इंतकाम
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बहुत पुरानी एक कहावत
अपने बुजर्गों से सुनने को मिली थी – “ज़र, ज़ोरु और ज़मीन, हर झगड़े की जड़ होते हैं।”
सही बात भी है, क्यूंकि सोना (धन), स्त्री या भूमि के कारण ही आज कि तारीख में
भारतीय न्यायालयों में मुकदमे भरे पड़े हैं। मुझे अचानक इस कहावत कि याद इसलिए आई
क्यूंकि मैं आज ही “इंतकाम” उपन्यास पढ़ कर हटा हूँ। मैं सोचने पर मजबूर हुआ कि
क्यूँ नहीं विक्रम गोखले जैसे शख्स को फांसी कि सजा मिल जाए। भले ही बाद में वह
बेक़सूर साबित हो जाए।
विक्रम गोखले, मुंबई
में एक गाइड के रूप में फ्रीलांसर काम करता था। कहने को तो वह शादीशुदा था लेकिन
अपनी पत्नी से अधिक उसे दूसरी औरतों में लगाव था। अगर सिर्फ जिस्मानी तौर पर लगाव
रहता तो बात दूर थी, वो तो उनसे धन ऐंठने से भी बाज नहीं आता था। मतलब उसने “जड़ और
जोरू” से दो-दो हाथ करने शुरू कर दिए थे। इंसान की एक खासियत है कि उसे पूरा पंचतंत्र
याद हो, उसे पूरा मदभगवद गीता याद हो लेकिन वह इनमे प्रस्तुत किये गए जीवन मूल्यों
को अपनी जिन्दगी में कभी लागू नहीं करता बल्कि इनका वह इस्तेमाल हमेशा दूसरों को
सलाह देने में लगाता है। ऐसे ही विक्रम गोखले को पता था की, ३१ दिसम्बर कि रात से
जिस लड़की के साथ वह है, उसे सर्वनाश कि ओर ले जा रही है।
नियति ने उसे कुछ
संकेत तो दिए थे लेकिन जब वह एक शानदार, बेमिसाल स्त्री के साथ हो वो भी जिसने
अपने शरीर पर शानदार और चमकीले आभूषण ग्रहण किये हुए हों तो, विक्रम गोखले क्या
कोई साधू-महात्मा को भी पता नहीं चल पता की वह कौन से मकड़े के जाल में फंसे वाला
है। वह पूनम देशमुख नाम कि शादी-शुदा लेकिन कड़क-जवान महिला के साथ तीन दिन से
मौज-मस्ती कर रहा था कि कुछ ऐसे कारण बन पड़े जिससे उसे होटल छोड़ कर पूनम देशमुख के
पति के याट में शरण लेनी पड़ी।
अगली सुबह जब विक्रम
गोखले की नींद खुली तो उसे याट में पूनम कहीं नहीं दिखाई दी। उसे पूनम के खून से सने
कपडे दिखाई दिए। पूरा केबिन उथल-पुथल दिखाई दिया। उसे वह तलवार भी नज़र नहीं आ रही
थी जो दिखावे के लिए याट में रखा हुआ था। ऐसे समय पर विक्रम गोखले कि मत फिर मारी
गयी और उसने उस केबिन में रखे पूनम देशमुख के जेवरात उठा के चलता बना। बाद में
पुलिस ने विक्रम गोखले को पूनम देशमुख के क़त्ल के जुर्म में गिरफ्तार किया और
सरकारी वकील संजीव कमलानी ने अदालत के सामने विक्रम गोखले को अपराधी साबित करके
दिखाया। आखिरकार विक्रम गोखले को ज़र और ज़ोरु ने चारों खाने पटखनी दे दी और जिस
नसीब पर वह पहले मुस्कराया करता था आज वह रो रहा था।
लेकिन बस यहीं इस
कहानी का अंत नहीं है। असली थ्रिल तो इसके बाद शुरू होता है जब संजीव कमलानी को
विक्रम गोखले की पत्नी से पता चलता है कि पूनम देशमुख जिन्दा है और गोवा में किसी
नए नाम से रह रही है। उसी रात विक्रम गोखले की पत्नी कि हत्या हो जाती है जिसके
क़त्ल के इलज़ाम में सरकारी वकील साहब फंस जाते हैं। यह भी कुछ कहावत से समबन्धित है
क्यूंकि जब विक्रम गोखले की पत्नी शांता संजीव कमलानी को ऊँगली पकडाती है तो वह
हाथ पकड़ कर आगे बढ़ जाता है जिसका अंत शांता के बेडरूम में होता है। शांता का कहना
था कि उसका संजीव का साथ सोना विक्रम गोखले से लिया गया इंतकाम है। क्यूंकि विक्रम
गोखले ने कभी उसे अपनी पत्नी माना ही नहीं लेकिन हक हमेशा जताया।
संजीव कमलानी अपने
भाई कि सहायिका सिल्विया के साथ पूनम देशमुख कि तलाश में निकलता है और साथ ही साथ
वह उस याट कि जांच भी करना चाहता है ताकि उसे पता चल सके कि याट में छुपने का या
निकलने का कोई गुप्त स्थान तो नहीं है। संजीव कमलानी और सिल्विया के पीछे जितना
पुलिस विभाग लगा हुआ था उतना ही उसमे दुसरे लोग भी इच्छुक लग रहे थे क्यूंकि वह एक
गुर्दे मुर्दे को उखारने पर लगा हुआ था।
क्या संजीव कमलानी
अपने ऊपर आयद क़त्ल के इलज़ाम को खारिज कर पायेगा? क्या वह विक्रम गोखले को फांसी के
फंदे पर झूलने से बचा पायेगा? क्या वह पूनम देशमुख की तलाश कर पायेगा जिसको खुद
उसने कोर्ट में मृत साबित किया था?
कहानी के कुछ ऐसे
बिंदु हैं जो मैं आपको बाताना चाहूँगा जिससे आपको लगेगा कि आपको यह पुस्तक क्यों पढनी
चाहिये:-
अगर पूनम देशमुख जीवित थी तो कैसे वो बंद याट में से निकल पायी थी।
अगर पूनम देशमुख जीवित थी इतने बड़े षड़यंत्र के पीछे का क्या उद्दयेश
था और कौन इस इसमें शामिल था।
विक्रम गोखले को जानबूझकर बकरा बनाया गया था या वह बस यूँ ही फंस गया
था।
कहानी का प्रस्तुतीकरण मुंबई से शुरू होकर गोवा तक खींचता जाता है।
कई ऐसे बिंदु सामने आते हैं जिनका कहानी के अंत से पहले खुलासा नहीं
होता।
कहानी के किरदार वास्तविकता के करीब नज़र आते हैं।
वहीँ कहानी भी वास्तविकता के करीब नज़र आती है जिसमे घात, आघात और
प्रतिघात का शानदार मिश्रण है।
वास्तविकता कि ओर इशारा करने के पीछे कारण यह है कि ऐसे धोखे आपको
वर्तमान जीवन में रोज कहीं न कहीं देखने और पढने को मिल जाता है।
कहानी में कोई ऐसा भाग आपको ऐसा नहीं लगेगा जो व्यर्थ ही लिखा गया हो।
कहानी की प्रस्तुतीकरण शानदार है जैसे कि मकड़े ने अपने जाल को बहुत ही
दिल लगाकर बुना हो जिसमे हम जैसे पढ़ कर फंसते जा रहे हैं और तभी निकलते हुए नज़र
आते हैं जब अंत को पढ़ लेते हैं।
पाठक साहब ने उपन्यास में थ्रिल, मिस्ट्री और सस्पेंस का भरपूर
इस्तेमाल किया है। यह आपको इसी बात से पता चल जाता है कि इसमें दो मर्डर हैं, चेज सीक्वेंस
है, धमाकेदार क्लाइमेक्स है।
सन १९८१ में पहली बार
इस पुस्तक का प्रकाशन हुआ था। सर सुरेन्द्र मोहन पाठक जी कुल उपन्यासों के क्रमागत
श्रेणी में इसका स्थान १३१ वां आता है वहीँ थ्रिलर श्रेणी में यह १२ वां उपन्यास
था। इस उपन्यास की कहानी एक ही जिल्द में समाई हुई है जिससे आपको और ज्यादा मजा
आएगा।
आप इस पुस्तक को ईबुक
में न्यूज़-हंट एप्लीकेशन पर भी पढ़ सकते हैं:-
आशा है, ये बिंदु
आपको इस पुस्तक को पढने के जरूर मजबूर करेंगे। पूरा पुस्तक पढने के बाद आपको इस
समीक्षा के आरम्भ में लिखी गयी कहावत के और उदाहरण देखने को मिल सकेंगे।
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