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हिंदी पत्रकारिता दिवस - Now we need "Blast" & "Sunil"

हिंदी पत्रकारिता दिवस:-

कमाल है, कुछ लोगों को फेसबुक या सोशल मीडिया मात्र मनोरंजन या वक़्त बिताने का अड्डा लगता है लेकिन मुझे ऐसा नहीं लगता। यह आप पर निर्भर करता की अमुक वस्तु को आप किस नज़र से देख रहे हैं। ऐसे आज सुबह जब फेसबुक खोला तो अपने कई मित्रों के वाल पर मुझे “हिंदी पत्रकारिता दिवस” से सम्बंधित पोस्ट/लेख नज़र आये। मुझे पहले ऐसे किसी दिवस की कोई जानकारी नहीं थी लेकिन.... खैर कोई नहीं.. कभी न कभी तो यह जानकारी मेरे पास पहुंचनी ही थी। क्यूंकि यह संसार ही जानकारी के आदान-प्रदान से चलता है।

आइये बात करता हूँ “हिंदी प्रत्रकारिता दिवस” की। ३० मई १८२६, को कलकत्ता से हिंदी में पहला अखबार छपा था जिसका नाम था “उदन्त मार्तंड”। “उदन्त मार्तंड” को और परिभाषित करें तो वह होगा “उगता हुआ सूरज”। पंडित जुगल किशोर शुक्ला जी ने इसका प्रकाशन किया था। धीरे-धीरे भारत के कई शहरों में हिंदी समाचारों पत्रों ने अपनी पहुँच बनानी शुरू कर दी और अगर वर्तमान में देखें तो भारत के अधिकतम हिस्सों में हिंदी समाचार पत्रों की पहुँच बन चुकी है। भारत में लगभग ११०० दैनिक अख़बार रोजाना छपते हैं जिनकी तकरीबन ८ करोड़ प्रतियाँ भारत के घरों में पहुँचती है। हिंदी पत्रकारिता ने अपने कदम यहीं तक सिमित नहीं रखे, वे अब आगे बढ़ कर हिंदी खबरी चैनेलों तक पहुँच गयी है।

सन १९६३ में पाठक साहब ने अपना पहला उपन्यास “पुराने गुनाह नए गुनाहगार” लिखा था। इस उपन्यास ने उस वक़्त कोई ख़ास उपलब्धि भले ही हासिल न की हो लेकिन मौजूदा वक़्त के कई नामी-गिरामी लेखकों ने इस उपन्यास के केंद्रीय किरदार के बारे में बहुत ही नकारात्मक विचार व्यक्त किये थे। इस उपन्यास का किरदार एक खोजी पत्रकार था जो एक काल्पनिक शहर राजनगर से छपने वाले दैनिक अखबार “ब्लास्ट” में नौकरी करता था। ६० के दशक में जो उपन्यास बाज़ार में आते थे उनके केंद्रीय किरदार पुलिस इंस्पेक्टर, cid ऑफिसर, स्पाई, पुलिस डिटेक्टिव या प्राइवेट डिटेक्टिव हुआ करते थे। ऐसे वक़्त में एक नए प्रकार के किरदार को लेकर एक नए लेखक का मार्किट में उतरना अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा था। लेकिन उस वक़्त पाठक साहब ने धैर्य रखते हुए, दुनिया कि बातों को नज़रअंदाज़ करते हुए, सीढ़ी दर सीढ़ी आज उस मुकाम पर इस किरदार को लेकर आ चुके हैं जहाँ पहुँचने में अन्य लेखकों को दांतों तले चने चबाने पड़ सकते हैं। आज इस पत्रकार को केंद्रीय किरदार में लेकर लिखते हुए पाठक साहब को 50 वर्ष से ऊपर हो चुके हैं और उन्होंने लगभग १२१ उपन्यास इस किरदार को केंद्र में रखकर लिख चुके हैं।

ब्लास्ट में नौकरी करने वाले इस पत्रकार किरदार का नाम था “सुनील कुमार चक्रवर्ती”। शुरूआती उपन्यासो में पाठक साहब ने सुनील को एक खोजी पत्रकार तो दिखाया लेकिन साथ ही साथ उसे स्पाई या एक अन्तराष्ट्रीय जासूस के रूप में भी कई उपन्यासों में किरदार प्रदान किया है। सुनील एक ईमानदार खोजी पत्रकार है जो अपने अखबार “ब्लास्ट” के लिए जी-जान से खबर लाने की कोशिश करता है। वह सच्चा इंसान है और हमेशा गरीबों एवं मजलूमों की मदद करता है। वैसे ज्यदातर मामलों में वो मुसीबत में फंसी हसीनाओं की ही मदद करता नज़र आया है। कई बार ऐसे मौके आये जब उसको समाज के ठेकेदारों और ऊँचे स्तंभों द्वारा जलील होना पड़ा, तिरष्कृत होना पड़ा। उसे जान से मार देने कि धमकी दी गयी, उसे नौकरी से निकलवा दिए जाने की धमकी दी गयी, लेकिन इस कलम के मजदूर ने इन सभी धमकियों को दरकिनार कर दुनिया को सच से सामना कराया। इस होनहार नौजवान की लगन देखिये, जब इसके अखबार के मालिक के बेटे ने इसके सत्यानिष्ट काम में अडंगा लगाया तब उसने उसका भरपूर विरोध किया। जब इस घटना के बारे में अखबार के मालिक को खबर मिली तो उसने सुनील के प्रशंसा में बहुत कुछ कह दिया। एक सच्चे पत्रकार की नौकरी क्या होती है, कैसे होती है, यह सबसे बेहतर सुनील सीरीज के उपन्यासों को पढ़कर जाना जा सकता है। जहाँ ब्लास्ट को सुनील जैसा सत्यनिष्ठ और कर्तव्यपारायण खोजी पत्रकार मिला जो अपनी जान की परवाह किये बगैर खबरों को खोज लाता था वहीँ सुनील को ब्लास्ट जैसा अखबार मिला जो उसकी हर प्रकार से मदद करने को तैयार था। अगर सुनील को अपनी खबर पर भरोसा था तो ब्लास्ट को भी उस खबर पर भरोसा था।

वर्तमान समय में अखबार की सत्यनिष्ठा और कर्तव्यों के ऊपर कई सवालिया निशान उठने लगे हैं। ऐसा लगता है अखबारों में भी व्यावसायिकता की होड़ लग चुकी है। ख़बरों को पकड़ने की ऐसी होड़ है कि अखबार एक दुसरे के ऊपर छींटा-कसी भी करने से नहीं हटते। पहले जहाँ अखबार खबरों को समाज तक पहुंचाने का जरिया होता था वहीँ अब इसका अस्तित्व खतरे में पड़ चूका है। अब हमारे समाज को “ब्लास्ट” जैसे अखबार और सुनील जैसे पत्रकार की जरूरत है। आज के समय में ऐसा लगता है की पूरा मीडिया ही बिक चूका है। कभी जो किसी मुद्दे को लेकर गहराई तक चले जाते थे.. आज वो अखबार राजनीति/चटपटी ख़बरें एवं स्कैंडल पर ज्यादा ध्यान देते हैं। अगर प्रिंट मीडिया एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ही ऐसा रुख अख्तियार कर लेगा तो समाज को दुनिया का आइना कौन दिखाएगा उसे सच्ची खबर वाला हिस्सा कौन दिखाएगा।

ऐसे समय पर मुझे एक शेर याद आता है जिसे अकबर इलाहाबादी जी ने लिखा था और पाठक साहब द्वारा स्टॉप प्रेस (हो सकता है मैं गलत भी होऊं) में इस्तेमाल किया गया था :-

“खींचो न कमानों को......न तलवार निकालो,

जब तोप मुकाबिल हो.. तो अखबार निकालो।”

लेकिन ये शेर मौजूदा वातावरण एवं मीडिया के व्यावसायिक क्रियाओं पर लागू नहीं होता। काश यह बात लागू होती तो दिल को शुकून मिलता।

खैर, आज “हिंदी पत्रकारिता दिवस” की आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं।

आभार

राजीव रोशन 

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