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खुनी घटना (सुधीर सीरीज)

खुनी घटना (सुधीर सीरीज) 



जब से मैंने हिंदी पल्प फिक्शन पढना शुरू किया और इसके बारे में कई महानुभावों से बात एवं चर्चा की तब से मुझे एक आश्चर्यजनक जानकारी भी मिली है जिसके अनुसार प्रकाशन संस्थाएं नवोदित लेखकों के साथ अन्याय करती आ रही हैं। साधारण सी बात है कि जब बिज़नस की बात होती है तो जमीर का कद पैसे के आगे छोटा पड़ जाता है। तो ऐसे में, भारत में बसी किसी प्रकाशन संस्था पर मेरा अंगुली न उठाना अजीबो-गरीब लगता है। मेरा मानना है की सभी प्रकाशन संस्था ने कभी न कभी जरूर नवोदित लेखक के साथ अन्याय किया होगा।

अब सोचने वाली बात यह है कि एक नवोदित लेखक के साथ प्रकाशन संस्थान क्या-क्या गरीबमार करती है। प्रकाशन संस्थान नवोदित लेखकों के लेखों को लेते हैं और अगर पसंद आ जाए तो अपने जलील दिमागी सोच के सदके वे कहते हैं कि क्या बकवास लिखा है और छापने से मना कर देते हैं लेकिन कुछ ही महीनों बाद वो किताब या कहानी को एक अलग हक़दार के नाम से छाप दिया जाता है। ऐसे ही कुछ फिल्म इंडस्ट्री में भी होता है। कुछ लेखकों को उस तरह रॉयल्टी नहीं मिलती जिसके लिए उन्हें कहा जाता है। एक ही किताब को बार-बार छाप कर बेचा जाता है लेकिन उसका मेहनताना लेखक को बार-बार नहीं मिलता। लेखक को यह कहा जाता है कि आपकी तो प्रतियाँ बिकी ही नहीं इसलिए आगे कुछ और मेहनताना नहीं मिलेगा।

इन विचारों को आप सभी के सामने रखने का ख्याल तब आया जब मैंने सर सुरेन्द्र मोहन पाठक जी द्वारा लिखित उपन्यास “खुनी घटना” पढ़ा। “खुनी घटना” मार्च-१९८८ में पहली बार प्रकाशित हुई थी। सुधीर सीरीज की इस सातवें उपन्यास में सर सुरेन्द्र मोहन पाठक जी ने प्रकाशन संस्थाओं में होने वाली धांधली को प्रमुखता से उजागर किया है और इस कहानी का पूरा प्लाट ही इस धांधली पर आधारित है।

पंचानन मेहता, उत्कल प्रकाशन का डायरेक्टर है, जो अपने पार्टनर द्वारा किये गए धोखे कि शिकायत लेकर सुधीर कोहली के पास पहुँचता है। मेहता के अनुसार उसका पार्टनर खरबंदा ने उत्कल प्रकाशन के पार्टनरशिप के दौरान एक कहानी “कोख के कलंक” को दबा लिया था। पर जब उसने पार्टनरशिप भंग करके नए प्रकाशन से “कोख का कलंक” नामक उपन्यास छापा तो उसकी प्रसिद्धि ने सभी रिकॉर्ड तोड़ दिए। इससे खरबंदा जिसने अपनी पत्नी कवी मधुमिता के अंकल के पैसे के बल पर इस उपन्यास को छापा था, वह इतना धनी हो गया की उसे किसी की भी सहायता कि जरूरत नहीं थी।

पंचानन मेहता को इस उपन्यास के प्रकाशन के कई महीने बाद पता चला की खरबंदा ने उसे धोखा दिया था और इस धोखे को धोखा साबित करने के लिए ही वह सुधीर की शरण में आया था। वह चाहता था कि सुधीर कुछ ऐसे तथ्य खोज निकाले जिससे यह साबित हो जाए की खरबंदा उसे धोखा दिया था और कोर्ट केस के लिए बुनियाद तैयार हो सके। वहीँ इससे अलग वह यह भी चाहता था कि सुधीर खरबंदा से बात करे, ताकि कोर्ट में जाने पहले ही किसी सेटलमेंट के लिए वह तैयार हो जाए।

सुधीर, खरबंदा से मिलने की कई बार कोशिश करता है लेकिन खरबंदा उसे कोई भाव नहीं देता। ऐसे में सुधीर टेलीफोन मिस्त्री का बहुरूप बना कर जब उसके घर पहुँचता है तो उसके लिए कोई लड़की दरवाजा खोलती है। सुधीर जब उससे खरबंदा के बारे में पूछता है तो वह कोई जवाब नहीं देता। ऐसे में सुधीर जब पुरे घर में घूमता है तो उसे बाथरूम में एक लाश नज़र आती है। सुधीर घर से जैसे ही निकलने वाला होता है कि खरबंदा अपने पार्टनर रूद्रनारायण गुप्ता के साथ घर में प्रवेश करता है। सुधीर को चोर समझकर वे पुलिस को बुलाते हैं तब सुधीर उन्हें बताता है कि एक क़त्ल भी हो गया था।

दिल्ली पुलिस के स्पेशल दस्ते के साथ इंस्पेक्टर यादव वहां पहुँचता है और खरबंदा के बयान पर सुधीर को क़त्ल और जबरदस्ती घर में घुसने के जुर्म में गिरफ्तार कर लिया जाता है। लेकिन पंचानन मेहता और मधुमिता गुप्ता के हस्तक्षेप से सुधीर कि खलासी हो जाती है। लेकिन फिर भी सुधीर के गर्दन पर तलवार लटक ही रही होती है। ऐसे में सुधीर अपनी गर्दन को क़त्ल और षड़यंत्र से बचाने के लिए असली कातिल और सच कि तलाश में जुट जाता है।

एक बेहतरीन सनसनीखेज खुलासे की तलाश में आप इस कहानी को पढ़ते जाते हैं जो पब्लिकेशन इंडस्ट्री के गरिमा पर दाग डालता हुआ, कातिल को आखिरी अंजाम तक पहुँच कर ही थमता है। सुधीर का फेमस लक इस उपन्यास में ऐसा लग रहा था की बिल्कुल ही ख़त्म हो गया हो क्यूंकि बार-बार जिन तर्कों को वो इकठ्ठा करता था उसकी दुक्की पिट जाती थी। सुधीर की कई फिलोसोफी इस उपन्यास में नज़र आई जो आपकी वाह को वाह-वाह में बदलने का माद्दा रखती है। वहीँ सुधीर और रजनी के बीच के वार्तालाप सहज ही आपके होठों पर मुस्कान खींच लाती है।

पाठक साहब ने कहानी पर शुरुआत से पकड़ बनाए रखी लेकिन वहीँ उन्होंने सुधीर को बार-बार लाश खोजते दिखाया जो कि अमूमन सुनील सीरीज में देखा जाता है। जैसे-जैसे इस उपन्यास में कहानी आगे बढती जाती है वैसे-वैसे क़त्ल होते जाते हैं। सबसे बड़ी खासियत यह होती है की क़त्ल के कुछ क्षण बाद ही सुधीर उस लाश के करीब होता है। जितना करीब सुधीर केस के हल तक पहुँचता है उतनी ही जल्दी वह उससे दूर भी होता जाता है।


जहाँ केंद्रीय किरदार सुधीर कोहली, द लकी बास्टर्ड अपने जलाल पर नज़र आता है वहीँ इंस्पेक्टर यादव, रजनी और कुछ किरदार भी इस कहानी को मनोरंजक और रोमांचक बनाते हैं। क़त्ल की गुत्थी इसलिए उलझी नज़र आती है क्यूंकि इसमें सुधीर खुद ही सबसे पहले फंसता है। मुझे यह उपन्यास बहुत पसंद आया क्यूंकि इस उपन्यास की थ्रिल और मिस्ट्री के साथ-साथ कहानी का ताना-बाना इस उपन्यास को आरम्भ से अंत तक पढने को मजबूर करता है। तो अब मैं देखना चाहूँगा कि अगर आप में से किसी ने इसे पढ़ा है तो कैसा लगा था या जिन्होंने नहीं पढ़ा तो उनको पढ़ कर कैसा लगा|

आभार 
राजीव रोशन 

Comments

  1. सुन्दर समीक्षा। पढने की कोशिश करूँगा। वैसे blog का बैकग्राउंड काफी सुन्दर है।

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    1. शुक्रिया विकास भाई...

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