गुनाह का कर्ज – श्री सुरेन्द्र
मोहन पाठक
गुनाहगार चाहे गुनाह
करके कितना भी बचने की कोशिश करे लेकिन वह अपने आप को कानून
के लम्बे हाथों से बचा नहीं सकता। कई गुनाहगार गुनाह करके बच तो जाते हैं
परन्तु जिन्दगी भर उनको इस गुनाह के भेद खुलने का डर समाता रहता है। कई गुनाहगार
अपने एक गुनाह को कानून से छुपाने के लिए गुनाह पर गुनाह करते जाते हैं।
“गुनाह का कर्ज”
भी पाठक साहब के द्वारा लिखित ऐसा ही
उपन्यास है जिसमे मुख्य किरदार अपने एक गुनाह को छुपाने के कई गुनाह करता जाता
है। वह भरसक कोशिश करता है की कानून के हाथ उसके तक ना पहुँच सके लेकिन फिर
भी वह बच नहीं पाता।
“गुनाह का कर्ज”
श्री सुरेन्द्र मोहन पाठक द्वारा रचित
१८१ वां शाहकार उपन्यास है जो सन १९९१ में मई माह में पहली बार प्रकाशित हुआ था। पाठक
साहब के थ्रिलर उपन्यासों की श्रेणी में इस उपन्यास का स्थान ३१ वां आता है।
वैसे तो, श्री सुरेन्द्र मोहन पाठक साहब सीरिज पर आधारित उपन्यास लिखते हैं
जिसमे उनके मुख्य किरदार या हीरो सुनील,
सुधीर या विमल होते हैं लेकिन पाठक साहब
ने थ्रिलर या विविध श्रेणी के उपन्यासों में भी ख्याति प्राप्त की है। डायल
१००, कागज़ की नाव, तीन दिन सरीखे उपन्यास तो ऐसे क्लासिक कृतियाँ हैं जिनसे पाठक
साहब के उस स्तर के लेखन का पता चलता है जिसका हर पाठक वर्ग तमन्नाई होता
है।
“गुनाह का कर्ज”
एक ऐसे व्यक्ति प्रदीप मेहरा की कहानी
है जिसने अपनी पत्नी की हत्या कर दी थी लेकिन कानून के चंगुल से बच गया था। प्रदीप
मेहरा एक ऐसा व्यक्ति था जो प्रिंटिंग प्रेस की आड़ में जाली नोटों का धंधा करता था।
हत्या के गुनाह से बच जाने के बाद,
कानून से सजा ना मिल पाने के बाद, कानून को दिन दहाड़े
धोखा देने के बाद उसके अन्दर इतनी ताक़त, शक्ति और जोश आ गया
था की उसने अपनी प्रिंटिंग प्रेस के व्यवसाय की आड़ में जाली नोटों को बनाने का
और उसे चलाने का काम शुरू कर दिया था। उसने १० रूपये के जाली नोट छपने और चलाने
से यह गैरकानूनी काम शुरू किया था और धीरे धीरे एक साल के अन्दर ५००
रूपये के नोट चलाने तक उसकी क्षमता और योग्यता हो गयी थी। इस काम में उसका
साथ दिया था उसके अनुभव ने, जो की उसने एक सरकारी नौकरी के दौरान हासिल किया था और
प्रिंटिंग प्रेस के पेशे ने। अब बड़े ही आराम से अपने जीवन को बहुआयामी
तरीके से जी रहा था। जाली नोटों को चलाने के लिए उसने कई प्रकार के अलग अलग वेश
बदलने का सामान इकठ्ठा किया था ताकि कोई उसको मुख्य रूप में पहचान ना सके।
एक बार में, प्रदीप मेहरा की
मुलाक़ात विवेक से होती है जो पेशे से एक ऑटोमोबाइल इंजीनियर है। बातों और जामों के दौरान दोनों को यह पता चलता है
की प्रदीप मेहरा अपनी खुली छत वाली जीप बेचना चाहता है और विवेक अपनी मारुती बेचना
चाहता है। दोनों में बात फाइनल हो जाता है। प्रदीप मेहरा, विवेक की मारुती को
अपनी जीप और ५००० रूपये के बदले खरीद लेता है। प्रदीप मेहरा, विवेक को अगले दिन
अपने प्रिंटिंग प्रेस ऑफिस में आकर ५००० रूपये ले जाने को कहता है।
अगले दिन विवेक, प्रदीप मेहरा के ऑफिस में पहुँचता है जहाँ उसकी मुलाक़ात वर्षा
सक्सेना से होती है जो की उसी के गाँव के रहने वाली है बहुत सालों बाद उसके
मुलाक़ात हुई है। वर्षा सक्सेना भी उससे मिलकर खुश होती है। वर्षा सक्सेना फ़ोन
पर प्रदीप मेहरा को
बताती है की विवेक
५००० रूपये लेने आया है। वर्षा सक्सेना विवेक को चेक देती है
लेकिन विवेक चेक लेने से मना कर देता है और नकद में ५००० रूपये देने को कहता
है। वर्षा सेफ में रखे एक लिफाफे में मौजूद ५०० रूपये के नोटों की उस गड्डी
में से १० नोट विवेक को दे देती है जो की प्रदीप मेहरा ने नकली रखे थे।
विवेक उसे अगले दिन
लंच पर ले जाने को कह कर चला जाता है। प्रदीप
मेहरा प्रिंटिंग प्रेस पहुँचता है और उस लिफ़ाफ़े को लेकर अपने बहुरूप में उन
नोटों को चलने के लिए मार्किट में जाता है। तभी उसे लिफाफे में मौजूद नोटों की
संख्या कम लगती है साथ ही उसे उस लिफाफे में विवेक के नाम का कटा गया चेक दिख
जाता है। यह देख कर प्रदीप मेहरा के होश उड़ जाते हैं। उसे लगने लग जाता है की
शायद अब पुलिस के द्वारा उसे पकड़ा जाना तय है। लेकिन प्रदीप मेहरा को अपनी किस्मत
पर भरोसा है और कोशिश करता है की विवेक द्वारा उन ५०० के नोटों को खर्च करने
से पहले ही उससे वो नोट ले लिए जाए। और ऐसा करने के लिए वह कोई भी तरीका इख्तियार
करने को तैयार हो जाता है। चोरी, सेंधमारी, पोकेटमारी, क़त्ल आदि कार्य उसे आसान लगने लग जाते हैं क्यूंकि वह कानून के चंगुल
में फंसना नहीं चाहता है।
प्रदीप मेहरा बड़े ही
शानदार, सहज और पूर्ण रूप से अभेदित षड़यंत्र या जाल पर कार्य
करता है। यह जाल वह खड़े पैर तैयार करता है। प्रदीप मेहरा पूरी कोशिश करता है
की वह विवेक से अपने नकली नोट किसी भी तरह वापिस ले ले। प्रदीप मेहरा विवेक का
क़त्ल कर देता है जिसके लिए वह एक ऐसे जाल को तैयार करता है जिसमे वह खुद नहीं
फंस सकता जिसमे उसका सबसे बड़ा साथ उसका बहुरूप देता है। लेकिन प्रदीप मेहरा के
किस्मत को कुछ और ही मंजूर था शायद। विवेक के क़त्ल के पश्चात उसे विवेक के पास
से सिर्फ ४ नोट ही ५०० के प्राप्त होते हैं। वह विवेक के पर्स की अच्छी तरह
तलाशी लेता है तो उसमे उसे एक रशीद मिलती है। इस रशीद के अनुसार विवेक ने अपनी
प्रेमिका मोनिका को ३००० रूपये यानि कि पांच सौ के ६ नोट संभाल कर रखने के
लिए दिए थे। अब प्रदीप मेहरा के दिमाग यह बात आती है की कैसे वह मोनिका से पांच
सौ के ६ नकली नोट वापिस ले सकता है। वह एक और क़त्ल का इरादा बना लेता है।
प्रदीप मेहरा सोचता
है की एक क़त्ल की भी वही सजा है और ३ क़त्ल की भी वही सजा है तो
क्यूँ न वह अपने आप को बचाने की एक और कोशिश कर ले। प्रदीप मेहरा मोनिका का भी क़त्ल कर देता है। वह अपने अपने तक आने वाले हर सबूत को मिटा
देता है। वह विवेक और मोनिका के क़त्ल को यह साबित करने की कोशिश करता है की
जैसे चोरी और पोकेट्मारी के दौरान उनका क़त्ल हुआ हो।
अगले दिन पुलिस
इंस्पेक्टर भगत जो की प्रदीप मेहरा को जिगरी दोस्त भी है वह विवेक
और मोनिका की तफ्तीश करने आता है। पुलिस को प्रदीप मेहरा के बारे में जानकारी
कार और जीप के सौदे के कागज़ से लगती है। इंस्पेक्टर भगत उसे सभी शक से बरी
कर देता है। लेकिन समस्या तो तब उत्पन्न होती है जब प्रदीप मेहरा की
सेक्रेटरी वर्षा सक्सेना विवेक के क़त्ल में दिलचस्पी लेनी शुरू कर देती है।
मैं ऐसा तो नहीं
कहूँगा दोस्तों की इसके बाद कहानी में एक दिलचस्प मोड़ आता है लेकिन
प्रदीप मेहरा और कानून के बीच में चूहे और बिल्ली की दौड़ जो उसकी पत्नी के क़त्ल
के बाद से लगी हुई थी वह तेज़ हो जाती है। ऐसा लगता है की अभी इस पन्ने पर प्रदीप
मेहरा का अंजाम लिखा जाएगा और अभी अगले पन्ने पर। कानून के साथ प्रदीप मेहरा की
भागदौड़ और अपने किश्मत को अपने दिमाग से धोखा देने वाली इंसान की हरकत
देख कर हम हैरान हो जाते हैं। जब से प्रदीप मेहरा को पता चलता है की पांच सौ
के १० नोट उसके लिफ़ाफ़े से गायब हैं तब से कहानी इतनी मजेदार हो जाती है की पूछिए
मत। पाठक साहब ने इस कहानी को बिलकुल ही अलग तरीके से पेश किया है। पाठक साहब
ने किरदार दर किरदार, प्रत्येक किरदार की कहानी को अलग अलग हिस्सों में दिखाया
है। जैसे की उपन्यास की शुरुआत वर्षा सक्सेना के किरदार से होता है।
फिर प्रदीप मेहरा की
कहानी आती है उसी की जुबानी। इस भाग में प्रदीप मेहरा इस बात की
तसदीक करता है की कैसे उसने अपने पत्नी की हत्या की थी और फिर कैसे वह कानून
के आँखों में धुल झोंक के साफ़-सुथरा निकल गया। फिर विवेक और मोनिका की कहानी
आती है। इसी तरह से पाठक साहब ने कहानी को किरदार दर किरदार आगे बढाया है।
जिस प्रकार से पाठक
साहब ने कहानी को अलग तरीके से पेश किया है उसी तरह प्रत्येक किरदार को खूबसूरती से रचा भी है। पाठक साहब ने
प्रत्येक किरदार के चरित्र चित्रण,
भाव,
उसके भूत और वर्त्तमान के घटनाओं को
बहुत ही खूबसूरती से पेश किया है जिसके कारण प्रत्येक किरदार अपने आप में शसक्त नज़र
आता है। वर्षा सक्सेना का किरदार पहले पन्ने से शुरू हो कर आखिरी पन्नों तक
चलता है। ऐसा ही प्रदीप मेहरा के किरदार के लिए भी पाठक साहब ने किया है। विवेक
और मोनिका का किरदार भी कम आंकने योग्य नहीं है। उनके किरदार का भी भरपूर
इस्तेमाल किया गया है जो की इस कहानी की जरूरत को भी दिखाता है। कहानी के आखिरी
किरदार इंस्पेक्टर भगत का किरदार कदरन छोटा है पर कानून के मुहाफ़िज़ के
रूप में बहुत ही सुन्दर है।
कहानी के मध्य में तो
ऐसा लगता है की सच में प्रदीप मेहरा तीन क़त्ल करके बच जाएगा।
ऐसा लगता है की कानून के पहुँच से अभी भी वह कोसों दूर है। पाठक साहब ने
प्रदीप मेहरा को शसक्त बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। मूल रूप से इस कहानी का
मुख्य अभिनेता और खलनायक दोनों ही प्रदीप मेहरा ही है। अपने अंजाम से त्रस्त प्रदीप
मेहरा ऐसे कदम उठा लेता है जिससे उसके गुणों की फेहरिश्त लम्बी होती जाती है।
पुलिस के पास वह कोई सबूत भी नहीं छोड़ता जिससे की वह पकड़ा जा सके। प्रदीप मेहरा
खड़े पैर ही परफेक्ट क्राइम की बिसात फैलाता है और धीरे धीरे वह यह शतरंज का
खेल भी जीत जाता है। उसे लगने लगता है की जिस प्रकार से उसने अपनी पत्नी की हत्या
से अपने आप को बचाया है वैसे ही वह इस बार भी बाख जाएगा। और अन्ततः वह बच
भी जाता है। लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर होता है। जिसको गुनाह की सजा कानून नहीं दे पाता उसे सजा देने के लिए
ऊपर वाला मजूद होता है। किन प्रदीप मेहरा को सजा ना तो ऊपर वाला देता है और
ना ही कानून।
प्रदीप मेहरा को सजा
जरूर मिलता है।
यह एक बहुत ही सुन्दर
बिंदु है पाठक साहब के उपन्यासों में (विमल सीरीज को छोड़कर)
गुनाहगार को सजा जरूर मिलती है। चाहे उसने सजा से बचने की कितनी भी कोशिश
की हो। चाहे पाठक साहब ने उसके हाथ में किस्मत के सारे पत्ते दे दिए हो फिर
भी एक सुखद अंत जरूर होता है। गुनाहगार को सजा जरूर मिलती है।
उपन्यास का शीर्षक “गुनाह का कर्ज” क्यूँ रखा गया, यह आप खुद उपन्यास पढ़
कर जाने तो बहुत ही अच्छा रहेगा। पाठक साहब ने इस कहानी में मेरे
हिसाब से तो कोई भी ऐसा बिंदु नहीं छोड़ा जिससे कोई आलोचना हो सके। या यूँ कहा
जा सके की यह उपन्यास में यह कमी और वह कमी है। कुछ उपन्यासों के कथानक का
बहाव इतना तीव्र होता है की आप उसके अन्दर स्थित खामियों को पकड़ नहीं पाते हैं।
पाठक साहब ने आरम्भ से लेकर अंत तक कहानी में अपनी पकड़ को बनाये रखा है।
पाठक साहब की यह उपन्यास थ्रिलर या विविध उपन्यासों की श्रेणी में एक शाहकार
रचना है।
मैं आप सभी को
प्रोत्साहित करूँगा की आप इस उपन्यास को जरूर पढ़े। यह आदि से अंत
तक रोमांच एवं रहस्य से भरा हुआ उपन्यास है।
आभार सहित
राजीव रोशन
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