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एन्ड जस्टिस फॉर आल

एंड जस्टिस फॉर आल


उपरोक्त लाइन की खासियत यह है कि इसमें ‘एन्ड’ के लिए मैंने ‘and’ का इस्तेमाल नहीं किया है बल्कि ‘end’ का इस्तेमाल किया है। बस एक अक्षर के बदलाव से पूरा समीकरण बदल गया है। न्याय – बहुत ही संजीदा शब्द है – कमाल की बात है की न्याय की बात करते-करते महाभारत का विध्वंशक युद्ध शुरू हो गया था। एक्चुअली न्याय शब्द के मायने बहुत है और इसका सम्मान करना चाहिए लेकिन क्या न्याय का सम्मान होता है। मुझे लगता है कि न्याय का बलात्कार होता है, रोज होता है, बार-बार होता है बस हमें खबर नहीं लगती।

हॉलीवुड के माचो मैन(काम से कम मेरे लिए तो) अल पचीनो के अदाकारी से भरपूर ड्रामा मूवी ‘….एन्ड जस्टिस फॉर आल’ को देखने का मौका मुझे पिछले हफ्ते ही मिला। आई.एम्.डी. बी. के अनुसार इस फिल्म को ‘क्राइम, ड्रामा, थ्रिलर’ की श्रेणी में रखा गया है जबकि मूवी में क्राइम के नाम पर कुछ ख़ास नहीं है और थ्रिलर के नाम पर तो कुछ भी नहीं है। यह कहानी एक वकील आर्थर किर्कलैंड की है, जो बाल्टिमोर के कोर्ट में प्रैक्टिस कर रहा है। अब जब कहानी वकील की है तो कोर्ट-रूम ड्रामा जरूर होगा – खैर कोर्ट-रूम ड्रामा उस लेवल का नहीं है जैसा मैंने सोचा था पर कोर्ट की प्रोसीडिंग्स जरूर हैं – जो देखे जाने लायक हैं क्योंकि उसको देखे बगैर कहानी को समझा नहीं जा सकता है। मैंने मूवी को अंत तक देखा लेकिन मुझे कोर्ट-रूम ड्रामा जैसा कुछ मिला नहीं।

आर्थर किर्कलैंड बाल्टिमोर कोर्ट में उतना कामयाब वकील तो नहीं है लेकिन फिर भी उसे कामयाब कहा जा सकता है। वह अपने क्लाइंट्स को डिफेंड करने के लिए (२ दफा) कोर्ट में आता है पर कोर्ट या यूँ कहूँ जज किसी पूर्वाग्रह ग्रसित हो उसके क्लाइंट्स को सज़ा सूना देता है वो भी वकील की दलील को पूरा सुने बिना। यह खडूस आदरणीय जज – जज हेनरी टी फ्लेमिंग (जॉन फोरसिथ) जब एक महिला के साथ किये गए बलात्कार एवं मारपीट के मामले इन धड़ा जाता है तो अपने डिफेंडिंग वकील के रूप में वह आर्थर किर्कलैंड को हायर करना चाहता है। वकील और जज साहब के बीच में ईंट और कुत्ते वाला बैर है – खैर जज साहब साम-दान-दंड-भेद आदि का सहारा लेकर अपनी बात मनवा ही लेते हैं। इस तरह आर्थर जज फ्लेमिंग का केस लड़ने के लिए मान जाता है लेकिन उसके मन में चल रहा द्वन्द बार-बार उसे किसी एक निश्चय पर पहुँचने नहीं देता।

एक्चुअली अगर देखा जाए तो यह कहानी ‘वकील’ के दृष्टिकोण से लिखी गयी और इसका फिल्मांकन भी इसी तरह किया गया है। एक वकील जो ईमानदारी से अपने क्लाइंट को डिफेंड करना चाहता है लेकिन जब ‘गिल्टी और नॉट गिल्टी’ का निर्धारण करने वाले न्यायाधीश ही केस का पूरा पक्ष सुने बिना निर्णय ले लें तब उस वकील के मन में झांककर देखने की जरूरत है। आप इस मूवी के जरिये उस वकील के अंदर झाँक सकते हैं – अगर यह मूवी भारत में बनती तो माननीय जज साहब पांच-दस देशी गाली तो वकील साहब निकाल ही लेते। आप इसी बात से वकील के मन की व्यथा समझ सकते हैं।

देखिये यह एक प्योरली ड्रामा मूवी है जिसमे क्राइम और कोर्टरूम का थोड़ा दखल है। यह बात मैं आपको पहले ही बता दे रहा हूँ क्योंकि आप अगर मूवी को कोर्ट-रूम ड्रामा, थ्रिलर और क्राइम से जोड़कर पहले ही अपने मष्तिष्क को तैयार कर लेंगे तो निःसंदेह इस मूवी का आनंद नहीं ले पाएंगे। ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि ऐसा मेरे साथ हुआ। मैं बैठा कोर्ट-रूम ड्रामा देखने लेकिन मुझे अंत तक ऐसा कुछ मिला नहीं। जिसके आधार पर मैं यह कह सकता हूँ कि फिल्म मुझे स्लो पेस वाला लगा। हालांकि कहानी मुझे पसंद आयी और वकील के नज़रिए से कहानी का मजा आप ले सकते हैं। अल पचीनो, जैक वार्डन एवं जॉन फोरसिथ की अदाकारी आपको पसंद आएगी। वहीँ जेफरी टेम्बोर की अदाकारी आपको गुदगुदा भी सकती है और सोचने पर मजबूर कर सकती है – यह आपके सोचने-समझने की क्षमता पर निर्भर करता है।

अगर आपने बहुत दिनों से ड्रामा मूवी नहीं देखा है तो इस मूवी देख डालिये। अगर आपको अपने न्यायप्रणाली पर गुस्सा आ रहा हो तो इस मूवी देख डालिये। अगर आप अन्याय होता हुआ नहीं देख पा रहे हैं तो इस मूवी को देख डालिये। बाकी आपको यह मूवी क्यों नहीं देखना चाहिए इस पर कमेंट करने वाला मैं कौन हो सकता हूँ।

आभार
राजीव रोशन

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