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५० लाख – "जीता" के जुनून का अंजाम

५० लाख – "जीता" के जुनून का अंजाम



क्या भारत की न्यायव्यवस्था इतनी कमजोर है की एक गुनाहगार को मात्र एक झूठी गवाही पर रिहा कर दिया जाए। जो गवाह कल तक उस व्यक्ति के गुनाहों को दुनिया के सामने नग्न करने को राजी था, आज भरी अदालत में उसको गुनाहगार मानने से पलट गया वो भी इस पर कि उसने बाइबिल पर हाथ रख कर सच कहने की सपथ ली थी। बहुत ही अजीब दुनिया और कानून व्यवस्था है हमारे देश की। उस गवाह “गाईलो” ने “जीत सिंह उर्फ़ जीता” के खिलाफ इसलिए गवाही नहीं दिया क्यूंकि जीत सिंह, गाईलो के कजन एंजो का दोस्त था। पुलिस ने इतनी मेहनत मसक्कत से सुपर सेल्फ सर्विस स्टोर के दिन दहाड़े डकैती के केस के एक मुख्य मोहरे को गिरफ्तार किया था। जहाँ पुलिस को इस काम के लिए तारीफ के फूल मिलने चाहिए थे वहीँ उन्हें यह काँटा मिला की मुलजिम जीत सिंह को जमानत पर रिहा कर दिया गया।


अगर और गहराई में जाएँ तो पता चलता है कि जीत सिंह को पकड़ने में पुलिस ने कोई ख़ास मेहनत नहीं की थी बल्कि उनको तो जीत सिंह थाली में सजाकर, लौंग का वर्क लगा कर मिला था। सुपर सेल्फ सर्विस स्टोर की डकैती में शामिल जीत सिंह के साथियों ने उसे धोखा दिया था और पुलिस को कुछ ऐसा खबर कर दिया था कि पुलिस ने उसे धर-दबोचा। लेकिन पुलिस किसी भी तरह जीत सिंह के तार को इस डकैती में जोड़ने में सक्षम नहीं हो पा रही थी जब तक की उन्हें टैक्सी ड्राईवर गाईलो नहीं मिला। लेकिन वह गवाह भी, एन वक़्त पर, भरी अदालत में, बाइबिल पर हाथ रख कर सपथ खाने के बावजूद मुकर गया।


जीत सिंह की जमानत के लिए एडुआर्डो ने पचास हज़ार रूपये जमा किये थे। काश, जीत सिंह को पैसे का महत्व पता होता। ये भी सोचने वाली बात है कि एक डकैत, एक तालातोड़, एक वॉल्ट-बास्टर को पैसे का कोई महत्व नहीं मालूम था। ऐसा इसलिए था क्यूंकि वह अपने लिए पैसे कमाने के लिए किसी डकैती में हिस्सा नहीं लेता था बल्कि उसे तो अपनी मोहब्बत के जुनून को पूरा करना था। सुष्मिता, सुष्मिता को पाना उसका जुनून था। जीत सिंह का सोचना था कि सुष्मिता ने पैसों के लालच में धन्ना सेठ पुरसुमल चंगुलानी से शादी किया था। जीत सिंह का यह सोचना था की वह सुष्मिता के सामने नोटों का पहाड़ लगा देगा फिर सुष्मिता को हासिल कर सकेगा। इसी कोशिश के अंतर्गत उसने पहले सुष्मिता को १० लाख फिर ३० लाख रूपये दिए थे। अभी कुछ दिनों पहले ही उसने सुष्मिता को ३५ लाख दिए थे। जीत सिंह सुष्मिता से पूछना भी नहीं चाहता था की उसकी चाहत क्या थी। जीत सिंह तो अपने जुनून के आगे ऐसा अँधा हुआ था कि बार बार जुर्म के अँधेरे कुएं में हाथ डालता था जिसमे उसे सांप और बिच्छु के डंक के अलावा कुछ ख़ास हासिल नहीं हुआ था।


जीत सिंह को “३५ लाख” कैसे हासिल हुए, यह न तो सुष्मिता को बताता था न ही वह कभी पूछती भी थी। जीत सिंह ने यह ३५ लाख रूपये एक पार्टी को दो ट्रकों को डिलीवर करके कमाए थे। यह भी एक प्रकार की डकैती ही थी। जिसमे जीत सिंह और उसके तीन साथियों ने मिलकर एक गोदाम से दो ट्रकों को चुराया था। उन्हें इस बात से मतलब नहीं था की ट्रक में क्या मौजूद था। लेकिन इस बात में भी फंदा तब पड़ा जब डकैती में शामिल दोनों ट्रक ड्राईवर ने जीत सिंह और उसके साथी को धोखा देते हुए ट्रकों पर कब्ज़ा कर लिया। किसी तरह से ट्रक का सौदा हुआ जिसमे जीत सिंह को ३५ लाख मिले और साथ ही दोनों ट्रक ड्राईवर और जीत सिंह के साथी को मौत की सौगात मिली।


अगर ये ३५ लाख सुष्मिता को देने के बजाय जीत सिंह अपने पास रखा होता तो सुपर सेल्फ सर्विस स्टोर की डकैती के इलज़ाम में गिरफ्तार होने के बाद जमानत के लिए उसे एडुआर्डो की मदद के लिए गुहार नहीं लगाना पड़ता। बात यहीं खत्म हो जाती तो बात कुछ और होती, सुपर सेल्फ सर्विस स्टोर की डकैती में शामिल जीत सिंह के साथियों ने जीत सिंह को मारने और क़त्ल के इलज़ाम में फ़साने की भरपूर कोशिश की लेकिन सफल नहीं हुए। क्यूंकि मारने वाले से ज्यादा बड़ा बचाने वाला होता है। एक बार जीत सिंह को बचाने के लिए एंजो ने अपनी जान की बाजी लगाईं थी। लेकिन इस बार उसके लिए एक प्राइवेट डिटेक्टिव शेखर नवलानी फरिस्ता बन कर आया।


शेखर नवलानी, पुरसुमल चंगुलानी द्वारा हायर किया गया प्राइवेट डिटेक्टिव थे जो जीत सिंह और सुष्मिता के बैकग्राउंड और दोनों की एक एक हरकत पर नज़र रख रहा था। पुरसुमल चंगुलानी को जीत सिंह के बारे में खबर सुष्मिता की सहेली मीरा से लगी थी। सुष्मिता ने मीरा को जीत सिंह के बारे में इसलिए बताया था क्यूंकि मीरा का पति क्राइम ब्रांच में था और सुष्मिता उससे यह सहायता चाहती थी की उसके घर में जीत सिंह द्वारा दिए गए चालीस लाख रूपये का कुछ कर सके। मीरा ने उसे आश्वासन दिया लेकिन सीधे जाकर सारी बात पुरसुमल को बता दिया। पुरसुमल ने सुष्मिता और जीत सिंह से सम्बंधित खोजबीन और गतिविधियों पर नज़र रखने के लिए शेखर नवलानी नामक डिटेक्टिव को हायर किया था।


मुझे समझ नहीं आता है की मैं जीत सिंह से सहानुभति रखूं या भारत की न्यायव्यवस्था को कोसूं। जिन पाठकों ने जीत सिंह सीरीज के पहले दो उपन्यास “दस लाख” और “तीस लाख” पढ़ा है उन्हें जरूर जीत सिंह से सहानुभूति हो जायेगी। लेकिन जीत सिंह में ऐसा जुनून क्यूँ है। अब जबकि सुष्मिता के पति को भी हर बात की खबर है तो उसकी इस बात के लिए क्या प्रतिक्रिया होगी। ये देखने वाली बात होगी की पुरुसुमल चंगुलानी किस प्रकार से वक़्त और हालात को संभालता है। जीत सिंह से सहानुभूति और पुलिस प्रशासन से नफरत इस उपन्यास को पढने के बाद जरूर हो जाती है। क्यूंकि पुलिस लॉक-अप में एक मुजरिम के साथ किस हद तक सलूक हो सकता है उसको बखूबी बयान किया गया है।


इस उपन्यास के अधिक किरदारों के बारे में बारे में बात नहीं करूँगा। जीतसिंह, पुरसुमल चंगुलानी, सुष्मिता और शेखर नवलानी, मुख्य किरदार के रूप में अच्छा काम कर गए हैं। पाठक साहब ने उपन्यास की कहानी का प्रस्तुतीकरण शानदार किया है। कहानी एक बार जो पढना शुरू किया तो पता ही नहीं चला की रफ़्तार किस कदर किस मोड़ से बढ़ गयी थी। घात-आघात-प्रतिघात, षड़यंत्र, रहस्य, रोमांच से भरपूर यह कहानी एक ही बैठक में पठनीय है। मेरे हिसाब से यह कहानी जीत सिंह सीरीज को एक अलग प्लेटफार्म पर लाकर खड़ा कर देती है। यह कहना, निरर्थक है की अपनी पिछली दो जीत सिंह सीरीज के उपन्यासों के क्लाइमेक्स की तरह इस उपन्यास का क्लाइमेक्स भी आपके अन्दर के दिल को बाहर निकाल कर रख देगी।


पाठक साहब अपने इस उपन्यास के लेखकीय में कहते है की उन्हें इस उपन्यास को लिखने में वक़्त इसलिए लगा क्यूंकि वे ऐसा क्लाइमेक्स लिखना चाहते थे जो पिछले दो उपन्यासों के क्लाइमेक्स जलाल को भी पार कर जाए और ऐसा लगे की यह किरदार यहीं खत्म है। वे ऐसा इसलिए कहते हैं क्यूंकि अगर पाठकों को “५० लाख” उपन्यास पसंद नहीं आया तो इस किरदार को आगे नहीं बढ़ाएंगे। लेकिन वे एक ऐसा क्लाइमेक्स भी डालना चाहते थे जिससे अगर पाठकों को यह उपन्यास पसंद आये तो उसे आगे बढाने की संभावना भी बनी रहे। पाठक साहब कहते हैं की जीत सिंह के किरदार में उन्होंने कोई खास तबदीली नहीं की बल्कि वो पहले ताला तोड़ता था बस अब उसने क़त्ल करने भी शुरू कर दिए हैं। लेकिन जैसे पहले वह ताला तोड़ के डकैती करके पैसे जोडता था और सुष्मिता को दे आता था।


“५० लाख” - सर सुरेन्द्र मोहन पाठक द्वारा रचित अपनी कुल उपन्यासों की श्रेणी में यह उपन्यास २२४ वां है जो कि सितम्बर २००० में पहली बार प्रकाशित हुआ था। यह उपन्यास थ्रिलर की श्रेणी में ४४ वां और जीत सिंह सीरीज में तीसरा स्थान पाता है। अगर आपने इस उपन्यास को नहीं पढ़ा है तो पढ़ डालिए क्यूंकि एक बेहतरीन शाहकार आपका इंतज़ार कर रहा है। जो पाठक रहस्य-रोमांच एवं क्राइम फिक्शन पढने के शौक़ीन हैं वे इस पुस्तक को पढ़ सकते हैं। वैसे “पचास लाख” हार्ड कॉपी में आपको थोड़ी मसक्कत के बाद मिल जाएगा लेकिन अगर आप ईबुक के शौक़ीन हैं तो न्यूज़-हंट से खरीद कर पढ़ सकते हैं। वैसे तो यह एक छोटी सी सलाह है लेकिन फिर भी आप कह सकते हैं जो जीत सिंह ने अपने दोस्त को इस उपन्यास में कहा था –


“अगर तू दोस्त है तो नसीहत न कर खुदा के लिए, मेरा जमीर ही काफी है मेरी सजा के लिए!!”





आभार

राजीव रोशन 

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