बहुत दिन हुए कोई रिव्यु-सिव्यू नहीं लिखा, इसका मूल कारण भले ही कोई और हो लेकिन मेरे मित्र-गण कहते हैं, 'मैं 'पिलपिला' गया हुँ'। सिर्फ इतना ही नहीं, इस बात को कोट करने से पहले एक और लाइन कोट करते हैं 'शादी के बाद'। खैर, मित्रों की बात, जो सलाह के स्थान पर ताने का काम करती हो, उसे मैं 'गधे की लात' की तरह मानता हुँ। इस मुहावरे को कोट करने का यह मतलब मत निकालिएगा कि मुझे इस मुहावरे का अर्थ भी पता है, वो तो मैंने वैसे ही लिख दिया जैसे पाठक साहब ने वैसे ही 'जान की बाजी' में, लेखन में स्वतंत्रता लेते हुए, फॉरेंसिक साइंस का मजाक उड़ाते हुए, उस दौर में, हाथों-हाथ फिंगर-प्रिंट चेक करवाकर कई 'केबिन' एलिमिनेट कर दिए।
कल से ही 'डेली-हंट' पर 'जान की बाजी' पढ़ रहा था। 'डेली-हंट' पर इसलिए कि मेरे घर में मौजूद पाठक साहब के सभी पुराने 'उपन्यास', कार्टन में पैक होकर, टांड़ पर रखे हुए हैं। सोच रहा हूँ, बाकायदा एक साल से सोच रहा हूँ कि रैक बनवाऊंगा जिसमें इन उपन्यासों को रखूँगा, 'लेकिन ये ना थी हमारी किस्मत कि विसाले यार होता....'।
मुझे मालूम है, आप बोर हो रहे होंगे और नहीं हो रहे हैं, तो मैं आगे आने वाली पंक्तियों में आपको बोर करने की पुरजोर कोशिश करूंगा। इसलिये फिर से 'जान की बाजी' की तरफ लौटता हुँ।
'जान की बाजी' पढ़ने से पहले मैंने 'आखिरी दांव' जो 'सबा खान' द्वारा किया गया, जेम्स हेडली चेज के 'वन ब्राइट समर मॉर्निंग' का अनुवाद है, पढ़ लिया था, जिसके कारण, इस उपन्यास का 'पहले प्रसंग' ने मुझे झटका दिया। इसमें कोई दो राय नहीं थी की मेरा आंकलन गलत था, फिर भी मैंने उससे आगे पढ़ना शुरू किया। अगले प्रसंग ने फिर मुझे झटका दिया। लगभग आधा उपन्यास खत्म हुआ, तो वह झटका भी खत्म हुआ क्योंकि अगले 50% उपन्यास के प्रसंग के बाबत मुझे झटके नहीं लगे क्योंकि अभी उस मामले में मेरा ज्ञान कम था।
"जान की बाजी' की पृष्ठभूमि अमेरिकी है और लगभग '38%' तक तो ऐसा लगता है कि जिस हिंदुस्तानी किरदार 'युगल' को लेकर पाठक साहब कहानी आगे बढ़ा रहे हैं, वह 'वहीं' का निवासी हो जिसका नाम गलती से 'युगल' पड़ गया हो ऐसा इसलिए कि पाठक साहब ने प्रथम 38% उपन्यास तक तो इस किरदार के बारे में कुछ बताया ही नहीं, कोई चरित्र- चित्रण ही नहीं किया। लेकिन जैसा भारत की बारिश के आने का कोई समय नहीं होता, वैसा ही शानदार टर्न लेते हुए, 'युगल' को 'युगल ओबेरॉय' के नाम से पाठकों को पहली दफा परिचय करवा देते हैं।
'युगल ओबेरॉय' के नाम से पाठकों के दिमाग में 'घंटी' बजने लगती है। अरे नहीं, आप उस कमला ओबेरॉय से तो इस किरदार को नहीं जोड़ने लगे जो अपने पति के लाश घर में मौजूद होने पर शराब पीकर गमजदा होने की कोशिश कर रही थी, जिसके चक्कर में सुधीर की टांककर दिल्ली के दादा 'अलेक्जेंडर' से हो गयी थी। नहीं, नहीं, इस किरदार को उस कमला ओबेरॉय से कोई संबंध नहीं लेकिन 'प्रमोद सीरीज' के उपन्यास के स्थापित किरदार 'सुषमा ओबेरॉय एवं कविता ओबेरॉय' से जरूर संबंध है। युगल ओबेरॉय, दोनों बेचारी बहनों का बेचारा भाई निकला।
चूंकि, युगल ओबेरॉय, प्रमोद सीरीज के स्थापित किरदार से संबंधित था तो उपन्यास भी 'प्रमोद सीरीज' का होना लाजमी है। देखा कितने पते की बात कहीं मैंने आपको। जी हां, यह उपन्यास 'प्रमोद सीरीज' का ही है, जिसके बारे में मुझे पहले से पता था। इस उपन्यास में 'प्रमोद' का प्रवेश, एक तिहाई से अधिक उपन्यास खत्म होने के बाद होता है। लगभग 37% की कहानी खत्म होने के बाद 'प्रमोद' का आगाज़ होता है वो भी दिन-दुखियों की मदद की खातिर, मतलब युगल के मदद के खातिर।
ये प्रमोद सीरीज की दोनों बहनें, सुषमा एवं कविता ओबेरॉय, अच्छी- खासी पेंटर हैं, कैनवास पर रंग भरती हैं, लेकिन इन्होंने प्रमोद की जिंदगी में कालिख पोत दी है। प्रमोद सीरीज के 4 में से 3 उपन्यासों में तो प्रमोद इन्हीं लोगों को कानून के फंदे से बचाता रहा है। वो क्या कहते हैं, हमारे हिंदुस्तान में, ग्रहण हैं, दोनों बहनें, प्रमोद के लिए, लेकिन दोनों ही बहने प्यार भी बहुत करती हैं प्रमोद से, जबकि प्रमोद कविता से ही प्यार करता है और कविता भी प्रमोद से प्यार करती है लेकिन जब उसे पता लगा कि सुषमा भी प्रमोद को प्यार करती है तो उसने अपने प्यार को सती बनाया और प्रमोद को सुषमा से शादी करने के लिए कहा। मतलब, पूर्ण हिंदुस्तानी कहानी है, वो भी सामाजिक उपन्यासों, बॉलीवुड फिल्मों एवं आज के टीवी सीरियल की तरह।
देखो जी, अपने भारत में एक वसूल है, यहां के लड़के शादी से पहले ही जिससे प्यार करते हैं, उसे पत्नी मान लेते हैं, बिल्कुल उसी तरह जैसे लड़की उसे पति मान लेती है। वैसे तो इस मत के पीछे विद्वानों में कॉन्ट्रोवर्सी है, पर मुझे क्या फ़र्क़ पड़ता है, घंटा। लेख के हिसाब से लाइन फिट है तो चिपका दो। जिस तरह से प्रेम में लड़कियां अपने प्रेमी के लिए छुप-छुपाकर 'करवा चौथ' व्रत रखती हैं, कुछ उसी तरह से लड़के भी 'लड़की' के लिए बहुत कुछ करती हैं, उदाहरण स्वरूप - शॉपिंग कराना, मूवी दिखाना, घुमाना आदि। इसी तर्ज पर जब 'युगल' अपनी समस्या लेकर 'प्रमोद' के पास पहुंचा तो, वो खांटी प्राचीन मुहावरे, 'सारी दुनिया एक तरफ, जोरू का भाई एक तरफ' को सार्थक करते हुए, प्रमोद ने, अपनी न हो सकी जोरू के भाई के लिए 'जान की बाजी' खेलने को तैयार हो गया। देख लो, ये होती है, असली मोहब्बत। जो बाज लोग कहते हैं, सच्चा प्यार भूत देखने के समान होता है, वो इस उपन्यास पढ़कर इस भूत ले दर्शन कर सकते हैं।
बहुत पका लिया, इसलिए साफ-साफ उस समस्या पर आता हुँ, जिसके कारण इस उपन्यास का 'सृजन' हुआ। हुआ कुछ युँ, की युगल ओबेरॉय कैलिफ़ोर्निया में हो गया, हैज़ल नाम की लड़की से प्यार। हैज़ल कौन? हैज़ल, कैलिफ़ोर्निया के एक अरबपति-करोड़पति की बेटी। हैज़ल का स्टेटस 'अरबों' में और युगल का स्टेटस 'सड़कों' में, मतलब मामूली। ऐसे में हैज़ल का बाप कैसे अपनी बेटी को लो स्टेटस के लड़के से ब्याह देता। हैज़ल अपनी व्यथा, अपनी सौतेली माँ अल्मा से बताती है। हैज़ल की माँ, माशाअल्लाह, उन सौतेली माओं जैसी थी, जिसकी उम्र, अपनी सौतली बेटी से बमुश्किल 5-6 साल ही ज्यादा होगी और हुश्न के मामले में जो 'मर्लिन मुनरो' के बराबर का दर्जा रखती थी। अल्मा ने, हैज़ल और युगल को ऐसा मशविरा दिया जिससे युगल एक हफ्ते के अंदर ही 'अपने वर्तमान स्टेटस' से उठकर 'भविष्य में' हैज़ल के स्टेटस पर पहुंच जाता। उसने युगल और हैज़ल को, हैज़ल के नकली अपहरण का नाटक रचने के लिए कहा, जिसके बाद युगल हैज़ल के बाप से फिरौती में मोटा रकम मांगता और अल्मा भी उनका साथ देती। ऐसे में युगल के पास पैसा आ जाता और वो निर्विघ्न हैज़ल से शादी कर लेता।
ये पैसा, पैसे का लालच, इंसान से जो ना करवा दे वो कम है। नाटक को एक्सीक्यूट किया जाता है, कैसे, वो आप उपन्यास पढ़ कर पता लगाइएगा। नाटक जब अपने अंतिम चरण पर पहुंचता है तो हैज़ल का हो जाता है, खून, हत्या या मर्डर। मर्डर में फंस जाता है, युगल ओबेरॉय। अपनी जान बचाने की दुहाई लेकर पहुंचता है वो प्रमोद के पास। प्रमोद को उसकी कहानी में हो जाता है, विश्वास, ऊपर से 'न हो पाई जोरू का भाई', के कारण, युगल को बचाने की खातिर, वह बुनता है एक जाल। आपने मकड़ी/मकड़ा का जाल देखा होगा, वो अपने शिकार को फांसने के लिए जाल बुनते हैं। प्रमोद भी रचता है, मकड़जाल, जिसमें कई ऐसी घटनाएं घटती जाती हैं कि क्लाइमेक्स कब आ जाता है, पता ही नहीं चलता।
'जान की बाजी' उपन्यास में पाठक साहब ने काफी आजादी ली है, यही कारण है कि उपन्यास में कुछ खामियां भी नज़र आती है। अगर आपने पहले पंक्ति से लेख पढ़ा हो तो कुछ खामियां पता लग गयी होंगी। वैसे मेरा मानना है कि पहली पंक्ति से ही पढ़ा है, लेकिन सुना है कि कुछ बाज़ लोग लेख को खोल कर पहले उसकी लंबाई मापते हैं, फिर पढ़ते हैं, इनमें से कुछ तो अंतिम लाइन ही पढ़ते हैं, क्योंकि उसी में कंकलुजन नाम की चिड़ियाँ होती है। एक खामी मुझे लगी कि 'यांग टो' के संवादों में पाठक साहब ने पकड़ नहीं दिखाई। हो सकता है, उस वक़्त कलम हिल गयी और उससे कुछ संवाद हिंदुस्तानी टोन में बुलवा लिए और कुछ 'फॉरेन' टोन में।
नए पाठकों को बताना चाहूंगा कि पाठक साहब ने 'प्रमोद सीरीज' में सिर्फ चार उपन्यास ही लिखे, फिर इस किरदार को लिखना बंद कर दिया जबकि यह किरदार 'सुनील' से ज्यादा आदर्शवादी था। वैसे बताना चाहूंगा कि इस सीरीज के अन्य स्थापित किरदार भी आदर्शवादी ही हैं। मेरे ख्याल से यही कारण है कि यह सीरीज उतनी मकबूल नहीं हुई और पाठक साहब ने इसको आगे बढ़ाने से पहले अपने हाथ खींच लिए। शायद यह जरूरी भी था, क्योंकि जिस समय उन्होंने इस सीरीज से हाथ खींचे उस समय, विमल सीरीज अपनी मकबूलियत के करीब पहुंचने वाला था। सुनील आलरेडी पाठकों के बीच अपनी जगह बना चुका था। सुधीर भी कुछ कम जलवे नहीं बिखेर रहा था। थ्रिलर उपन्यास भी गजब का काम कर रहे थे। सन 1976 में प्रमोद सीरीज का अंतिम उपन्यास आया था, उसके बाद शायद पाठक साहब इस सीरीज में लिखते पर विमल और सुधीर ने पाठक साहब के घरौंदे से इस किरदार को उठा बाहर फेंका। वैसे भी कहते हैं, जो पूत कमा के दे वही पूत, बाकी तो कपूत हैं जी।
लगता है, रिव्यु-सिव्यू सच में लंबा हो गया है। अगर किसी भाई-बंधु को मेरे किसी विचार से असहमति हो तो कृपया जरूर प्रकट करें, कोशिश करूंगा कि मैं उन्हें अपने 'एक्सटेंडेड' विचारों से सहमत कर पाऊं। फिर भी असहमति बनी रही तो मैं उनकी असहमति का सम्मान करते हुए, उनकी असहमति से सहमत रहूंगा। बाकी फिर भी किसी को लगता है, कि जिस बात से मैं असहमत हुँ, उससे सहमत हो जाऊं तो सीधा सा कहता हूं मैं 'घंटा'।
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