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A Diary of SMPian – 3

A Diary of SMPian – 3


बचपन के सुनहरे वक़्त:-

सर सुरेन्द्र मोहन पाठक जी की कृतियों से मुलाक़ात होना मेरे जिदंगी का बहुत ही खुशनुमा वक़्त था। लेकिन उस वक़्त से पहले भी कोई वक़्त था जब मुझे स्कूल की किताबों के अतिरिक्त किसी भी किताब से प्रेम नहीं था। जब भी मैं नयी कक्षा में जाता था तो सबसे पहले इतिहास की किताब पढता था जिसकी कहानियाँ मुझे बहुत पसंद आती थी। दुसरे स्थान पर मैं हिंदी की किताबों को पढता था जिसमे साहित्यिक कहानियां होती थी और साथ ही कवितायें भी। उसके बाद मैं अंग्रेजी की किताबों की ओर मुड़ता था। वैसे मेरा पसंदीदा सब्जेक्ट गणित था जो की आज तक है। खैर मैं अपनी इन स्कूल की किताबों से आगे बढ़ता हूँ।

जब भी मैं अपने माता-पिता के साथ दिल्ली से बिहार और बिहार से दिल्ली की यात्रा करता था तो ट्रेन में २० रूपये में ४ किताबों की सेट मिला करती थी जिसमे नंदन, चम्पक, सरस-सलिल आदि के पुराने अंक होते थे। इन किताबों को पढ़ कर ही मेरी यात्रा पूरी हुआ करती थी। जहाँ नंदन और चम्पक की कहानियां बचपन में उन नैतिक मूल्यों को सिखाने में सहायता करती थी जो मेरे माता-पिटा चाहकर भी नहीं सिखा पाते थे (शायद आप में से कई मित्रों के साथ भी ऐसा हुआ हो)। ये छोटी-छोटी कहानियां बहुत कुछ सिखा गयी थी जीवन को। सबसे ज्यादा इन कहानियों में दोस्ती का जिक्र हुआ करता था। वहीँ सरस-सलील की कहानियाँ मुझे अधिक सोचने पर मजबूर करती थे क्यूंकि ये कहानियां परिपक्व व्यक्तियों के लिए थी और मैं उस वक़्त उस सीढ़ी तक पहुँच नहीं पाया था। खैर कुछ भी हो ये पुस्तकें मुझे मेरे सफ़र में बहुत सहायक साबित होती थी।
उस समय क्रिकेट खेलने का शौक था जिसके कारण मेरे कई मित्र बन गए थे। उनमे से एक मित्र “राजेश” नाम का था और उसे कॉमिक्स पढने का बहुत शौक था। उसके घर मेरा आना-जाना बहुत था। ऐसा इसलिए था क्यूंकि उसके घर टीवी था और मेरे घर नहीं था। तो मैं कार्टून्स, शक्तिमान और जेम्स बांड की फिल्मों को देखने जाया करता था। यूँ ही एक दिन उसने मुझे नागराज की कॉमिक्स पढने के लिए दे दिया। मैंने उस कॉमिक्स को आधे घंटे में ही ख़त्म कर दिया और उससे दूसरा कॉमिक्स लेने पहुंचा। मेरे द्वारा कॉमिक्स को इतनी जल्दी पढ़ लिए जाने के पीछे कारण यह था की मैं उस समय सिर्फ कहानियों पर ही ध्यान देता था और आज भी कहानियों पर ध्यान देता हूँ। कॉमिक्स का आर्ट वर्क कैसा है इससे मुझे पहले भी फर्क नहीं पड़ता था और न ही आज पड़ता है। खैर मैंने उससे लेकर कई कॉमिक्स पढ़ीं और इस तरह मुझे कॉमिक्स पढने का शौक लगा और यह शौक किरायों पर ले-लेकर नयी-नयी आने वाली नागराज-ध्रुव-डोगा-तिरंगा-बांकेलाल आदि के कॉमिक्स तक भी लगा रहा। इस शौक का अंत तब हुआ जब मैं पल्प-फिक्शन की दुनिया से रूबरू हुआ।
पल्प-फिक्शन की दुनिया से मैं कैसे रूबरू हुआ, इसे मैं अगले भाग में प्रकाशित करूँगा। उससे पहले मैं आप सभी से यह साझा करना चाहूँगा की मैंने सबसे पहले किस फिक्शन से रूबरू हुआ। यह बहुत पहले की बात है जब मैं कॉमिक्स या नंदन भी पढता नहीं था। मैं अपने माता-पिता के साथ गाँव गया हुआ था। मेरी माता जी ने एक दिन अपने उस संदूक की सफाई करने की सोची जो उन्हें शादी में नाना जी द्वरा दिया गया था। उस संदूक की सफाई के दौरान मैं भी वहां मौजूद था। माता जी, बहुत कुछ उस संदूक से निकाल कर बाहर फेंका। देखा तो एक किताब थी जिसके ऊपर “आनंदमठ” लिखा था। अन्दर एक पन्ना पलट कर देखा था “वन्दे मातरम्” अपने पूर्ण रूप में लिखा हुआ था। जितना “वन्दे मातरम्” मैं स्कूल में प्रार्थना के समय बोलता था वह मुझे कंठस्थ याद था लेकिन अब मैं जो देख रहा था वह उससे कहीं ज्यादा लिखा हुआ था। अन्दर लेखक का नाम भी था जिनके बारे में हम पढ़ा करते थे की उन्होंने “वन्दे मातरम्” गीत की रचना की थी। बस फिर क्या था मैंने इस कृति को पढना शुरू कर दिया। मुझे अच्छी तरह याद आता है की इस उपन्यास की समाप्ति से पहले मैं कई प्रसंगों के दौरान रोया था। रोने का अर्थ यहाँ है कि मेरे आँखों में भावनाओं के आंसू एक-दो बूंदों के रूप में उमड़ पड़े थे। आज भी वह पुस्तक मेरे संग्रह में उपलब्ध है बिलकुल उसी तरह जिस तरह मेरी माँ ने संभाल कर रखा था। आज भी यह कृति मेरे द्वारा पढ़ी गयी बेहतरीन पुस्तकों की श्रेणी में पहला स्थान रखती है। आशा है आप सभी ने यह रचना जरूर पढी होगी और अगर नहीं पढ़ी तो जरूर पढ़िए।
अगले पन्ने में, मैं इस बात का खुलासा करूँगा की किस तरह मैं पल्प-फिक्शन की दुनिया रूबरू हुआ।
आभार
राजीव रोशन

Read Previous Part:-  A Diary of SMPian - 2

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