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एक करोड़ का जूता (Ek Karod Ka Joota) - Best Thrillers - Sir Surender Mohan Pathak

एक करोड़ का जूता (थ्रिलर)

*Spoiler Alert*

अभी कुछ दिनों पहले एक लाइन पढने को मिली थी –

“कोई इंसान जन्म से ब्राह्मण नहीं होता, बल्कि उसके कर्म उसे ब्राह्मण बनाते हैं।”

मैं इस लाइन को कुछ अलग तरीके से लेता हूँ कोई इंसान जन्म से उम्दा या महान इंसान नहीं होता, उसके कर्म उसे उम्दा और महान इंसान बनाते हैं। मैं वर्तमान में देख सकता हूँ, मैं क्या आप भी देख सकते हैं कि, किसी अच्छे इंसान का बेटा कई कुकर्मों में लिप्त पाया जाता है। एक अध्यापक जिसने अपनी पूरी जिन्दगी देश के भविष्य को संवारने को लगा दिया लेकिन जब उसका अपना बेटा ही ऐसे कर्मों में लिप्त हो जाए जिससे उसे बदनामी देखने को मिले तो क्या कहना। मेरा कहना है की किसी अच्छे इंसान के घर जन्म लेने भर से ही कोई अच्छा इंसान नहीं बन जाता है। अब इसकी उलटी दिशा में देखते हैं, किसी बुरे कर्म में लिप्त इंसान की संताने भी कई बार ऐसे कर्म कर जाती हैं की उन्हें अच्छे इंसानों में गिना जाता है। वैसे तो यह बेहद फ़िल्मी है और कल्पना भी, लेकिन इसका वास्तविकता से पूरा सम्बन्ध है। क्यूंकि जब आप अपने यादों को भूतकाल में ले जाते हैं तो आपको ऐसा ही कुछ जरूर मिल जाएगा।



कुछ ऐसी ही कहानी है “मोती आवतरमानी” की, जिसके पिता “गोलपाल यशवंतराय आवतरमानी” ने कई वर्षों पूर्व “इलेक्ट्रा कारपोरेशन” नामक कंपनी, जिसके वे चेयरमैन थे, में इतने घोटाले किये की एक दिवाली की रात उन्हें अपने इकलौते बेटे को छोड़कर देश से कूच कर जाना पड़ा। पिता के यूँ छोड़कर चले जाने पर “मोती” को कोई फर्क नहीं पड़ा बल्कि वह और मजबूत हो गया, क्यूंकि उसके पिता ने उसको आश्वासन दिया था की वह जल्द ही उसे भी अपने पास बुलाने की कोई जुगत भिडायेगा। यशवंतराय आवतरमानी के गायब होते ही पुलिस और “इलेक्ट्रा कारपोरेशन” में उसके प्रतिद्वंदी “कोतवाल” ने “मोती आवतरमानी” पर धावा बोल दिया और सवालों की झड़ी लगा दी। लेकिन “मोती आवतरमानी” से उन्हें निराशा के सिवा कुछ नहीं मिला। “यशवंतराय आवतरमानी” की सभी प्रॉपर्टीज और बैंक, कोर्ट द्वारा सीज कर दिया जाते हैं ताकि उन्हें नीलाम करके “इलेक्ट्रा कारपोरेशन” में किये घोटाले को भरा जा सके। “इलेक्ट्रा कारपोरेशन” पर “कोतवाल” का कब्जा हो जाता है। “मोती आवतरमानी” के परवरिश उसकी बुआ और अंकल के हाथों में आ जाती है। कुछ समय उसकी बुआ तो उससे अच्छा व्यवहार करती है लेकिन धीरे-धीरे “मोती” के साथ उसका व्यवहार बुरा होता जाता है। ऐसे में एक दिन मोती भाग खड़ा होता है और मिलता है रियल स्टेट एजेंसी के मालिक राज बुंदेला को, जो मोती की पूरी तरह से परवरिश करता है और मोती भी उसके मेहनत पर खड़ा उतारते हुए अपने पिता के चले जाने के १२ साल बाद एक रियल स्टेट एजेंसी का मालिक बन जाता है।

लेकिन “मोती” की कहानी में एक घुंडी ऐसी है जिसे कोई भी हल नहीं कर पाता। “यशवंत राय आवतरमानी” के गायब होने के एक साल बाद से ही “मोती” के पास अपने पिता के नाम से २००० रूपये का मनीआर्डर आना शुरू हो गया था जो कि मुतवातर आ ही रहा था। हर साल, अपने जन्मदिवस पर मोती को २००० रूपये का मनीआर्डर प्राप्त होता था। क्या पुलिस, क्या “कोतवाल” के जासूस और क्या पत्रकार, कोई भी इस मनीआर्डर भेजने वाले “यशवंत राय आवतरमानी” को ट्रेस नहीं कर पाता क्यूंकि हर साल यह मनीआर्डर भारत और विदेश से अलग-अलग पते से “मोती” के पास पहुँचते थे। यह एक ऐसा रहस्य था जिसे स्वयं मोती सुलझाना चाहता था ताकि अपने पिता को खोजकर वह उन पर लगे कलंकों के दाग को धो सके। लेकिन जब पुलिस जैसी बहुव्यापी संस्था ऐसा नहीं कर पायी तो वह क्या कर सकता था।

“मोती” की कहानी में एक और रहस्य है जो एक जूते के बारे में है। उसके पिता ने उसे बचपन में उस जूते के बारे में बताया था जिसमे वे हीरे छुपा कर रखते थे। उसके पिता ने उसे कहा था अगर कभी वह जूता वह अपने पिता को पहने देखे तो समझ ले की वह मुसीबत में थे और वह जूता ही उनकी मुसीबत का हल साबित हो सकता था। दिवाली की उस रात को जिस दिन उसके पिता उसे हमेशा के लिए छोड़ कर गए थे, उस दिन भी उन्होंने सफ़ेद जूते पहने हुए थे।

“मोती” के जीवन में रहस्यों की भरमार थी जिसमे एक रहस्य उस इंसान का था जिसके साथ उसके पिता दिवाली की रात को अचानक निकल गए थे और फिर कभी वापिस नहीं आये थे। उस रहस्यमयी इंसान के चेहरे की बनावट कुछ इस तरह की थी कि वह आदम के रूप में किसी तोते की प्रजाति का लगता था। उस रहस्यमयी इंसान ने “मोती” को धमकी दिया था की गर कभी वह उसके बारे में पुलिस को बताने की कोशिश करेगा तो वह उसका क़त्ल कर देगा।

इतने रहस्यों के जीवन जीता हुआ “मोती” बड़ा हुआ था लेकिन इसके साथ-साथ उसे अपने पिता द्वारा किये गए घोटाले के कारण उसे भारी बदनामी का सामना भी करना पड़ रहा था। चूँकि वह एक गबन के अपराधी का बेटा था तो कोई भी उसकी सहायता के लिए आगे बढ़ कर नहीं आ रहा था। बचपन में जिस तरह उसने पिता का बचाव किया था क्यूंकि उसे लगता था की जो उसके पिता ने किया वह सही था, अब उस तरह ही वह अपने पिता के अतीत से बचने की कोशिश में लगा था। राज बुंदेला और उसके अंकल ग्रेगरी के सिवा हर कोई उसे नफरत की नज़रों से देखता था।

ऐसे में उसके पिता के पार्टनर “चक्की” का उसके जीवन में १२ साल बाद फिर से आगमन होता है जो उसे यह खबर देता है कि वह उसके पिता को खोजने में सहायता करेगा। अगर वह जिन्दा या मुर्दा  मिल गए तो तो एक करोड़ की मिलकियत वाले हीरे वाले उस जूते में वह अपनी हिस्सेदारी चाहता था। उसने आश्वासन दिया की वह “यशवंत राय आवतरमानी” को खोज निकालने में उसकी पूरी तरह से सहायता करेगा क्यूंकि उसके पास कुछ ऐसे सबूत हैं जो उस इंसान को खोजने में सहायक सिद्ध हो सकते हैं जिसके साथ उसके पिता दिवाली की रात को अचानक कहीं चले गए थे।

इसके बाद “मोटी”, चक्की और इलेक्ट्रा कारपोरेशन के नए चेयरमैन “कोतवाल” की सहायता से अपने पिता को खोजने में जुट जाता है। यहाँ से शुरू होता है “मोती” की कहानी का सबसे थ्रिल कर देने वाला हिस्सा।

क्या मोती अपने पिता को जीवित खोज पायेगा या उसे अपने पिता के लाश से रूबरू होना पड़ेगा?

क्या मोती को वह जूता मिल पायेगा जिसमे उसके पिता ने हीरे छुपाये थे?

क्या मोती अपने पिता के हीरे खोजकर “इलेक्ट्रा कारपोरेशन” को सौंप कर अपने पिता के कर्मों द्वारा होती जा रही उसकी बदनामी के छीटों को बंद कर पायेगा?

क्या उस रहस्यमयी व्यक्ति से उसका फिर से सामना होगा जिसके साथ उसके पिता दिवाली की रात को अचानक निकल पड़े थे?

क्या वह कभी पता लगा पायेगा की अगर उसके पिता जीवित नहीं थे तो उसको हर वर्ष मनी-आर्डर कौन भेजता था?

सर सुरेन्द्र मोहन पाठक ने “मोती” की इस जीवन-यात्रा को एक उपन्यास का मूर्त रूप देकर नाम दिया है –“एक करोड़ का जूता”। ऊपर जितने सवाल हैं, सभी के जवाब सिर्फ इस उपन्यास को पूरा पढने पर हासिल हो सकता है। रोमांच और रहस्य से भरपूर उपन्यास प्रत्येक पाठक का भरपूर मनोरंजन करने के काबिल है। इस शानदार कहानी के प्रणेता सर सुरेन्द्र मोहन पाठक जी का यह 19 वां थ्रिलर उपन्यास था जिसे पहली बार जून – १९८५ में प्रकाशित किया गया था। लेकिन ३० वर्ष बाद भी इस कहानी का रहस्य और रोमांच बरकरार है जो बार-बार पाठकों को इस उपन्यास को पढने के लिए प्रेरित करता है।

मेरा मानना है कि जितनी शानदार इस उपन्यास की कहानी है उतने ही शानदार इस उपन्यास के किरदार हैं। चाहे वह “ग्रेगरी” हो, जिसने युवा मोती की हर बार सहायता की या “राज बुंदेला” हो, जिसने मोती का सरपरस्त बन कर उसके अँधेरे भरे जीवन में रौशनी का काम किया। राज बुंदेला ने इस बात की परवाह नहीं की मोती एक गबन के अपराधी के बेटा है। उसने मोती को अपने बेटा जैसा ही पाला पोसा और इस काबिल बनाया की वह अपने पिता के द्वारा किये गए कुकर्मों को जो उसके माथे पर बने बदनुमा दाग लगा रहा था, धो सके। चाहे वह मोती की आया “रानी” हो जो उसे माँ के बराबर का प्यार देती थी या उसकी आंटी “सोफ़िया” जिसने “मोती” को जिदंगी से लड़ने का मौका दिया। चक्की, तम्हाने, कोतवाल और भट्टाचार्य जैसे किरदार ने इस उपन्यास में जान देने का काम किया। वहीँ इस उपन्यास के केंद्र में मौजूद तीन किरदार, “मोती आवतरमानी”, “यशवंतराय आवतरमानी” और “रहस्यमयी व्यक्ति” ने इस उपन्यास को अंत तक जीवंत रखा।

उपन्यास की पृष्ठभूमि दिल्ली शहर है जहाँ रोज ही नए घोटाले होते हैं। लेकिन पाठक साहब ने इस कहानी को एक अलग ही ढंग से कहा है। इस कहानी को तीन हिस्से में बाँट दें तो बेहतर होगा। पहला हिस्सा जिसमे युवा “मोती आवतरमानी” को अपने पिता के बदनुमा दाग से जूझते हुए दिखाया गया है। दूसरा हिस्सा, “मोती आवतरमानी” को फ़्लैशबेक में ले जाकर उसके बचपन को दिखाता है जब उसके पिता घोटाला कर रहे होते हैं और अचानक एक दिन गायब हो जाते हैं। तीसरा हिस्सा इस उपन्यास का सबसे शानदार हिस्सा है जिसमे “मोती आवतरमानी” अपने पिता की तलाश में निकलता है। ये तीनों हिस्से मिलकर इस उपन्यास को परिपूर्ण करते हैं। ३० वर्षों बाद भी पाठकों को इस उपन्यास की कहानी इतनी मुतमुइन करती है की इसे वे अपने पाठक साहब के सर्वश्रेष्ठ उपन्यासों की श्रेणी में रखते हैं।

अगर आपने इस उपन्यास को नहीं पढ़ा तो पढ़िए और जानिये की कैसे इंसान अपने कर्मों से एक उम्दा आदमी बन कर उभरता है न की अपने जन्म से।

आप इस उपन्यास को अपने मोबाइल पर “न्यूज़-हंट” एप्लीकेशन पर ई-बुक में भी पढ़ सकते हैं:



आभार
राजीव रोशन


Comments

  1. 'एक करोड़ का जूता' एक बेहतरीन रचना है।‌ कहानी बहुत ही रोचक है।
    www.sahityadesh.blogspot.in

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