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Showing posts from November, 2014

कार्पस ड़ेलेक्टी – ए क्राइम इन्वेस्टीगेशन टर्म

कार्पस ड़ेलेक्टी – ए क्राइम इन्वेस्टीगेशन टर्म सभी सुमोपाई बंधुओं को सलाम। फिर से एक बार आप लोगों के लिए साधारण सी जानकारी लेकर आया हूँ। पाठक साहब ने एक लघु कथा “किताबी क़त्ल” लिखा था जिसे एक बार उपन्यास के रूप में भी छापा गया था। अगर आप इस कहानी को पढेंगे तो आप क्रिमिनल इन्वेस्टीगेशन के एक नुक्ते से आसानी से परिचित हो जायेंगे। खैर आप सभी को अगर ध्यान न हो तो मैं आप सभी की कृपा दृष्टि उस नुक्ते की ओर ले जाना चाहूँगा। “किताबी क़त्ल” की कहानी में जब इन्वेस्टीगेशन ऑफिसर मौकायेवारदात पर पहुँचता है तो उसे ऐसा लगता है की वहां क़त्ल हुआ है लेकिन उसे वहां लाश नज़र नहीं आती है। मौकायेवारदात से मिले कई सूत्रों से पता चलता है की वहां घर के मालिक का क़त्ल हुआ है लेकिन लाश न मिलने की सूरत में इन्वेस्टीगेशन ऑफिसर उसे एक नुक्ते के रूप में लेता है। इन्वेस्टीगेशन ऑफिसर ने इस नुक्ते को “कार्पस डेलिक्टी” का नाम दिया। इस बिंदु पर जब थोड़ी बहुत इन्टरनेट द्वारा खोज बीन किया तो पता चला की इन्वेस्टीगेशन ऑफिसर द्वारा बोला गया यह टर्म क्राइम इन्वेस्टीगेशन में बहुत मायने रखती है। “कार्पस डिलेक...

तीस लाख (एक तालातोड़ के जुनून की दास्तान)

तीस लाख (एक तालातोड़ के जुनून की दास्तान) “उस्तादजी, जिससे मुहब्बत हो, उसका बुरा नहीं चाहा जाता।” जीतसिंह उर्फ़ जीता जैसे तालातोड़, कातिल, वॉल्ट बास्टर से ऐसे शब्दों को सुनना, विश्वास करने के काबिल नहीं लगता है। एक तरफ तो पाठक साहब ने इस किरदार को नेगेटिव शेड में ही बनाया और उस नेगेटिव शेड में स्याही डालने का काम सुष्मिता ने किया जब वह अपने किये वादे से फिर गयी और जीत सिंह को दिए गए वक़्त के मियाद खत्म होने से पहले ही बूढ़े, मालदार, सेठ पुरुसुमल चंगुलानी से शादी कर लिया। अब सोचने वाली बात आती है कि इस किरदार ने इतनी पते की बात कह कैसे दी। क्या सच ही उसे सुष्मिता से बेपनाह मोहब्बत थी जैसा की उपरोक्त पंक्ति दर्शाती है। “उस एक औरत के अलावा अब मुझे दुनिया जहान की औरतों से नफरत है। मेरा बस चले तो मैं दुनिया के तख्ते से औरत जात का नामोनिशान मिटा दूँ।” “सिवाय उस एक औरत के?” “हाँ। वो सलामत रहेगी तो देखेगी कि मैंने क्या किया? वो भी मर गयी तो फिर क्या फायदा?” “बेटा, तू किसी जुनून के हवाले है। तू नहीं जानता तू क्या कह रहा है।” अब यहाँ, हमें नज़र आता है की कैसे जीत सिंह उर्...

The Inductive and Deductive Reasoning in Crime investigation

The Inductive and Deductive Reasoning in Crime investigation पाठक साहब के सभी सैदाइयों को दिल से नमस्कार। आप सभी ने कई बार देखा होगा और गौर भी किया होगा की सुनील जब भी मौकायेवारदात पर पहुँचता है तो वहां देखे गए तथ्यों के अनुसार क़त्ल के होने का सूरत-ए-अहवाल या खाका खींच देता है। वह यह बात या तो रमाकांत को बताता है या प्रभुदयाल को। लेकिन ऐसा बहुत कम होता है की पुलिस की लाइन ऑफ़ एक्शन और सुनील की लाइन ऑफ़ एक्शन एक ही रही हो। ऐसा ही आप सभी ने देखा होगा की, सुनील हर उपन्यास के अंत में तथ्यों, तर्कों और विश्लेषणों के आधार पर एक कहानी सुनाता है जो की तर्कपूर्ण लगता है, जिससे कि हत्यारा या मुजरिम आसानी से पकड़ा जाता है। इस कहानी में सुनील अपनी खोजबीन और तहकीकात को तो शामिल करता ही है साथ ही कल्पनाओं के आधार पर कुछ बातें उस बिंदु से आगे की भी कह देता है। सुनील इस कहानी में प्रभुदयाल से मिली मटेरियल ज्ञान का भी इस्तेमाल करता है – जैसे की फॉरेंसिक रिपोर्ट, फिंगर प्रिंट्स रिपोर्ट, बैलेस्टिक रिपोर्ट आदि। इस तरह से सुनील की इस कहानी में कुछ उसके अपने तर्क के साथ-साथ, तहकीकात से जुडी सत्य बातो...

The impact of Crime fiction on Society

The impact of Crime fiction on Society एक ऐसा इंसान जो की समाज के ऊँचे स्तंभों के गुंडागर्दी और जुल्म से तंग आकर अपने शहर को छोड़ देता है और दुसरे शहर में शरण ले लेता है लेकिन वो एक दिन वापिस लौटता है और अपने ऊपर हुए जुल्म का बदला लेता है। एक शहर में चार बेरोजगार नौजवान, अपनी बेरोजगारी से तंग आकर जुर्म की राह पकड़ लेते हैं और अपनी धन की लालसा को पूरा करने के लिए हर प्रकार का जुर्म करने को तैयार हो जाते हैं। एक मुजरिम, अपनी सजा काट कर सभ्य इंसान बनना चाहता है। लेकिन हमारा समाज उसे कहीं भी टिक कर दो जून की रोटी खाने भी नहीं देता क्यूंकि उसने अपने भूतकाल में कुछ जुर्म किये थे और हमारा समाज ऐसे मुजरिमों को नौकरी पर रखना पसंद नहीं करता। ऐसे में वह फिर से अपराध की राह पर चल निकलता है क्यूंकि समाज के ताने और ठोकरों ने उसके धैर्य की सीमा को पार कर दिया है। ऐसे कई किस्से और कहानियां आपको देखने और पढने को मिल जायेंगे लेकिन कहानियां समाज पर अपना असर छोड़ जाती हैं। समाज को अगर आप कुछ सिखाना चाहते हैं तो उसे दो तरीकों से कुछ सिखाया जा सकता है। एक तो आप सीधे तरीके से उन्हें सिखाइए...

Millennium and Blast - A view from SMPian

Millennium and Blast - A view from SMPian मैं कभी-कभी दुनिया को उस तरीके से देखने की कोशिश करने लगता हूँ जैसा पाठक साहब के किरदार देखते हैं। कमाल की बात है की ऐसा करने से या करते हुए मेरे दोस्त अगर देख लेते हैं तो बहुत हँसते भी हैं। लेकिन मुझे उनके इस व्यंग्य से कोई फर्क नहीं पड़ता है। गत दिनों, पता नहीं कुछ ऐसा ही अनुभव हुआ, सही था या गलत था इसके बारे में मैं फैसला कभी नहीं कर पाऊंगा। पिछले दिनों एक फिल्म देखा “The Girl with Dragon Tatto” जिसकी कहानी एक ऐसे सफल और प्रसिद्द पत्रकार की थी जो “मिलेनियम” नामक मैगज़ीन के लिए कार्यरत था। पत्रकार, एक खोजी पत्रकार है जो समाज फैली कई गलत गतिविधियों का खुलासा करने के लिए प्रतिबद्ध है। स्वीडिश पत्रकार एवं मशहूर लेखक स्टिग लार्सन के प्रसिद्द सीरीज “मिलेनियम” की पहली पुस्तक पर बनी यह फिल्म पूरी तरीके से क्राइम इन्वेस्टीगेशन और पत्रकारिता पर आधारित है। “मिलेनियम” सीरीज के तीन पुस्तकों The Girl with the Dragon Tattoo , The Girl Who Played with Fire , The Girl Who Kicked the Hornets' Nest को विश्वभर ख्याति प्राप्त है और इन पर फ़िल...

A letter - SMP Novels & Social Issues

मेरे प्रिय मित्र, आशा है की तुम सकुशल अपनी जिन्दगी बसर कर रहे होगे। मैं भी स्वस्थ हूँ और जीवन का आनंद उठा रहा हूँ। बहुत समय बीत चूका है तुम से मुझे बात किये हुए। ऐसा लगता है कि उस दिन की बात तुम्हारे दिल पर बहुत आघात कर गयी। जबकि होना तो यह चाहिए था की मैं नाराज़ होता। यह तुम्हारा कहना गलत था की मैं सिर्फ एक लेखक तक ही सिमित हूँ जो सिर्फ अपराध कथाएं ही लिखते हैं। मैं इस बात पर बहस नहीं करना चाहूँगा लेकिन तुम्हें बताना चाहूँगा की अगर तुमने एक बार भी उस लेखक को पढ़ा होता तो शायद तुमने वह बात बोली नहीं होती। तुमने दुनिया के कई जाने-माने लेखकों के पुस्तकों को पढ़ा है और इस कारण मैं तुम्हें किसी वृहद् चर्चा की ओर नहीं ले जाऊँगा| मैं तुम्हें सिर्फ वह पहलु दिखाता हूँ जो सर सुरेन्द्र मोहन पाठक जी के उपन्यासों में अधिकतर देखा जाता है| तुम्हारा यह कहना की सर सुरेन्द्र मोहन पाठक जी द्वारा रचित उपन्यास सिर्फ और सिर्फ अपराध कथा पर आधारित होते हैं। लेकिन क्या हमें नहीं सोचना चाहिए की “अपराध” भी समाज का एक अभिन्न अंग ही है। क्या हमें यह नहीं सोचना चाहिए की “अपराध” को जन्म भी हमारा समाज ही देता...

दस लाख - एक ताला-तोड़ की मोहब्बत को पाने की जूनून की कहानी

दस लाख हाल ही में मेरा दिल चकनाचूर हुआ है और हाल ही में मैंने “नोटबुक” नामक हॉलीवुड फिल्म भी देखा है। दोनों ही बातों में कुछ समानताएं हैं। जैसे की, दोनों में प्रेमी का दिल टूटता है और प्रेमिका किसी और के साथ बंधन में बंध जाती है। लेकिन दोनों ही कहानियों का अंत अलग-अलग है। जब प्रेमिका अपने प्रेमी को छोड़कर चली जाती है तो प्रेमी इश्क के जूनून को खुद पर हावी नहीं होने देता – बस यही बात है जो दोनों ही कहानियों में एक समानता नज़र आती है। दोनों ही कहानियों में प्रेमी जीवन के अंत तक अपनी प्रेमिका का इंतज़ार करने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ है। खैर, ये बाते यहाँ कहने का कोई मतलब नहीं बनता है क्यूंकि यह एक समीक्षा है और समीक्षा में इन फ़ालतू बातों का कोई स्थान नहीं जिसका सम्बन्ध सीधे सीधे सब्जेक्ट से न हो। “दस लाख” उपन्यास एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जो अपनी प्रेमिका के लिए ३ महीने में १० लाख रूपये का इंतजाम करना चाहता है। जीत सिंह एक ताला-तोड़ है जो ताले की चाबियाँ बना कर अपनी रोजी रोटी चलाता है और सुष्मिता नाम की लड़की के पड़ोस में रहता है। उसको सुष्मिता से एक तरफ़ा प्यार है और इस बात का उस...

चैनल ५ – खुशबुओं की मलिका

चैनल ५ – खुशबुओं की मलिका दोस्तों, मैं सर सुरेन्द्र मोहन पाठक जी का पाठक और प्रशंसक दोनों ही हूँ। कई बार मुझे कई चीज़ों/नैतिक मूल्यों/विचारों आदि के बारे में जानकारी इनके उपन्यासों को पढ़ कर मिलती है। सर सुरेन्द्र मोहन पाठक सिर्फ एक अपराध कथा लेखक ही नहीं बल्कि एक ऐसे गुरु भी हैं जो जिनसे और जिनकी पुस्तकों से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। आज भी मैं ऐसा ही कुछ सीख कर हटा हूँ जो मेरे लिए एक नयी जानकारी है। सर सुरेन्द्र मोहन पाठक जी के कई उपन्यासों में एक ऐसे सेंट या इत्र का जिक्र आता है जिससे उपन्यास के नायक को कई बातों का पता चल जाता है। जैसे की अगर किसी मौकायेवारदात पर अगर किसी महिला किरदार द्वारा फलाना इत्र का इस्तेमाल किया गया हो और नायक की भविष्य में या भूत में अगर उससे मुलाक़ात हुई हो तो वह इस आंकलन पर पहुँचता है की वह भी मौकाए वारदात पर मौजूद थी। या नायक को यह पता चल जाता है की मौकायेवारदात पर किसी स्त्री का आगमन हुआ था जो फलां सेंट लगाती थी। मैंने गौर किया है कि पाठक साहब के उपन्यासों में अधिकतर “चैनल ५” नामक इत्र का नाम आता है। पहले मैं इसे कल्पना ही समझता था लेकिन जब आज ...