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इश्कियापा - by - पंकज दुबे

समीक्षा - इश्कियापा (उपन्यास)
लेखक – पंकज दुबे
*Spoiler Alert*



इश्क, मोहब्बत, प्रेम और चाहत उस भ्रष्टाचार की तरह है जो इंसान के आँखों पर पर्दा डाल देता है जिसके बाद इंसान अपने लक्ष्य की तरफ से मुहं मोड़ लेता है। कहते हैं की प्यार अँधा होता है, बात बिलकुल सौ टके की है और सही भी है। इश्क में डूबने के बाद इंसान को दुसरे के सिर्फ खूबियाँ ही खूबियाँ नज़र आती हैं। और अगर गलती से, गौर फरमाइयेगा, गलती से कुछ खामियां नज़र आ गयी तो उसे ढकने की कोशिश भी बहुत मोहब्बत के साथ करता है।

सर सुरेन्द्र मोहन पाठक के एक किरदार सुधीर कोहली द्वारा बोला गया एक संवाद है :-

“आदमी का प्यार में पड़ना और सीढियों से गिरना एक ही बात है; दोनों खतरनाक एक्सीडेंट हैं जिन से हर हाल में बचने की कोशिश करनी चाहिए।”

इस संवाद को “इश्कियापा” का मुख्य किरदार लल्लन झा चरितार्थ करता है। “इश्कियापा” एक सामान्य सी प्रेम कहानी है ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्यूंकि ऐसी प्रेम कहानियां कई बार हिंदी फिल्मों में देख चुके हैं। एक गरीब घर लड़का और एक अमीर घर लडकी एक दुसरे से मोहब्बत कर बैठते हैं जिसमे खलनायक की तरह लड़की का धनवान बाप कूद पड़ता है, ऐसे में लड़का-लड़की अपनी प्रेम कहानी को सफल बनाने के लिए विद्रोह की हर सीमा पार कर देते हैं। लेकिन “इश्कियापा”, कई एक्स, वाई और जेड ग्रेडिएंट्स के साथ आपको इस साधारण सी प्रेम कहानी को एक असाधारण पुस्तक मानने पर मजबूर करता है।

कहानी के केंद्र बिंदु में दो किरदार हैं – लल्लन झा और स्वीटी पाण्डेय और कहानी की पृष्ठभूमि लिखी गयी है बिहार की राजधानी पटना में। लल्लन झा, अपना खानदानी काम ड्राइविंग स्कूल चलाता है और साथ ही साथ वह पटना के एक मात्र मैनेजमेंट संस्थान से एम्.बी.ए. भी कर रहा है। वहीँ स्वीटी पाण्डेय, उन्मुक्त ख्यालों वाली लड़की है जो ब्रिटनी स्पीयर्स की तरह एक पॉप दीवा बनाना चाहती है। लेकिन स्वीटी पाण्डेय के इस ख्वाब को हकीकत का जामा पहनाने की बीच खड़े हैं उसके पिता एम्.एल.ए. काली पाण्डेय। जो किडनेपिंग के किंगपिन या यूँ कहूँ के पटना के किडनेपिंग डॉन से किनारा करके राजनीती कर रहे हैं। लेकिन भूतकाल से इस तरह परेशान हैं की अपनी बेटी को आज़ादी नहीं देना चाहते हैं। ऐसे में काली पाण्डेय के आर्डर पर लल्लन झा स्वीटी पाण्डेय को ड्राइविंग सिखाना शुरू करता है और फिर शुरू होता है इश्क मोहब्बत का वह खेल जिसका अंजाम हमेशा से नामालूम होता है।

कहानी में लव ट्रायंगल के रूप में लल्लन झा की दोस्त मीतू है जो लल्लन को अधिकृत पति मानती है। ऐसा इसलिए क्यूंकि मीतू के पिता ने बचपन में लल्लन के किडनैपिंग हो जाने पर फिरौती की रकम में उसके पिता की सहायता की थी। कमाल की बात यह है की लल्लन की किडनैपिंग काली पाण्डेय नी किया था और उस फिरौती में छूट देकर उसने ४० वर्षों के लिए लल्लन को अपना गुलाम बना लिया था। अर्थात काली पाण्डेय के कई गैरकानूनी कामों में लल्लन को मजबूरन सहायता करना पड़ता था जिसके कारण लल्लन काली पाण्डेय से नफरत करता है। लेकिन कब तक वह इस अन्याय को सहता रहेगा? क्या वह अपने ऊपर थोपे गए जबरदस्ती की दुल्हन से शादी कर पायेगा?

यहाँ हम देख सकते हैं की बिहार के किडनैपिंग इंडस्ट्री को लेखक ने किस तरह से खाका खींचा है। लल्लन के परिवार को पता है की किडनैपिंग किसने किया लेकिन उनकी मजाल नहीं की वह एक शब्द भी उसके खिलाफ कह सके। मैं स्वयं बिहार से हूँ और हमारे यहाँ कई वर्षों पहले एक कथा मशहूर थी की डकैत या किडनैपर इतने शक्तिशाली होते थे मां के आँचल से बच्चे को लेकर जाते थे फिर फिरौती मांगते थे। यह उस बिहार का हाल था जहाँ कभी नालंदा विश्वविद्यालय हुआ करती थी लेकिन वर्तमान समय में इसी बिहार से गुंडे बदमाश भी निकलते हैं। यह उस पटना की कहानी है जिसे पहले कभी पाटलिपुत्र कहा जाता था जहां से चाणक्य का अनुशरण करते हुए मौर्य साम्राज्य की स्थापना की गयी थी। जहाँ से अशोक ने एक-राष्ट्र का स्वप्न साकार करने की घोषणा की थी।

बिहार की किडनैपिंग इंडस्ट्री एक समय में बहुत फली फूली और इसका उदाहरण देने की मैं कोई हिमाकत भी नहीं कर सकता। लेकिन बिहार ने जिस तरह से इस प्रकार के अलग ही मष्तिष्क वाले गुंडे और बदमाशों को जन्म दिया वैसे ही उन्होंने कहीं अलग प्रकार के ऐसे इंसानों को भी जन्म दिया जिन्होंने अपने मष्तिष्क के बल पर कई बड़े मुकाम हासिल किये और करते जा रहे हैं। लल्लन झा भी एक ऐसे ही मष्तिष्क वाला युवक था जिसे अपना बिज़नस शुरू करना था। उसे भी टाटा या अम्बानी की श्रेणी में आना था। उसने एक ऐसा बिज़नस प्लान बनाया जो उसके हिसाब से मार्किट में कामयाब होने वाला था। उसके प्लान का नाम था – “किडनैपिंग इंश्योरेंस”। लल्लन झा ने बिहार के किडनैपिंग इंडस्ट्री के अनुसार ही इस प्लान को बनाया था लेकिन उसने जहाँ भी इस बिज़नस में इन्वेस्ट करने के लिए हाथ फैलाए वहां से उसे दुत्कार ही हासिल हुई। लेकिन उम्मीद है तो इंसान के सब कुछ है, इस फलसफे के साथ, यह जानना बहुत जरूरी है की क्या लल्लन यह ड्रीम बिज़नस शुरू कर पायेगा।

जिस प्रकार से के बिहार के राजनीति में दो बड़े दिग्गज एक साथ आकर गठजोड़ और तोड़फोड़ की राजनीति कर रहे हैं वैसे ही इस कहानी के दो किरदार काली पाण्डेय और राधेश्याम यादव कभी किडनैपिंग इंडस्ट्री में एक साथ काम किया करते थे। लेकिन आगे जाकर दोनों ही एक दुसरे के दुश्मन बन जाते हैं। जहाँ काली पाण्डेय मौजूदा एम्.एल.ए है और आने वाले चुनाव के लिए हर प्रकार की निति इस्तेमाल कर रहा है वहीँ राधेश्याम यादव भी जातिगत वोटों के जरिये इस चुनाव मैदान में कूद पड़ता है। क्या यह दुश्मनी राजनीती के मैदान में बस वोटों की गिनती पर जाकर ख़त्म होगी या इसका अंजाम कुछ अलग होगा।

तो जैसा की मैंने कहा की कहानी में आपको कई प्रकार के ग्रेडिएंट्स मिलेंगे जो आपको इससे बाँध कर रखेंगे। लेखक ने बिहार को और उसके कई अवगुणों को चुन कर इस कहानी की रचना की है। चाहे वह राजनीती हो या अपराध, चाहे वह जाति व्यवस्था हो या विवाह की अव्यवस्था, चाहे वह गरीब और अमीर की दूरी हो या बिहार के युवक युवतियों पर पड़ती पश्चिमी छाप। लेखक ने इस कहानी में ख्वाब और महत्वाकांक्षा के बीच के उस दरार को दिखाया है जिसे कोई भी देखना पसंद नहीं करता। किसी इंसान का ख्वाब कब महत्वाकांक्षा में तब्दील हो जाता है उसे खबर ही मिलती। महत्वाकांक्षा और ख्वाब में कौन इस उपन्यास में अपनी जीत दर्ज करा पायेगा?

लेखक ने उपन्यास में साधारण भाषा का इस्तेमाल किया है जिससे की कहानी मनोरंजक हो चली है। वैसे लेखक ने इसमें हिंदी, अंग्रेजी और बिहार के उस स्थानीय भाषा का प्रयोग किया है जो अमूमन बिहार से दिल्ली या पंजाब आये उन व्यक्तियों से सुन सकते हैं जिनमे से किसी को इंजिनियर बनाना होता है या किसी को दो जून की रोटी चाहिए होती है। लेखक ने पटना शहर का अच्छा चित्रण किया है जिससे की कहानी में जीवन्तता नज़र आती है। कहानी के किरदार वास्तविकता से गढ़े हुए नज़र आते हैं जिसके कारण हम सहज ही उसके साथ स्वयं को बाँध लेते हैं। चाहे वह लल्लन का किरदार हो या काली पाण्डेय का – दोनों ही अपने आप शशक्त नज़र आते हैं। महिला किरदारों में स्वीटी पाण्डेय, उसकी सहेली सौम्या और मीतू, बिहार के नवयुवतियों की अलग-अलग छाप आप पर छोड़ते नज़र आते हैं।

पुस्तक का सबसे मजेदार हिस्सा वह है जो कहानी का हिस्सा ही नहीं है। लेखक जब उपन्यास के पहले पन्ने पर अपने बारे में जानकारी देता है तो बरबस आपके होठों पर मुस्कराहट आ जाती है और आप इस कहानी को पढने पर मजबूर हो जाते हैं। वहीँ उपन्यास के अंत में जब लेखक क्रेडिट देता है तो वह आपके अन्दर अगले उपन्यास के इंतज़ार की चाहत जगा देता है।

इस उपन्यास के लिए मेरा यह मूल्यांकन है की लोकप्रिय साहित्य की श्रेणी में पंकज दुबे जी अपना एक अलग ही मुकाम बना लिया है। लिखते तो सभी हैं, सभी लिख भी सकते हैं लेकिन आम लोगों के लिए साधारण भाषा में लिखना एक अलग ही कला है। इस कला का बखूबी इस्तेमाल पंकज दुबे जी ने किया है। मेरा मानना है की ऐसे लेखक समाज के आईने को बेहतर तरीके से दुनिया के सामने मनोरजन के आईने से प्रस्तुत कर पाते हैं। इस उपन्यास के लिए मेरा मानना है की आप इसे एक बार तो पढ़ ही सकते हैं। हालांकि कई बुद्धिमान और साहित्यकार श्रेणी के महानुभाव इस उपन्यास के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिन्ह लगा देंगे लेकिन झुठला नहीं सकेंगे। मैंने पहले भी कहा था की जरूरी नहीं जो महान लेखक होते हैं वही महान रचना करने के हक़दार हैं, जरूरी नहीं की वे ही एक शानदार रचना सभी के सामने प्रस्तुत कर सकते हैं, अगर आम इंसान के अन्दर भी प्रस्तुतीकरण करने का शानदार नजरिया है तो वह भी ऐसे महान लेखकों की रचनाओं के रिकॉर्ड तोड़ सकता है। पंकज दुबे जी की अगली पुस्तक मुझे इंतज़ार रहेगा।

आभार

राजीव रोशन 

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