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ओस की बूँद


समीक्षा - सन्देश- असर- प्रेरणा- कटाक्ष

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पुस्तक - ओस की बूँद (उपन्यास)

लेखक - राही मासूम रज़ा


जब हम सुबह सुबह उठते हैं तो अपनी छत की मुंडेर से लगे नीम के पेड़ के पत्तों पर कुछ बूंदे देखते हैं, जब पार्क में घुमने जाते हैं तो घासों और फूलों के ऊपर बूंदे देखते हैं जिन्हें ओस की बूँद कहा जाता है।  लेकिन ये ओस की बूंदे सूरज की गर्मी से धीरे धीरे भाप बन कर उड़ जाती है। ये ओस की बूँद हमें सुबह तो दिखाई देती हैं लेकिन शाम होते होते इनका कोई नामोनिशान नहीं होता।

आज हमारा समाज कई प्रकार की कुरीतियों, बुराइयों, भ्रस्टाचारों से भरा हुआ है। ये कुरीतियाँ, ये बुराइयाँ ओस की बूंदों की तरह हैं । जब हम सुबह उठते हैं तो समाचार पत्रों द्वारा, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया द्वारा इस प्रकार की कई ओस की बूंदों को देखते हैं। ये ओस की बूंदे सुबह सवेरे हमारे मानस पटल पर छप जाती हैं लेकिन शाम होते होते हम इन ख़बरों को भूल जाते हैं। 

ओस की बूँद हमें दर्शाता है की किस प्रकार एक कहानी की शुरुआत तो होती है, हम उसे पढ़ते भी हैं, हम उस पर विचार भी करते हैं, हम उस पर मनन भी करते हैं, हम उस पर बहस भी करते हैं, लेकिन फिर हम उसे भूल जाते हैं। जिस प्रकार ओस की बूँद सूरज की गर्मी से भाप बन कर उड़ जाती है उसी प्रकार हमारे अंत:मन में छपे विचार भी हमारे प्रतिदिन के क्रियाकलाप के दौरान, गाड़ियों की दौर में, ऊँचाइयों की होड़ में, महगाई के शोर में और समय की कमी के कारण, उड़ जाते हैं। 


रज़ा साहब ने अपने इस उपन्यास (ओस की बूँद) में इस प्रकार के उदहारण देने की कोशिश  की है। उन्होंने इस कहानी के द्वारा इंसान के अन्दर बैठे एक असली इंसान को जगाने की कोशिश की है। 

कहानी उस समय के घटनाक्रम को दर्शाती है जब भारत माँ के दो टुकड़े कर "हिंदुस्तान" और "पाकिस्तान" में बाँट दिया जाता है। इस विभाजन में आम इंसान को कोई फायदा नहीं हुआ। फायदा और लाभ हुआ तो बस सियासतदारों को। एक व्यक्ति जो चाहता था की पाकिस्तान बने और उसका बेटा इस बात के विरोध में था। लेकिन जब पकिस्तान बना तो वह व्यक्ति पाकिस्तान नहीं गया जबकि उसका बेटा अपनी विवाहिता पत्नी को तलाक़ देकर  (यह बात सोचने के मजबूर कर देगी आपको ) पाकिस्तान चला जाता है। विभाजन का इससे बड़ा दुष्प्रभाव देखने को नहीं मिला है। पति पत्नी को इसलिए छोड़ कर चला गया क्यूंकि उसे पाकिस्तान प्यारा था। और पत्नी यहाँ मुआवजे के लिए मुक़दमे लडती है। कैसा होगा उस तलाक़शुदा  पत्नी का जीवन जब उसके और उसके बच्चो के सर से बाप का साया उठ जाए। 

एक व्यक्ति अपने दोस्त से इस बात से खफा है की उसने पाकिस्तान बनने से क्यूँ नहीं रोक। जबकि उसका दोस्त पकिस्तान बनने का विरोधी था। 

एक व्यक्ति जिसके पुरखो ने ७-८ पीढ़ियों पहले हिन्दू से मुस्लिम धर्म अपना लिया था। उसके पुरखों ने बस यही गलती की मुस्लिम बनने से पहले वह हिन्दू थे और हिन्दू होने के कारण उन्होंने अपने हवेली में एक मंदिर बनवाया था। अब पुरखो द्वारा बनाया गया मंदिर इस व्यक्ति द्वारा सरंक्षित किया जाता है। जिस मंदिर को कई वर्षों तक, कई सालों तक, किसी ने नहीं पूछा लेकिन जब उसी खंडहर और वीरान मंदिर में जब एक दिन शंख बजा दिया गया तो पुरे मोहल्ले में खलबली मच गयी। उसी क्षेत्र कुछ लोग चाहते थे की शंख ना बजे जबकि कुछ चाहते थे की उस मंदिर में पूजा हो। जिस व्यक्ति ने शंख बजाया था उसने शंख को बगल के कुँए में फेंक दिया। इस छोटी  सी कार्य के कारण पुरे शहर में बलवा (दंगा) हो गया। पुरे शहर में कर्फ्यू लगा दिया गया। मंदिर को सेना के जवानों ने घेर लिया था। जिस व्यक्ति के हवेली अन्दर वह मंदिर आता था, उसका ज़मीर जब जागा तो उसने खुद मंदिर में जाकर शंख बजा डाला और सेना की गोलियों का शिकार बना। और फिर पुरे शहर में दंगा हो गया। 

क्या था दंगे का कारण ? 
दंगे का कारण खोजना बड़ा मुश्किल कार्य है इस कहानी के अन्दर। 
क्या आप मानते हैं की एक मंदिर शंख फूकना दंगे का कारण हो सकता है। 

आप इस कहानी उस समाज को देखेंगे जिसने अपने चेहरा पर एक मुखौटा सा बाँध लिया है। वर्तमान समाज और ५०-६० के दसक के समाज का एक ही चेहरा नजर आता है। दोनों के चेहरों पर बस नकाब ही दीखता है। और इस नकाब के होने के बावजूद लोग अपने को धर्म, जाती, रंग में बांटते हैं। बड़ा अजीब समाज है हमारा। हर व्यवसायी राजनीती के आग में अपनी रोटी सेंकने को तैयार है। 

मैं कहानी को आगे बढ़ने में असक्षम महसूस कर रहा हूँ। मैं रज़ा साहब को सलाम करता हूँ की उन्हें ऐसे विषय पर एक उपन्यास लिख डाला। मैं उनका मुरीद हो गया हो। 

रज़ा साहब ने अपने शब्दों में इसी उपन्यास में कहा है की "यह कहानी किसी विशेष व्यक्ति से सम्बंधित नहीं है, यह कहानी किसी विशेष शहर से सम्बंधित नहीं है, यह कहानी है पूरे हिन्दुस्तान की"

मैं रज़ा साहब की इस बात से इत्तेफाक रखता हूँ..... आप सभी जब इस उपन्यास को ख़तम करेंगे तो सोचेंगे की यह कहानी तो हिन्दुस्तान की है। इसे कैसे लेखक ने एक शहर में कुछ किरदारों का प्रयोग करके समेत लिया है। 

मैं सिर्फ अगर इस उपन्यास के मुख्य बिंदु सांप्रदायिक दंगों की बात करूँ तो  आज का भारतीय का हर नागरिक जानता है की इन दंगो ने कितने घाव दिए हैं। प्रत्येक नागरिक इन दंगो से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से घायल नज़र आता है। भारतीय समाज ने सन ४७ के बाद से कई प्रमुख दंगे देखे हैं। उन्हें याद है की इससे कितनी हानि होती है। फिर भी लोग उन घावो को भुला कर एक नया बलवा शुरू कर देते हैं। आज समाज में बलवा हुआ है तो उससे समाज को तो नुकसान ही पहुंचा है। फायदा हुआ है तो सियासती नेताओं को जिन्होंने इन दंगो में तबाह हुए घर, घायल हुए लोगो और मृतकों की चिताओं और कब्र पर पैर रख कर अपनी राजनीती की कुर्सी संभाली है। लोग क्यूँ भूल जाते हैं की भूतकाल में हुए दंगो से उन्हें कितने नुकसान हुए हैं। 
वे भूल जाते हैं क्यूंकि यह "बिमारी" उन्हें एक "ओस की बूँद" की तरह लगता है।

"ओस की बूँद" को कहानी समझ कर पढ़ लेना और भूल जाना, इस कहानी के साथ इन्साफ नहीं करता है। यह कहानी नहीं है, यह एक रिपोर्ट है, भारतीय समाज की। यह कहानी नहीं, एक निबन्ध है, भारतीय समाज पर। यह कहानी नहीं, एक व्यंग है, भारतीय समाज पर। यह कहानी नहीं, इतिहास है, भारतीय समाज की। 

माना की यह एक काल्पनिक कहानी है लेकिन यह सच्चाई के ९९% हिस्सों को दिखता है। और सिर्फ एक प्रतिशत कल्पना के द्वारा हम कह सकते हैं की यह एक काल्पनिक कहानी है। अब हम पर निर्भर करता है की हम कौन से हिस्से को सच्चाई और कौन से हिस्से को कल्पना मानते हैं। 

"ओस की बूँद" एक नायाब कहानी है जिसे हर भारतीय को पढना चाहिए।

**नोट** - अगर मेरे द्वारा लिखे गए उपरोक्त लेख से किसी की भावना को ठेस पहुची हो या दिल पर चोट लगी हो तो मैं क्षमाप्रार्थी हूँ। लेकिन अगर फिर भी किसी को शिकायत है तो मैं आपकी शिकायत दूर करने में अपने आपको बहुत कमजोर मानता हूँ। यह शिकायत आपको यह पुस्तक पढने के बाद ही दूर होगी। 

आपके अमूल्य विचारो के इंतज़ार में
राजीव रोशन 

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