ऊपर लिखे गए शब्द न मेरे लिए हैं और न आपके लिए। राजनीति से से तो इसका दूर-दूर से कोई नाता ही नहीं। क्यूंकि आजकल अगर कोई प्रेम से भरी शायरी भी लिख जाता है तो लोग उसे किसी न किसी तरीके से राजनीती से सम्बंधित जरूर कर लेते हैं। ऊपर लिखे गए शब्द “लूज़र कहीं का” एक पुस्तक का नाम है, जिसे पंकज दुबे जी ने लिखा है। यह किताब मुझे मेरे मित्र “लोकेश गौतम” के सदके प्राप्त हुई। लोकेश ने बड़े सिद्दत के साथ मुझे यह किताब पढने के लिए कहा था और जब मैंने किताब के पीछे छपे टैग-लाइन को पढ़ा तो मेरे अन्दर किताब को पढने कि इच्छा अपने आप ही जग गयी।
“लूजर कहीं का” कहानी है एक ऐसे लड़के की जो बिहार से दिल्ली पढ़ाई करने आता है। उसके पिता की सिर्फ एक ही तमन्ना है, सिर्फ एक ही ख्वाहिश है कि उनका बेटा आईएस या आईपीएस अफसर बन जाए। बेटा अपने पिता कि ख्वाहिश को पूरा तो करना चाहता है लेकिन अपने मूल्यों पर। वह उन आम फूहड़ बिहारी लड़कों कि तरह नहीं रहना चाहता है। उसको अपने माता-पिता द्वारा दिया गया नाम पसंद नहीं है। उसको स्टाइलिश कपड़े पहनने हैं जैसा दिल्ली के लड़के पहनते हैं। उसको अंग्रेजी सीखनी है, वो भी फर्राटेदार ताकि अपना एक स्टेटस बना सके। उसको एक ऐसी लड़की की भी ख्वाहिश है जो देखने में बिलकुल दुधिया रंग कि हो। खैर, ऐसे ही कुछ सपने लेकर वह दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास पढने के लिए प्रवेश लेता है और मुखर्जी नगर के एक फ्लैट में पी.जी. के रूप में रहना शुरू करता है।
जिन लड़कों के साथ वह अपना कमरा साझा करता है वे भी यूपीएससी के विद्यार्थी हैं लेकिन पुरे पके हुए विद्यार्थी हैं। इसी कमरे से इस बिहारी लड़के “पैक्स” की कहानी आगे बढती है। इससे आगे उसे अपने साथी लड़कों के रहन-सहन और हुकूमत के तले अपने सपने को पूरा करने के लिए कदम आगे बढ़ाना होता है। उसके पास इंग्लिश स्पीकिंग के कोर्स के लिए फीस के पैसे नहीं होते तो वह चोरी करता है और फीस जमा करता है। उसको अपनी सपनों कि रानी भी मिल जाती है जिसके लिए वह अपना कॉलेज जाना बंद कर देता है। वह अपनी इस मिल्की वाइट लड़की के खातिर, अपने प्यार के खातिर कॉलेज कि राजनीती में भी कूद जाता है।
कहानी एक मध्यमवर्गीय लेकिन महत्वाकांक्षी बिहारी लड़के से सम्बंधित है, जो आता तो है अपने और अपने पिता जी के सपने पूरा करने के लिए लेकिन फिर एक लड़की के प्यार के लिए अपना रास्ता भटककर अपने दोस्तों और साथियों का भी साथ छोड़ देता है। इस कहानी में पाठक को वह सब कुछ मिल जाएगा जिसे उसने अपने कॉलेज के दिनों में महसूस किया होगा। कॉलेज के साथियों के साथ कि गयी मस्ती, हॉस्टल में रहने का मजा, मेस का खाना, अपनी बालकनी में खड़े होकर लड़कियों को देखना, पैसे को पहले बेतहाशा खर्च करना फिर जब खत्म हो जाए तो पैसा कहाँ से आये उसके बारे में सोचना।
इस कहानी को पढ़ कर महसूस होता है कि कॉलेज लाइफ कितनी शानदार होती है। इस कहानी को पढ़ कर महसूस होता है कि के परिवार अपने बेटे से कितनी ख्वाहिशें रखता है। जबकि बेटे कि ख्वाहिश के बारे में परिवार को कुछ सोचना ही नहीं। पिता कि महत्वाकांक्षा बेटे के ऊपर थोप दी जाती है जो कि सरासर गलत है। वहीँ विश्वविद्यालयों में हो रही धांधली, स्टूडेंट यूनियन और उसके चुनाव पर भी लेखक ने सुन्दर तरीके से गौर फरमाया है।
मुझे इस कहानी में हंसी-मजाक, रोमांस, सस्पेंस, थ्रिल और सामाजिक समस्याएं सब नज़र आयीं। पंकज दुबे जी, लेखक, स्क्रीनराइटर, डायरेक्टर एवं प्रोडूसर हैं। यह उनकी पहली पुस्तक है जिसे बहुत खूबसूरती से उन्होंने पाठकों के सामने हिंदी एवं अंग्रेजी दोनों ही प्रस्तुत किया है। पंकज दुबे जी ने बीबीसी वर्ल्ड सर्विस एवं टीवी टुडे समूह में भी कार्य किया है। पुस्तक का कवर बहुत ही हास्यास्पद लगता है जिसमे एक लड़के को बू-शर्ट एवं पेंट में गाय के ऊपर बैठा दिखाया गया है। किताब की साज-सज्जा एवं प्रस्तुतीकरण के कार्य को पेंगुइन ने अच्छी तरह से निभाया।
आप भी एक बार कोशिश कीजिये इस किताब को पढने की। जरूर नहीं की जो किताबें महान एवं बेस्ट-सेलर लेखक द्वारा लिखी जाएँ वहीँ सबसे बेहतर है। कुछ बेहतरीन कहानियां आम लेखकों द्वारा भी लिखी जाती हैं, इसलिए कहता हूँ एक बार कोशिश तो कीजिये।
आभार
राजीव रोशन
बढ़िया रिव्यु है राजीव जी। "जरूरी नहीं की जो किताबें महान एवं बेस्ट-सेलर लेखक द्वारा लिखी जाएँ वहीँ सबसे बेहतर है। कुछ बेहतरीन कहानियां आम लेखकों द्वारा भी लिखी जाती हैं" बिलकुल सही कहा आपने। ये किताब अगला टारगेट है।
ReplyDeleteहरीश जी, आप जरूर पढ़िए आप को पसंद आएगी| साधारण भाषा में साधारण कहानी लिखी गयी है लेकिन यह कई लेखकों की कहानियों को टक्कर देती नज़र आती है|
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