गुनाह का कर्ज (The Debt of Crime)
Written By- Sir Surender Mohan Pathak
अरस्तु ने कहा था “गरीबी, क्रांति और अपराध की जनक
होती है।”
सत्य ही कहा था उन्होंने और मेरे ख्याल से आप सभी भी इस
बात से सहमत होंगे।
प्रदीप मेहरा, एक आम इंसान था जो अपना प्रिंटिंग प्रेस
चलाता था। लेकिन उसकी जिन्दगी की सबसे बड़ी समस्या और कोई नहीं उसकी बीवी थी। वह
गरीब नहीं था लेकिन उसकी पत्नी ने ऐसी समस्याएं उत्पन्न कर दी थी जिसके कारण वह
गरीब से कम भी नहीं था। लेकिन जुर्म की ओर उसके कदम ऐसे नहीं पड़े। प्रदीप मेहरा
जहाँ एक-एक रुपया इकठ्ठा करने वाला इंसान था वहीँ उसकी बीवी पैसों को पानी की तरह
बहाती थी। प्रदीप मेहरा की क्या परेशानी थी और वह किस तरह से पैसे कमाता था इससे
उसे कोई मतलब नहीं था।
उसकी बीवी का कहना था – “ मर्द की जिस कमाई से औरत
की ख्वाहिशात पूरी न हों, उसके अरमान न निकलें, वो कमाई कम ही कहलाएगी। बीवी
अफोर्ड नहीं कर सकते थे तो शादी क्यों की।”
प्रदीप मेहरा जहाँ एक पत्नीव्रत धारण किये हुए था वहीँ
उसकी पत्नी इस बात को लेकर खुल्ला खेल खेलने लगी थी। इतने से भी कम नहीं पडा था तो
उसने प्रदीप मेहरा के ज़मीर को इस तरह ललकारा की उसने उसकी जुबां और महत्वाकांक्षा
के साथ-साथ, उसका भी गला घोंट दिया।
“दरअसल अपराध उसका ये नहीं था कि उसने उस औरत का क़त्ल
किया था, अपराध उसका ये था कि उसने उस औरत से शादी की थी।”
अपनी पत्नी की हत्या के बाद वह साफ़-सुथरा, बिना शक के
कानून के हाथों में फंसने से बच गया था। लेकिन इस अपराध से बच निकलने के बाद उसके
अन्दर एक और अपराध करने का हौसला पैदा हो गया। उसने नकली/जाली नोटों को बनाना और
उनको चलाना शुरू कर दिया था। वह बहुत ही शानदार और बेहतरीन सिस्टम से इस काम को
भुना रहा था और पुलिस और कानून को इसकी भनक भी नहीं थी। अब उसके लिए पैसा ही सब
कुछ था। उसका कहना था –
“आज की दुनिया की सारी काबिलियत दौलत थी। दौलत हज़ार
नाकाबिलियतों पर पर्दा डालती थी तो लाख काबलियतों से दौलतमंद को नवाजती थी। पैसे
वाला आदमी खामखाह ही दुनिया को काबिल लगने लगता था। कोई एक इकलौती आइटम अगर मोरी
के कीड़े की भी औकात बना सकती थी तो वो दौलत थी। झूठा और फरेबी था वो शख्स, गरीब
आदमी को गुमराह करने वाला था वो शख्स जिसने कहा था कि पैसा ही सब कुछ नहीं।”
प्रदीप मेहरा, देखने में ऐसा शख्स लगता था, जिसने कभी एक
मक्खी न मारी हो। अपने कर्मचारियों और मित्रों के साथ उसका व्यवहार बहुत ही शांत
और सदाचार प्रिय था। उसको देख कर किसी को विश्वास नहीं हो सकता था की वह शख्स जाली
नोटों का गैरकानूनी धंधा करता था और अपनी बीवी का ही क़त्ल करके साफ़-साफ़ बच निकला
था। अपने प्रिंटिंग प्रेस की व्यवसाय ने भी उसे इस धंधे को चमकाने में मदद किया था।
वहीँ दिल्ली पुलिस में उसका एक सब-इंस्पेक्टर दोस्त था जिससे उसको उम्मीद थी की
बुरे वक़्त में वह सहायता कर सकता था।
ये तो हुआ इस उपन्यास के मुख्य किरदार का हल्का-फुल्का
चरित्र-चित्रण। आइये आपको कहानी के अगले हिस्से में ले चलूँ जो इस उपन्यास के
बुनियाद का काम करती है। प्रदीप मेहरा ने विवेक जैन से एस्टीम खरीदा था और अपनी
खुली हुई जिप्सी उसे बेची थी। इसके लिए प्रदीप मेहरा ने विवेक जैन को ५००० रूपये
देने थे। जब विवेक जैन तयशुदा वक़्त पर अपने ५००० रूपये लेने के लिए उसके प्रिंटिंग
प्रेस जाता है तो वहां उसे प्रदीप मेहरा की जगह वर्षा सक्सेना मिलती है जो उसी
ऑफिस में रिसेप्शनिस्ट एवं अकाउंटेंट की नौकरी कर रही होती है। वर्षा सक्सेना और
विवेक जैन पहले से एक दुसरे के जानकार थे जो लगभग ६ साल बाद मिले थे। वर्षा
सक्सेना अपने बॉस प्रदीप मेहरा के आज्ञानुसार विवेक जैन को ५००० रूपये का चेक देती
है लेकिन विवेक जैन को नकद रुपया चाहिए था। इसलिए वर्षा सक्सेना चेक रखकर, उसे
ऑफिस के सेल्फ में रखे एक भूरे लिफ़ाफ़े से ५००० रूपये नकद दे देती है।
यही वो ५००० रूपये हैं जो प्रदीप मेहरा के लिए जी का
जंजाल बन जाते हैं। बाद में प्रदीप मेहरा को पता चलता है की वर्षा ने विवेक को उस
भूरे लिफ़ाफ़े से ५००० रूपये निकाल कर दिए हैं जिसमे उसने नए-नकोर ५०० रूपये के जाली
नोट बनाकर रखे थे। यह बात दिमाग में आते ही उसके होश उड़ जाते हैं। वह अपने आगामी
जीवन की कल्पना काल-कोठरी मे बिताये जाने की करने लगता है। लेकिन फिर उसके दिमाग
में आता है की अगर वह कोशिश करे तो विवेक जैन से ५००० रूपये फिर से हासिल कर सकता
है। इस ५००० रूपये को हासिल करने के लिए वह किसी भी हद तक जाने को तैयार हो जाता
है।
अब यह देखने वाली बात है की वह इन ५००० रूपये को हासिल
करने के लिए जुर्म के किस रास्ते को अख्तियार करता है और कौन सी मंजिल पाता है।
क्या अपनी बीवी का क़त्ल करके साफ़-साफ़ बच निकलने वाला इंसान फिर से जाली नोटों के
गैरकानूनी धंधे करने के अपराध से अपने आपको साफ़-साफ़ बचा पायेगा?
क्या प्रदीप मेहरा वही आत्मविश्वास अपने अन्दर जगा पायेगा
और अपनी किस्मत के साथ बाजी जीत पायेगा जैसा उसने अपनी बीवी के क़त्ल के बाद पाया
था?
क्या बिना कोई जुर्म/अपराध किये प्रदीप मेहरा, विवेक जैन
से ५००० रूपये हासिल कर पायेगा?
क्या उसे अपने गुनाह का कर्ज चुकाना था या किसी और ने
अपने गुनाह कर्ज चुकता करना था?
आपको सभी सवालों के जवाब इस उपन्यास को पढने के बाद मिल
जायेंगे?
सर सुरेन्द्र मोहन पाठक जी द्वारा लिखा गया यह उपन्यास मई
१९९१ में पहली बार प्रकाशित हुआ था। थ्रिलर श्रेणी के अंतर्गत आने वाले इस उपन्यास
का क्रमांक ३१ वां था। इस उपन्यास का प्रस्तुतीकरण बहुत ही शानदार है जिससे पता
लगता है की पाठक साहब ने अपनी कलम को जबरदस्त धार देकर इस उपन्यास की रचना की है।
इस उपन्यास को पाठक साहब के सर्वश्रेष्ठ उपन्यासों की श्रेणी में गिना जाता है। इस
कहानी के किरदार आम जन-जीवन में विचरते लोगों जैसे ही लगते हैं। पाठक साहब ने सभी
किरदारों का चित्रण बखूबी किया है, जो ज़मीनी स्तर के लगते हैं। उपन्यास की कहानी
पूरी तरह खुली हुई है। मतलब जैसा मर्डर-मिस्ट्री उपन्यासों में होता है की बहुत
कुछ छुपा-छुपा होता है जिसका खुलासा परत-दर-परत होता जाता है। ऐसा कुछ इस उपन्यास
में नहीं है। रहस्य का पुट न होने के बावजूद इस उपन्यास का रोमांच देखने और पढने
लायक है।
एच.जी. वेल्स ने कहा था – किसी भी राज्य या देश के असफल
होने के मूल्यांकन के लिए जुर्म महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। सभी जुर्म चाहे वो
छोटे हों या बड़े, अंत में, समाज का अपराध साबित होते हैं।
बहुत खूब कहा उन्होंने। एक साक्षात्कार में पाठक साहब से
एक व्यक्ति ने पूछा की कई बार देखा गया है की आपकी उपन्यासों से प्रेरणा पाकर
जुर्म हुए हैं। इस पर पाठक साहब का कहना था की अगर हम रोजाना अखबारों में छपे
जुर्मों कि संख्या को देखें तो उसके हिसाब से तो मैं साल में सिर्फ एक ही
क्राइम-फिक्शन उपन्यास लिखता हूँ। यहाँ, ये बात गौरतलब हो जाती है की किसी अमुक
व्यक्ति के द्वारा किया गया अपराध उसके लिए स्वयं के लाभ और हानि के लिए होता है
लेकिन अंततः वह समाज का अभिन्न अंग बन जाता है। कभी-कभी तो समाज ऐसे अपराध को
बार-बार दोहराता है लेकिन उससे बचाव के किसी ऐसे तरीके का आजतक ईजाद नहीं कर पाया
है जो इसे समूल नष्ट कर दे। ऐसे अपराधों को समाज से नेस्तानाबूद कर दे। जिस प्रकार
से पाठक साहब अपने उपन्यासों में अपराध की रूप-रेखा खींचते हैं वह सामन्यतः आम
जीवन में घटित अपराध की कहानियों की तरह ही लगती हैं। इस उपन्यास में भी आपको ऐसा
ही कुछ देखने को मिल सकता है।
अंत में मैं यह कहना चाहूँगा की – “हम ऐसे समाज की
कल्पना भी नहीं कर सकते जो अपराध मुक्त हो। हम इसे कम कर सकते हैं लेकिन अपराध को
पूरी तरह से समाप्त नहीं किया जा सकता और जो व्यक्ति, समाज, सरकार ऐसा कहता है वह
हमें बस भ्रमित करना चाहता है। हम अपने अन्दर के शैतान को अगर नियंत्रित कर लें तो
अपराध दर जरूर कम हो सकती है और इतनी कोशिश अगर सभी करनी शुरू कर दें तो जरूर एक
दिन अपराध की दर शुन्य के करीब पहुँच जाएगी।”
आपको यह उपन्यास और इस समीक्षा को पढ़ कर कैसा लगा, जरूर
बताइयेगा। आपके सुझाव का हमेशा इंतज़ार रहेगा।
इस पुस्तक को आप न्यूज़-हंट एप्लीकेशन पर ई-बुक में पढ़
सकते हैं, लिंक निम्न है:-
http://ebooks.newshunt.com/Ebooks/default/Gunah-Ka-Karz/b-53666
आभार
राजीव रोशन
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