही की अपने आप पर किसी को भी इतना हावी मत होने दो की वह आपकी मौलिकता को ही समाप्त कर दे। सत्य बात है, आज के समय के माताएं बच्चों को कहानियां नहीं सुनाती बल्कि यह बताती हैं की कौन सी मूवी इस हफ्ते रिलीज़ हुई है और उसकी रेटिंग कितनी है।

अगर मैं पुस्तकों की ओर फिर आऊँ तो देखता हूँ वर्तमान में भी पुस्तकें ज्ञान को बढ़ावा देने में सहायक है बस यह पाठक पर निर्भर करता है की वह मनोरंजन के साथ-साथ ज्ञान भी अर्जित करना चाहता है की नहीं। वर्तमान में पुस्तकों को दो भागों में बांटा जा सकता है – एक वह पुस्तक जो हमें स्कूल, कॉलेज में पढ़ाई जाती है और दूसरी जो मनोरंजन के लिए हम स्वयं ही पढना ही शुरू करते हैं। लेकिन इन मनोरंजन के लिए पढ़ी जाने वाली पुस्तकों में भी ज्ञान का भंडार छुपा होता है। हितोपदेश और पंचतंत्र जैसी कहानियां संग्रह इसलिए लिखी गयी थी की मनोरंजक कहानियों के जरिये शिक्षा दिया जा सके। हमारे कई प्राचीन एवं धार्मिक ग्रन्थ में लिखी कहानियां भी हमें मनोरंजन से भरी कहानियों के जरिये कई शिक्षाप्रद सन्देश दे जाती हैं। ऐसे ही कई मनोरंजक कहानियां पढने के दौरान मैं अलग-अलग प्रकार के ज्ञान से परिपूर्ण होता रहता हूँ।

मुझे किताबें पढने की भूख है और इस बात को मैं कभी नकार भी नहीं पाऊंगा। मुझे लगता है मैं वह दीमक हूँ जो किताबों को पढने में विश्वास रखता है। ऐसी ही भूख के मद्देनज़र पिछले दिनों एक किताब को पढने का मौका लगा जिसका नाम था – ‘चन्द्रगुप्त’। हालांकि मैंने इस पुस्तक को डेली-हंट या न्यूज़-हंट मोबाइल एप्लीकेशन द्वारा इबुक में पढ़ा जिसका मुझे अफ़सोस है लेकिन इस बात की ख़ुशी भी है की मैंने इसे पढ़ा।

‘चन्द्रगुप्त’, जय शंकर प्रसाद जी द्वारा लिखित नाटक है जो हिंदी-साहित्य के क्षेत्र में बहुत ही नामी-गिरामी पुस्तक है। यह नाटक मौर्य साम्राज्य के संस्थापक ‘चन्द्रगुप्त मौर्य’ के उत्थान की कथा नाट्य रूप में कहता है। यह नाटक ‘चन्द्रगुप्त मौर्य’ के उत्थान के साथ-साथ उस समय के महाशक्तिशाली राज्य ‘मगध’ के राजा ‘धनानंद’ के पतन की कहानी भी कहता है। यह नाटक ‘चाणक्य’ के प्रतिशोध और विश्वास की कहानी भी कहता है। यह नाटक राजनीति, कूटनीति, षड़यंत्र, घात-आघात-प्रतिघात, द्वेष, घृणा, महत्वाकांक्षा, बलिदान और राष्ट्र-प्रेम की कहानी भी कहता है। यह नाटक ग्रीक के विश्वविजेता सिकंदर या अलेक्सेंडर या अलक्षेन्द्र के लालच, कूटनीति एवं डर की कहानी भी कहता है। यह नाटक प्रेम और प्रेम के लिए दिए गए बलिदान की कहानी भी कहता है। यह नाटक त्याग और त्याग से सिद्ध हुए राष्ट्रीय एकता की कहानी भी कहता है।

‘चन्द्रगुप्त’ और ‘चाणक्य’ के ऊपर कई विदेशी और देशी लेखकों ने बहुत कुछ लिखा है। अलग-अलग प्रकार की कहानियां और उनसे निकलने वाला अलग-अलग प्रकार का निचोड़ मन में भ्रम पैदा करने के लिए काफी है। लेकिन, यह नाटक सभी पुस्तकों से कुछ भिन्न है। जो पाठक इस नाटक को पढना चाहते हैं उनके लिए महत्वपूर्ण सलाह यह की नाटक से पहले इसकी भूमिका जरूर पढ़ें। जय शंकर प्रसाद जी ने इस नाटक की भूमिका लिखने के लिए जिस प्रकार का शोध किया है वह काबिलेतारीफ है जबकि मुझे लगता है की तारीफ के लिए शब्द ही नहीं है। लगभग सभी देशी और विदेशी लेखकों के पुस्तकों से महतवपूर्ण बिन्दुओं को उठाकर उन्होंने चन्द्रगुप्त के जन्म से लेकर उसके राज्याभिषेक तक की गतिविधियों को अलग-अलग रूप से प्रस्तुत किया है। इस नाटक की भूमिका ही अपने आप में शोध-पत्र से कम नहीं है। जो इतिहास का पोस्टमॉर्टेम उन्होंने अपनी इस भूमिका में सभी देशी-विदेशी इतिहासकार द्वारा लिखित पुस्तकों का अध्ययन करके, सभी का रिफरेन्स देकर तुलना करते हुए ‘चन्द्रगुप्त’ से सम्बंधित हर प्रकार की घटना को उल्लेखित किया है, वह कहीं और आपको देखने को नहीं मिलेगा।

नाटक का प्रस्तुतीकरण एवं उसमे प्रयोग की गयी सरल हिंदी भाषा इस नाटक को पठनीय बनाती है। वहीँ नाटक के बीच-बीच में कई गीत ऐसे हैं जो आपके दिल में सदा के लिए बस जाने इच्छुक होते हैं। प्रत्येक पात्र का सौंदर्य एवं चरित्र चित्रण करने में वे सफल रहे हैं। साथ ही घटनाओं को एक ही धागे में पिरोने से यह नाटक पढने में रोमांचक हो चला है। मेरी इच्छा है की कभी भविष्य में मैं इसका नाट्य-मंचन भी देख सकूँ ताकि इसे पूरी तरह से जी सकूँ।

इस नाटक और भूमिका में सीखने के लिए बहुत कुछ है। भूमिका आपके दिमाग के ऊपर जमी सभी प्रकार के धुल को हटाने में मदद करती है जो ‘चन्द्रगुप्त एवं चाणक्य’ के ऊपर आधारित कई पुस्तकों को पढने से आ गए थे। भूमिका एक प्रकार से इस विषय पर बनाया गया वह मिश्रण है जिसे पीने के बाद या यूँ कहूँ पढने के बाद होश में आ जाते हैं। वहीँ नाटक में मनुष्य के विभिन्न रूपों को देखकर हम बहुत कुछ सीख जाते हैं। चाणक्य के कई नीतियों को हम आसानी से नाटक में देख सकते हैं और शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं। जय शंकर प्रसाद की यह रचना सही मायने में एक ज्ञानवर्धक एवं मनोरंजक पुस्तक है जिसे सभी वर्ग के पाठकों को जरूर पढना चाहिए।

लेखक परिचय (विकिपीडिया से) –
जयशंकर प्रसाद (३० जनवरी १८८९ - १४ जनवरी १९३७हिन्दी कवि, नाटकार, कथाकार, उपन्यासकार तथा निबन्धकार थे। वे हिन्दी के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। उन्होंने हिंदी काव्य में छायावाद की स्थापना की जिसके द्वारा खड़ी बोली के काव्य में कमनीय माधुर्य की रससिद्ध धारा प्रवाहित हुई और वह काव्य की सिद्ध भाषा बन गई।
आधुनिक हिंदी साहित्य के इतिहास में इनके कृतित्व का गौरव अक्षुण्ण है। वे एक युगप्रवर्तक लेखक थे जिन्होंने एक ही साथ कविता, नाटक, कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में हिंदी को गौरव करने लायक कृतियाँ दीं। कवि के रूप में वे निराला, पन्त, महादेवी के साथ छायावाद के चौथे स्तंभ के रूप में प्रतिष्ठित हुए है;नाटक लेखन में भारतेंदु के बाद वे एक अलग धारा बहाने वाले युगप्रवर्तक नाटककार रहे जिनके नाटक आज भी पाठक चाव से पढते हैं। इसके अलावा कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में भी उन्होंने कई यादगार कृतियाँ दीं। विविध रचनाओं के माध्यम से मानवीय करूणा और भारतीय मनीषा के अनेकानेक गौरवपूर्ण पक्षों का उद्घाटन। ४८ वर्षो के छोटे से जीवन में कविताकहानीनाटकउपन्यास और आलोचनात्मक  निबंध आदि विभिन्न विधाओं में रचनाएं की।
उन्हें 'कामायनी' पर मंगलाप्रसाद पारितोषिक प्राप्त हुआ था। उन्होंने जीवन में कभी साहित्य को अर्जन का माध्यम नहीं बनाया, अपितु वे साधना समझकर ही साहित्य की रचना करते रहे। कुल मिलाकर ऐसी विविध प्रतिभा का साहित्यकार हिंदी में कम ही मिलेगा जिसने साहित्य के सभी अंगों को अपनी कृतियों से समृद्ध किया हो।



आशा है इस नाटक के ऊपर मेरे द्वारा लिखा गया यह लेख आपको पसंद आया होगा और साथ ही पुस्तक पढने को प्रोत्साहित एवं आकर्षित करेगा। अगर ऐसा हुआ तो मैं स्वयं को धन्य मानूंगा। मेरी कोशिश रही है की मैं निष्पक्ष इस नाटक के बारे में अपने विचार आप सभी के सामने प्रस्तुत कर सकूँ।

आप सभी इस पुस्तक को इबुक में, डेली-हंट या न्यूज़-हंट मोबाइल एप्लीकेशन पर मुफ्त पढ़ सकते हैं, लिंक नीचे दे रहा हूँ –



आभार

राजीव रोशन 

Comments

  1. पूरा पोस्ट पढ़ा भाई
    गांव की याद आ गयी

    ReplyDelete
  2. आप बेहटरीन लिखते हो

    ReplyDelete

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