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वन वे स्ट्रीट (लेखक - सुरेन्द्र मोहन पाठक)

वन वे स्ट्रीट (सुधीर कोहली सीरीज #13)

समीक्षा 

*स्पॉयलर अलर्ट *






एक लम्बे अंतराल के बाद ऐसा कुछ पढने को मिला जो पहले नहीं पढ़ा था। मुझे पाठक साहब को पढ़ते पढ़ते काफी अरसा हो गया लेकिन इतने वक़्त में मुझे जितना दीवाना सुधीर सीरीज ने बनाया वह काम कोई और नहीं कर सका। सुधीर कोहली एक प्राइवेट डिटेक्टिव है, लेकिन एक इंसान, एक साधारण इंसान जो हम आज के समाज में देखते हैं वह सुधीर कोहली जैसा ही होता है। भ्रमित मत होइये, समझाता हूँ। एक साधारण इंसान को जब हम देखते हैं तो हमारे मन में उसके लिए कई प्रकार के भाव आ जाते हैं, जैसे की – यह चेहरे से तो बहुत भोला है लेकिन होगा नहीं, बहुत बड़ा धोखेबाज होगा, अरे उस स्त्री को कैसे देख रहा है, ओह इसे धन का कितना लालच है की पानी वाले को एक रुपया ज्यादा भी नहीं देना चाहता आदि। एक मनुष्य के अन्दर की जितनी खामियां हमारे पूर्वज हमें बता गए हैं वह सभी खामी, वह सभी अवगुण, वर्तमान समय में हर मनुष्य के अन्दर विद्यमान हैं। अगर आपको लगता है की आप वैसे नहीं हैं तो आप खुद को मुर्ख बना रहे हैं। सुधीर कोहली भी ऐसा ही इंसान है इसलिए उसके किरदारों वाले उपन्यास में हम सहज ही उसके स्थान पर खुद को रख कर पूरी कहानी का सञ्चालन प्रारंभ कर देते हैं। सुधीर सीरीज की यह खासियत हमेशा उसके प्रशसंकों पर हावी रही है और उसमे से एक प्रशंसक मैं भी हूँ।

सुधीर सीरीज में अभी तक २१ उपन्यास लिखे गए हैं और मेरी जानकारी के अनुसार मैंने अक्टूबर-२०१५ से पहले तक २० उपन्यास पढ़ चूका था। बस, एक उपन्यास ऐसा था, जिसे मैंने पढ़ा नहीं था। पढ़ा क्या, मैंने तो अपने हाथों में लेकर उसे देखा भी नहीं था। लेकिन इस बार लखनऊ में जब पंखों की बैठकी हुई तो मेरे एक मेहरबान मित्र के बदौलत यह उपन्यास को पढने को आखिरकार मिल ही गया। बताना चाहूँगा की ५ अक्टूबर से इस उपन्यास को मैंने पढना शुरू किया और २१ अक्टूबर को समाप्त किया। देखिये, आजकल मेरी जिन्दगी में उपन्यासों के अलावा भी कई व्यस्ततायें और मैं आजकल उन्हीं कर्मों में व्यस्त रहता हूँ। इसलिए रात को ऑफिस से घर आने के पश्चात ही उपन्यास पढने को टाइम देता हूँ। १०-१५ मिनट या अधिक से अधिक आधा घंटा उपन्यास पढ़ा और फिर सो गया। मेरी एक आदत है जब तक मैं पुस्तक के चार पन्ने न पढ़ लूँ तब तक नींद नहीं आती है।

ओह! माफ़ी चाहूँगा इतनी बाते बोल दी लेकिन उपन्यास का नाम नहीं बताया। उपन्यास का नाम है – ‘वन वे स्ट्रीट”। यह उपन्यास सन १९९८ में पहली बार प्रकाशित हुई थी। सुधीर सीरीज के उपन्यासों की श्रेणी में यह उपन्यास तेरहवें स्थान पर आता है वहीँ सर सुरेन्द्र मोहन पाठक जी के उपन्यासों की श्रेणी में २११ वां स्थान आता है। यह उपन्यास जो मैंने पढ़ा है, वह पल्प पेपर पर मनोज पब्लिकेशन द्वारा छापा गया है। इस उपन्यास में पृष्ठों की संख्या २५६ है, वहीँ प्रत्येक पृष्ठ पर औसतन ३४ लाइन हैं। उपन्यास का फ्रंट कवर और बेक कवर मोटे पल्प पेपर पर ही रंगीन में छापा है जिसमे की बेक कवर में पाठक साहब की तस्वीर के साथ इस उपन्यास से सम्बंधित एक पंक्ति है जो आप सभी के सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ:-

“हर कोई जनता था कि वो एक ऐसा रास्ता था जिसके सिरे पर निश्चित मौत खड़ी थी, फिर भी शहर में ऐसे लोगों की कमीं नहीं थी जो निश्चित मौत से खौफज़दा होने की जगह उस एक तरफा रास्ते पर ख़ुशी ख़ुशी कदम रखते थे।
ऐसे ही दीवानों की वजह से उन लोगों का व्यापार चलता था जो की नारकोटिक्स ट्रेड का कण्ट्रोल हासिल करने के लिए एक दुसरे के खून के प्यासे थे।”

जैसा की उपरोक्त पंक्तियों से पता चलता है की “वन वे स्ट्रीट” का केंद्र बिंदु नारकोटिक्स ट्रेड और ड्रग्स स्मगलिंग है। चूँकि इस उपन्यास का केंद्रीय किरदार सुधीर कोहली है तो यह हमें सोच लेना चाहिए की कहानी की पृष्ठभूमि दिल्ली शहर की होगी। भारत की राजधानी दिल्ली के लिए यह सोचना कि यहाँ ड्रग्स या नारकोटिक्स का भी कारोबार हो सकता है, थोडा अजीब लगता है।  लेकिन जब हर इन्सान के अन्दर रावण बसा हो तो क्या नहीं हो सकता, इस पर प्रश्न चिन्ह अपने आप लग जाता है।

प्राइवेट डिटेक्टिव के बारे में एक बात जाने तो हमें पता चलता है की यह या तो एक व्यक्ति द्वारा संचालित होता है यह एक पूरी संस्था द्वारा। जब प्राइवेट डिटेक्टिव की संस्था की किसी केस पर कार्य करती है तो उसके पास इतने लोग होते हैं जो केस के कई बिन्दुओं पर कार्य करके जानकारी इकठ्ठा करते हैं और प्राइवेट डिटेक्टिव को प्रस्तुत करते हैं। वहीँ जब यह एक व्यक्ति द्वारा संचालित होता है तो उसमे प्राइवेट डिटेक्टिव को ही फील्ड में उतरकर केस से सम्बंधित सभी बातों को जानना पड़ता है। कभी-कभी ऐसा भी होता है की वह इन जानकारियों के लिए किसी ख़ास व्यक्ति को हायर करता है। ऐसे व्यक्तियों को प्राइवेट डिटेक्टिव का ‘लेग मैन’ कहा जाता है।

सुधीर कोहली, दिल्ली शहर में एक प्रतिष्ठित डिटेक्टिव एजेंसी ‘यूनिवर्सल इन्वेस्टीगेशन’ चलाता है जिसका खीर-पीर-बावर्ची सब वह स्वयं है। ऐसे में कई केसेज में वह मदद के लिए अपने लेग मैन ‘हरीश पाण्डेय’ की मदद लेता है। ‘हरीश पाण्डेय’, फौज से रिटायर एक ५० वर्षीय व्यक्ति है जो अपनी आजीविका के लिए छोटे-मोटे काम करता है और कभी-कभी सुधीर के इसरार पर उसके लिए ‘लेग मैन’ का कार्य भी करता है।

सुधीर कोहली के पास प्रिया सिब्बल नामक एक महिला एक केस लेकर पहुँचती है जिसमे सुधीर कोहली को उसके पति के पीछे लग कर यह पता करना था की कहीं उसका किसी से अनैतिक सम्बन्ध तो नहीं। सुधीर इस काम को ले तो लेता है लेकिन पीछा करने वाले काम के लिए वह अपने ‘लेग मैन’ हरीश पाण्डेय को लगाता है। एक हफ्ते बाद पुलिस के जरिये सुधीर को खबर मिलती है की ‘हरीश पाण्डेय’ की लाश मिली है। ऑटोप्सी और पोस्टमॉर्टेम से पता चलता है की हरीश पाण्डेय के होठों पर जो लिपस्टिक लगी है उसमे एक ख़ास प्रकार का ड्रग पाया गया है। सुधीर, इसी ड्रग वाले ‘पॉइंट ऑफ़ व्यू’ से तहकीकात शुरू करता है।

यहाँ इस बिंदु पर गौर करना जरूरी है कि सुधीर ‘हरीश पाण्डेय’ के क़त्ल की तफ्तीश क्यूँ करता है, जबकि पुलिस तो उस केस की तफ्तीश तो कर ही रही थी। क्या सुधीर को दिल्ली पुलिस की काबिलियत पर कोई शक था? सुधीर हरीश पाण्डेय के क़त्ल को व्यक्तिगत रूप से लेता है क्यूंकि हरीश पाण्डेय की जब हत्या हुई उस वक़्त वह ‘यूनिवर्सल इन्वेस्टीगेशन’ के एक केस पर काम कर रहा था। आप सभी ने देखा ही होगा पुलिस जिस प्रकार से अपने सहयोगियों के साथ हुए किसी बुरे के लिए बुरे के घर तक पहुँच कर दिखाती है वैसी ही कुछ मानसिकता इस केस में सुधीर की होती है। सुधीर को इंस्पेक्टर देवेन्द्र यादव से पता लगता है की दिल्ली से नारकोटिक्स ट्रेड का खात्मा हो चूका है। अब कोई ऐसा सुरमा नहीं है जो इस ट्रेड में कदम रखने की हिम्मत करेगा। वहीँ वह कुछ लोगों के बारे में सुधीर को बताता है जो की इस ट्रेड में कदम रख सकते थे।

सुधीर अपनी तफ्तीश को पूरा करने के लिए दिल्ली के नारकोटिक्स ट्रेड में घुसने की कोशिश करता है। दोस्तों, ड्रग्स का धंधा एक ऐसा धंधा है जिसमे अगर कोई उतर गया तो वह इस दलदल से बाहर कभी निकल नहीं पायेगा। पाठक साहब के लिखे कई उपन्यासों को पढ़ कर मेरा यह मूल्यांकन है की ड्रग्स के इस गैरकानूनी ट्रेड को करने वाले सूरत और रुतबे से बहुत ही संभ्रात व्यक्ति होते हैं। वे समाज में इस ज़हर को फैलाने के लिए एक मुखौटा ओढ़ लेते हैं। लेकिन इस ट्रेड के लोगों को कभी यह पसंद नहीं की कोई इनके काम में दखलंदाजी करे। अगर ऐसा होता है तो उसका अंजाम बहुत बुरा होता है। सुधीर ने जब इस ट्रेड में घुस-पैठ करके हरीश पाण्डेय के क़त्ल की तहकीकात करनी शुरू की तो कदम-कदम पर उसका मौत से हुआ। वह ऐसे लंका में घुस चूका था जहाँ के सभी राक्षस अपने आप में रावण से कम नहीं थे।

ऐसे में हमारे या वे जो यह लेख पढ़ रहे हैं, उनके मन में कई प्रश्न उठते हैं जिनके जवाब तभी मिल सकते हैं जब यह उपन्यास पढ़ा जाए। पहला प्रश्न तो यही है की – क्या सुधीर हरीश पाण्डेय के कातिलों को खोज निकालेगा? वैसे यह बात कई लोगों को बुरी लग सकती है लेकिन औसतन देखें तो अधिकतर केसेज में सुधीर ने यह कारनामा कर दिखाया है। दूसरा सवाल यह है की – अगर सुधीर हरीश पाण्डेय के कातिलों को खोज निकालता है तो क्या सजा वह अपने हाथों देगा या वह कानून के शरण में जाएगा? क्यूंकि कुछ भी हो, सुधीर किसी फीस के लिए तो हरीश पाण्डेय के कातिलों को तलाश नहीं कर रहा है, वह तो प्रतिशोध के मदमस्त हाथी की तरह उस गुफा में घुस रहा है जहाँ से निकलना तभी संभव हो जब शरीर बेजान हो। तीसरा सवाल यह है की – क्या सुधीर दिल्ली के नारकोटिक्स ट्रेड में सेंध लगा कर घुस पायेगा? इसमें मेरे हिसाब से कोई दो राय नहीं, जिस तरह से उपरोक्त पंक्तियाँ यह दर्शाती है की वह एक दक्ष जासूस है तो निःसंदेह वह कर पायेगा। चौथा सवाल यह है कि – क्या सुधीर नारकोटिक्स ट्रेड के धुरंधरों से टक्कर ले पायेगा? तो मैं इस बात पर जवाब दूंगा की इसके लिए उपन्यास पढना जरूरी है।

उपन्यास की कहानी की तरफ आते हैं – कहानी जिस समय अंतराल में लिखी गयी पता नहीं उस समय दिल्ली में ऐसा नारकोटिक्स ट्रेंड था की नहीं। यही वह खामी है जो पढने वालों के गले नहीं उतरती है। वहीँ अगर इस बिंदु को दरकिनार करके पढ़ा जाए तो उपन्यास मर्डर मिस्ट्री के स्थान पर एक थ्रिलर उपन्यास है। भले ही सुधीर एक क़त्ल की तफ्तीश को अंजाम देता है लेकिन फिर भी मर्डर मिस्ट्री के कई एलेमेंट्स इसमें आपको मिसिंग नज़र आयेंगे। जिस प्रकार के दुसरे सुधीर सीरीज के उपन्यास हैं वैसा मर्डर मिस्ट्री इस में देखने को नहीं मिलता है। कहानी, एक हिसाब से सुदृढ़ और शसक्त है लेकिन फिर भी कई स्थानों पर कमजोर नज़र आती है। किरदारों की बात करें तो – कहानी के किरदार वास्तविकता के नज़दीक नज़र आते हैं। सुधीर और रजनी की चुहल बाजी जो इस सीरीज का स्टार-अट्रैक्शन होता है इसमें भी पढने को मिलता है। लेकिन सुधीर इस उपन्यास में दुसरे उपन्यासों की तुलना अधिक संजीदा नज़र आता है। रहस्य और रोमांच का कॉकटेल प्रस्तुत करने में हस्त-सिद्ध पाठक साहब इस उपन्यास में भी कमाल कर जाते हैं। मैं अगर अपना मूल्यांकन करूँ तो यह उपन्यास नए पाठकों के लिए एक बार तो पठनीय है लेकिन सर सुरेन्द्र मोहन पाठक जी कट्टर प्रशंसक इसे दोबारा –तिबारा पढने से भी नहीं चुकेंगे। उपन्यास जिस प्रकार से दिल्ली के नारकोटिक्स ट्रेड का खाका खींचती है वह मुझ जैसे दिल्ली निवासी को भयभीत भी कर जाती है।

सुधीर सीरीज के उपन्यासों की एक खास खासियत रही है – सुधीर के दार्शनिक संवाद। सुधीर के दार्शनिक संवाद जीवन को सटीक नज़रिए से देखने का सलीका सिखाते हैं। एक ऐसा नजरिया जिसे हम अपने अन्तःमन में रखते तो हैं लेकिन कभी उसे शब्द रूप नहीं दे पाए लेकिन सुधीर का दर्शन-शास्त्र हमारा वह काम स्वयं कर जाता है। प्रस्तुत करता हूँ इस उपन्यास के कुछ ख़ास सुधीर दर्शन-शास्त्र और आशा करता हूँ जितना आप उपन्यास को पसंद करेंगे उतना ही इन दार्शनिक वाक्यों को भी।
  •  टैक्स ठीक भरो तो हालत यतीमखाने जाने जैसी हो जाती है, गलत भरो तो जेल जाने जैसी हो जाती है।
  • सरकार मर्द की आमदनी पर टैक्स लगाती है, जबकि वो उसकी लार टपकाती नियत पर, उसके नादीदेपन पर टैक्स लगा सके तो कहीं ज्यादा रेवेन्यू अर्जित कर सकती है। ऐसा हो जाए तो सरकार को टैक्स कलेक्टर भी न रखने पड़े, परीचेहरा दोशीजाये ऐसे कामों को सरकार के लिए फ्री में अंजाम दे सकती हैं।
  • खुदा ने जब औरत बनायी तो उसने उसमें हर खूबी पैदा की – उसे तौबशिकन जिस्म दिया, दिलफरेब मुस्कराहट डी, खूबसूरत चेहरा दिया, रेशम से बाल दिए, हिरणी सी आँखे दी, गुलाब की पंखुड़ियों जैसे होंठ दिए लेकिन फिर उसे कैंची जैसी जुबान दी और खुद ही अपने तमाम किये धरे पर पानी फेर दिया।
  •  बड़े शहरों में पार्किंग की समस्या इतनी गंभीर हो गयी है कि अब तो जहाँ ‘नो पार्किंग’ लिखा होता है, वहाँ भी पार्किंग की जगह नहीं मिलती।
  • उम्रदराज़ आदमी अचार की तरह होता है – मीठा, खट्टा अरु तीखा। 
  •  मौत तो जिन्दगी का आखिरी अंजाम है, मौत से डरना अहमकों का काम है। 
  •  जिन्दगी और मौत के सौदे नहीं होते। अलबत्ता जिन्दगी के ख्वाब खरीदे जा सकते हैं और मौत के अंदेशे बेचे जा सकते हैं।
  • सर्दियों के मौसम में मर्द कपडे ज्यादा पहनते हैं ताकि वो गरमाए रहें। उसी मौसम में औरतें भी एन इसलिए कपडे कम पहनती हैं।
  • मुर्गाबी खुद आकर सिर पर बैठ जाए तो कौन मुर्गाबी का शिकार करने जाएगा। मछली आपके पानी में बंसी डालने से पहले खुद ही आपकी नाव में आ कूदे तो कौन मछली मारने जाएगा। लिहाजा मजा उसी चीज़ के पीछे भागने में है जो आसानी से काबू में नहीं आती। औरत खुद ही मर्द के गले पड़े तो मर्द की ईगो को तुष्टि नहीं होती। राजी से रज़ा दिखाई तो क्या तीर मारा! न न करती को फांसा, तभी तो बहादुरी है।
  • पुरुष की पहचान उसके कर्मों से बनती है, स्त्री की उसके कुकर्मों से।



आशा है आप सभी को इस उपन्यास की समीक्षा पसंद आई होगी। अगर कोई खामी और कमी नज़र आये तो बिहिचक बताइयेगा। आप सभी के विचारों का बेसब्री से इंतज़ार रहेगा।

आभार

राजीव रोशन 

Comments

  1. You read surendra mohan pathak book ...nd you think you are reading literature... What a joke ... Hahahahaha

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