खुली खिड़की (लघुकथा) - समीक्षा
सभी सहपाठियों को मेरा नमस्कार,
बहुत ही लम्बे अरसे के बाद आप सभी से रूबरू हो रहा हूँ। एक लम्बा अरसा गुजर गया है कुछ लिखे हुए या दुसरे शब्दों में कहूँ तो जंग लग गयी है मेरी सोच में क्यूंकि मैं अब कुछ नया लिख भी नहीं पा रहा हूँ। खैर, अभी बीते दीनों मैं फेसबुक की दुनिया से पूरी तरह नदारद था लेकिन जब वापिस इधर आया तो पता चला की पाठक साहब का पिछले वर्ष बुरी तरह से मुह की खाए हुए उपन्यास या यूँ कहूँ की असफल उपन्यास “कातिल कौन?” को कागज़ के पन्नों पर जगह मिल गयी। यह बहुत ही हर्ष का विषय है की लगभग ३ वर्ष के बाद “राजा पॉकेट बुक्स” “कातिल कौन?” के जरिये फिर से पाठक साहब के साथ जुड़ गया है। “कातिल कौन?” उपन्यास कैसा था और कैसा है, मैं इस पर बात नहीं करूँगा क्यूंकि दुनिया में कई ऐसे पाठक हैं जिन्हें उपन्यास के स्तर से मतलब नहीं होता, उनके लिए तो पाठक साहब का उपन्यास मिलना सबसे बड़ी बात है। ऐसे पाठकों के लिए “कातिल कौन?” उपन्यास पेपर पर छापना एक संजीविनी बूटी की तरह होता है। इसके लिए “राजा पॉकेट बुक्स” और सर सुरेन्द्र मोहन पाठक को मैं कोटि-कोटि धन्यवाद् प्रेषित करना चाहूँगा।
दोस्तों मैं यहाँ “कातिल कौन?” के बारे में बात नहीं करना चाहता वरन उसके साथ छपे लघुकथा “खुली खिड़की” के बारे बात करना चाहूँगा। दोस्तों पहला पैराग्राफ पढने के बाद मुझे एहसास हुआ की सुधीर सीरीज के उपन्यास जैसा तो इसकी शुरुआत नहीं है। कहानी “फर्स्ट पर्सन” में ही था लेकिन जो एक एहसास सुधीर सीरीज के पुराने उपन्यास में नज़र आते हैं वह तो बिलकुल भी नहीं था। लेकिन शायद यह ऐसा इसलिए है क्यूंकि यह “लघुकथा” है न की पूर्ण उपन्यास। लेकिन जब हम ऐसे लेखक को पढ़ते हैं जिन्हें जाने कितने वर्षों से पढ़ते आ रहे हैं और कितनी-कितनी बार उनके उपन्यासों को दोहरा-दोहरा कर पढ़ चुके हों, तो उनसे उम्मीद रहती है कहानी में परफेक्शन जरूर हो। उपन्यास या तो घटना प्रधान होता है व्यक्ति प्रधान। लेकिन “खुली खिड़की” घटना प्रधान तो नज़र नहीं आया, वहीँ इसे व्यक्ति प्रधान कहना भी गलत बात होगा।
एक लड़की की बिल्डिंग से गिरकर/कूदकर मौत होती है और घटना को खुदखुशी मानकर केस क्लोज कर दिया जाता है। लेकिन लड़की की छोटी बहन दिल्ली के फेमस डिटेक्टिव सुधीर कोहली को रिटेन करती है क्यूंकि उसे पुलिस के इस नतीजे पर सख्त एतराज़ है की मौत एक खुदखुशी है। वह सुधीर को कातिल का पता लगाने के लिए रिटेन करती है। इसके बाद सुधीर अपनी तहकीकात शुरू करता है और जिसका अंत वही होता है जो हर बार, हर सुधीर के नावेल में होता है।
सुधीर के द्वारा की जा रही तहकीकात के दौरान मैंने कई ऐसी बातों पर गौर किया जो मेरे लिए एतराज के काबिल थे। पाठक साहब तहकीकात के दौरान दिखाते हैं की जहाँ लड़की की मौत हुई उस क्षेत्र को पुलिस ने पीले रिबन से घेर रखा है और लाश की स्थिति को चाक द्वारा खींची गयी रेखाओं द्वारा दिखाया गया है। जहाँ तक मेरी जानकारी है, दिल्ली शहर में पुलिस इस एक्टिविटी को सिर्फ हाई-प्रोफाइल केसेस में ही फॉलो करती है। लेकिन हो सकता है की मेरी यह जानकारी अधूरी हो लेकिन गलत तो नहीं हो सकती। अगर कोई मित्र इस पर प्रकाश दे सके तो अच्छा होगा। कृपया प्रैक्टिकल नॉलेज के जरिये ही इस बिंदु पर प्रकाश दीजियेगा क्यूंकि दिल्ली पुलिस अपनी कार्यप्रणाली किन्हीं पुस्तकों द्वारा नहीं निर्धारित करती जब वह फील्ड में होती है।
ऐसा ही दूसरा बिंदु मुझे तब समझ आया जब इंस्पेक्टर देवेन्द्र यादव बार-बार इस वारदात को खुदखुशी कह रहा था और शायद ५-१०% वह हादसा का भी नाम लेता था। हादसे के लिए वह ड्रग्स को जिम्मेदार मानता था जो की मक्तूला ने लिए होंगे। ध्यान दीजिये, आप जब पुलिस इन्वेस्टीगेशन को प्रस्तुत करते हैं तो आपको हर पहलु को उजागर कर के भी दिखाना। पुलिस ने मृतक का पोस्टमोर्टेम नहीं किया तो वह इस बिंदु पर कैसे पहुँच सकती है की उसने ड्रग्स लिया था जिसके कारण वह खिड़की से कूद गयी और यह मौत एक हादसा हो गया। मैं यहाँ एक बात कहना चाहूँगा की अप्राकृतिक मृत्यु होने पर हमेशा पोस्ट-मोर्टेम होता है। लेकिन पाठक साहब ने “सुधीर” को हीरो के रूप में दिखाना था इसलिए उन्होंने इस बिंदु को उपन्यास में कहीं तरजीह भी नहीं दिया।
खैर, मैं कहना चाहूँगा की मैं तो आज का आया हुआ छोकरा हूँ जबकि पाठक साहब को ५०-६० वर्षों का अनुभव है। ऐसे में हो सकता है की ऊपर लिखी गयी मेरी बातों में खामियां हो। लेकिन जितनी जानकारी मेरे पास है, उस हिसाब से मैं सही हूँ। बाद में गलत हो जाऊँगा वह जुदा बात है।
पूरी लघुकथा पढने के बाद यह एहसास होता है कि कहानी को तेज गति देने की कोशिश की गयी है जिसके कारण कई जगह पर बानगी टूटती हुई नज़र आती है। पूरी कहानी में सिर्फ दो ही किरदार नज़र आते हैं सुधीर और देवेन्द्र यादव। सुधीर जो परिणाम कपड़ों का ढेर देख कर निकालता है, वही परिणाम, मैं भी आसानी से निकाल चूका था। हम हमेशा से कुछ नया देखने की उम्मीद करते हैं लेकिन इस कहानी में भी हमें वही पुराना सब कुछ देखने को मिला।
अंत में मैं यह कहना चाहूँगा की, मेरे लिए यह “लघुकथा”, भूतकाल में, पाठक साहब द्वारा लिखी गयी कहानियों के स्तर की बराबरी नहीं कर पाते हैं। इस तरह मैं यह कहना चाहूँगा की “खुली खिड़की”, मेरे दिमाग, दिल और मन, तीनों की ही खिड़की नहीं खोल पाया है।
कहानी का इबुक लिंक- खुली खिड़की
नोट- लघुकथा का छायाचित्र ‘राजीव रोशन’ जी द्वारा बनाया गया है जिसका किसी भी प्रकार का व्यावसायिक प्रयोग प्रतिबंधित है| छायाचित्र के लिए चित्रों का प्रयोग गूगल इमेज सर्च दवरा लिया गया है|
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