A Diary of SMPian - 2
अप्रैल-जून, सन २००३ –
मेरी डायरी के पिछले पन्ने में आपने पढ़ा कि कैसे मैंने सर सुरेन्द्र
मोहन पाठक जी का पहला उपन्यास पढ़ा।
“करमजले” उपन्यास – जो कि विमल सीरीज के उपन्यास “असफल अभियान” और
‘खाली वार’ का सामूहिक संस्करण था और इस बात की जानकारी उस वक़्त मुझे बिलकुल नहीं
थी। सच बात यह थी की मुझे सर सुरेन्द्र मोहन पाठक जी की बारे में ही कोई जानकारी
ही नहीं थी। खैर कैसे मुझे इस बारे में जानकारी मिली इसके बारे में आगे के पन्नों
में बात करूँगा।
“करमजले” उपन्यास के थ्रिल और एडवेंचर ने मुझे इतना मुतमुइन किया कि
मैंने उसे दुबारा पढना शुरू कर दिया था। इस उपन्यास का क्लाइमेक्स इतना शानदार था
की पहली बार पढने के दौरान ही मेरे आँखों में आंसू आ गए थे। मुझे इस बात की कोई
जानकारी नहीं थी की विमल कौन था और सुनील कौन था और दोनों कि क्या खासियत थी।
लेकिन उस उपन्यास से मुझे यह जरूर पता चल गया था की विमल एक ऐसा अपराधी है जिसने
मजबूरन ही अपराधियों का जामा पहन लिया था। वहीँ सुनील की ईमानदारी के बारे में
मुझे सुनील-रमाकांत के पहले संवाद से पता चल गया था। लेकिन इस उपन्यास का
क्लाइमेक्स – आय-हाय – अविस्मरणीय था। सुनील की उस इंसान के लिए दरियादिली दिखाना
जो की एक कुख्यात हत्यारा और इश्तहारी मुजरिम था, देखते बनता था। अंतिम प्रसंग में
सुनील ने जो कर दिखाया था और उसके साथ-साथ रमाकांत ने जो उसकी सहायता की थी, वो
गज़ब था। सुनील के खासमखास लोगों ने विमल को बचाने के लिए जो जान लगा दी और पुलिस
को कानों-कान खबर नहीं लगने दी – इससे बेहतर अंत कभी नहीं पढ़ा था।
मैं कई बार इस उपन्यास की तारीफ में कसीदे पढ़ चूका हूँ और पढता भी
रहूँगा। इस उपन्यास को पढने के बाद मैंने उसी दूकान से कई उपन्यास पढ़ डाले। मेरा
११ वीं कक्षा में एडमिशन से पहले तक, मैंने “काला कारनामा”, “पीला गुलाब”, “पुरे
चाँद की रात”, “भक्षक”, “वहशी” आदि कई उपन्यास पढ़ डाले थे। ये मुख्यतः
मर्डर-मिस्ट्री थे, जिसने मुझे इस लेखक को पढने के लिए बहुत ही ज्यादा प्रेरित
किया। “काला कारनामा” की “हाउ डन इट” और “वहशी” के कोर्ट-रूम ड्रामा ने मुझे सर
सुरेन्द्र मोहन पाठक जी के लेखनी का कायल बना दिया।
इन उपन्यासों में छपे लेखकीय ने इस लेखक के बारे में जानकारी दी। इनके
लेखकीय पढ़ कर मुझे एहसास हुआ कि मैं अकेला इस दुनिया में नहीं हूँ जो ऐसे उपन्यास
पढता था। सुमोपा के प्रशंसकों के पत्रों और उन पर दिए गए पाठक साहब के
प्रतिक्रियाओं ने मुझ जैसे अवचेतन मन वाले युवक के मन में इस लेखक की कृतियों को
पढने का कीड़ा बना दिया।
ये पुरे तीन महीने मैंने उस दूकान पर मौजूद पाठक साहब द्वारा लिखे गए
लगभग सभी उपन्यास पढ़ डाले। मेरे अन्दर मर्डर मिस्ट्री और थ्रिलर नोवेल्स पढने का
जुनून छा रहा था। पुरे तीन महीने, जब भी, जिस दिन भी, मैं पाठक साहब के नावेल लेकर
बैठ जाता था तो उसे खत्म किये बगैर खाना-पीना नहीं खाता था। कुछ ऐसा जादू कर दिया
था मुझ पर पाठक साहब के उपन्यास ने।
लेकिन, अब चूँकि मैंने साइंस साइड से ११ वीं कक्षा में एडमिशन ले लिया
था इसलिए मुझे मजबूरन उपन्यासों को पढने को लेकर जो आकर्षण पैदा हुआ था उसे विराम
देना पड़ा। पुरे दो साल मैंने मन लगाकर पढ़ाई की। पहले स्कूल जाना फिर वहां से
कोचिंग क्लासेज – यही सिलसिला दो साल तक चलता रहा। ऐसा लगा था की मैं इंसान नहीं
एक मशीन हूँ जिसे एक कमांड देकर छोड़ दिया गया है।
2 साल बाद फिर से मेरे पास 2-3 महीने का ऐसा वक़्त आया जिसमे मैंने सर
सुरेन्द्र मोहन पाठक जी के कई उपन्यासों को दोहराया और कुछ नए पढ़ डाले। अगले पन्ने
में, मैं आपको अपने भूतकाल के कुछ ऐसे पन्नों से रूबरू कराऊंगा जिसमे आप यह जान
पायेंगे की फिक्शन पढने की तरफ मेरी ललक कब और कैसे बढ़ी।
तब तक आप सभी इंतज़ार कीजिये।
आभार
राजीव रोशन
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