“यह पुलिस का नंबर
है। लेकिन यह सिर्फ नंबर नहीं, जहाँगीरी घंटा है जो मदद और इन्साफ कि जरूरत के
वक़्त बजाया जाता है। यह मुल्क के निजाम और उसके कायदे कानून के प्रति लोगों कि
आस्था का प्रतीक है। जब कोई शख्स नंबर १०० डायल करता है तो वह मुल्क कि कानूनी
व्यवस्था पर अपना विश्वास प्रकट करता है। इस विश्वास कि रक्षा करना हमारा फर्ज है।
लेकिन हम अपना यह फर्ज कैसे निभा सकते हैं अगर हम फर्ज निभाने के वक़्त किसी ऐसे ही
जालिम शख्स कि ड्योढ़ी पर सिजदा कर रहे हों जिसके जुल्म का शिकार होकर किसी मजलूम
ने १०० नंबर डायल करके इन्साफ कि दुहाई दी होगी। हमारा पहला फर्ज लाचार, बेसहारा,
मजलूम लोगों कि मदद करना है, न कि जालिम का हुक्का भरना, उसकी चौखट पर कुत्ते कि
तरह दुम हिलाना और उसका मैला चाटना।”
-- इंस्पेक्टर विक्रमसिंह (“डायल १००” उपन्यास का एक
केंद्रीय किरदार)
उपरोक्त प्रसंग सर
सुरेन्द्र मोहन पाठक जी के प्रसिद्द उपन्यास “डायल 100” से लिया गया है। यह
उपन्यास सन १९८५ में पहली बार प्रकाशित हुआ था। जब यह उपन्यास पाठक सर के पाठकों
के बीच आया और उन्होंने पढ़ कर यही जवाब दिया था कि ऐसा उपन्यास कभी नहीं लिखा गया
है और न ही लिखा जाएगा। वैसे एक बात है, आज भी जब मैं पाठक साहब के कई पुराने
प्रशंसकों से मिलता हूँ तो उनका अब भी यही कहना होता है। उनका यह भी कहना होता है
पुलिस विभाग को केंद्र में रख कर ऐसा उपन्यास कभी नहीं लिखा गया।
लेकिन ऐसा लगता है
कि “डायल 100” उपन्यास के ३० साल पहले कि उपरोक्त प्रसंग और वर्तमान पुलिस
कर्मियों की सोच में जमीन आसमान का अंतर है। वैसे मैं एक बात यह भी कहना चाहूँगा
कि पाँचों उँगलियाँ बराबर नहीं होती। वैसे अब तो ऐसा समय आ गया है की पुलिस विभाग
से मुजरिम या अपराधी डरे या न डरे, आम जनता तो उनके खौफ में ही जीती है। अगर कहीं
अपराध होता है तो लोग चुप्पी मार के बैठ जायेंगे लेकिन १०० नंबर डायल नहीं करेंगे।
उपरोक्त वाक्य में जिस फ़र्ज़ की बात कि गयी है वो अब संग्रहालयों में संग्रह करने
योग्य वस्तु बनता जा रहा है ताकि हम अपने आने वाली पीढ़ी को दिखा सकें कि कभी ऐसे
पुलिस कर्मी या सरकारी अफसर या ऐसे इंसान हुआ करते थे जो अपने फ़र्ज़ को ही सब कुछ
समझते थे। वर्तमान में डायल १००, जहाँगीरी घंटा तो नहीं है, लेकिन ऐसा घंटा जरूर
है जिसको बजाने पर आप पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ सकता है। हालांकि मैं आपको
भ्रमित नहीं करना चाहूँगा और न ही चाहूँगा कि ऐसे समय पर १०० नंबर न डायल करें जब
कहीं अपराध हो कर घटा हो। यह बस एक विचार मात्र है जो मुझे अपने आस-पास रोजाना
पुलिस विभाग एवं उनके कर्मचारियों तथा आम जनता के बीच होने वाले गतिविधियों से
जानने और उनको मंथन करके मिलता है। खैर, मैं हमेशा से चाहूँगा कि इंस्पेक्टर
विक्रम सिंह जैसा हर पुलिस कर्मी हो जो अपने फ़र्ज़ कि राह के आगे किसी को आने न दे।
पिछले दिनों फिर एक
बार मौका लगा कि मैं सर सुरेन्द्र मोहन पाठक जी का प्रसिद्द उपन्यास “डायल १००”
पढूं। पढ़ते पढ़ते महसूस किया की क्या कोई इंस्पेक्टर विक्रमसिंह जैसा किरदार किताबों
कि दुनिया से निकल कर वास्तविक दुनिया में आ सकता है यह बस वह किताबों में ही खोकर
रह जाएगा। साथ ही जिस प्रकार से पुलिस सिस्टम को इस पुस्तक में परिभाषित किया गया
वह काबिलेतारीफ तो है ही लेकिन साथ ही साथ हर पुलिस कर्मी के लिए एक आइडियोलॉजी भी
स्थापित करता है। हाँ लेकिन यह आइडियोलॉजी बिलकुल उसी तरह है जैसे हम गाँधी जी को
हर मुद्रा पर देख कर कभी महसूस नहीं करते कि उन्होंने हमेशा अहिंसा को बढ़ावा देने
की कोशिश की, कभी महसूस नहीं करते की जिस नोट को रिश्वत में दे रहे हैं या ले रहे
हैं उन्होंने कभी इस बात को बढ़ावा नहीं दिया बल्कि हमेशा विरोध किया। ऐसे ही कई ख्याल
मन में घर कर आये तो सोचा की, ९ साल में तीसरी बार इस किताब को पढ़ रहा हूँ और शायद
वक़्त आ गया है की कई और पाठकों को इस पुस्तक से रूबरू करवाऊं। इसलिए आज आपके समक्ष
इस पुस्तक कि समीक्षा लेकर प्रस्तुत हुआ हूँ।
“डायल १००” एक ऐसे
पुलिस अधिकारी की कहानी है जिसके लिए उसका फ़र्ज़ ही माँ, बाप, भाई, बहन, देश, समाज
और दोस्त है। इस पुलिस अधिकारी के लिए उसकी खाकी वर्दी ही रोटी, कपडा और मकान है।
उसके लिए उसका ज़मीर ही उस जुनून का प्रणेता है जिसके सहारे वह अपने शहर के हर
अपराधी के नाक में नकेल कस कर रखता है। वह राजनगर के अपराध संसार में इसलिए
प्रसिद्द नहीं की वह कड़क और जाबांज पुलिसिया है बल्कि इसलिए प्रसिद्द है क्यूंकि
वह रिश्वत नहीं लेता।
इंस्पेक्टर विक्रमसिंह
के साथ-साथ यह कहानी एक ऐसे अपराधी की है जो जेंटलमैन किलर के नाम से मशहूर था।
कुलभूषण “द जेंटलमैन किलर”, जिसका पहले शौक था लूट-पाट करना। लेकिन धीरे-धीरे उसने
अपने अपराध का दायरा बढ़ाया और लूट-पाट के साथ-साथ क़त्ल भी करने लगा। उसके शिकारों
का कहना था की वह इतना शांत, सुन्दर और सुशील लगता था की किसी को विश्वास ही नहीं
होता था की वह एक कातिल और लूटेरा भी हो सकता था। उसके शिकारों का यह कहना था की
वह तो फिल्म के हीरो जैसा लगता था जिसके कारण उसके शिकारों और मीडिया ने मिलकर उसे
“द जेंटलमैन किलर” का नाम दिया था।
लेकिन अपराधी कितनी
भी कोशिश कर ले, कितना भी अपराध करके बच निकलने कि कोशिश करे वह बच नहीं पाता।
आखिरकार इंस्पेक्टर विक्रमसिंह की कड़ी मेहनत और सूझ-बूझ से कुलभूषण को गिरफ्तार कर
लिया जाता है। लेकिन कोर्ट से सजा पाकर जाते-जाते वह इंस्पेक्टर विक्रमसिंह को जान
से मारने कि धमकी देकर गया था। इसी धमकी को पूरा करने के लिए वह जेल तोड़कर भाग
निकला था।
“डायल १००” की कहानी
इंस्पेक्टर विक्रमसिंह और कुलभूषण “द जेंटलमैन किलर” के बीच की है। कैसे
इंस्पेक्टर विक्रमसिंह भगोड़े, कुख्यात और सनकी अपराधी कुलभूषण को फिर दुबारा गिरफ्तार
कर पायेगा और कानून की देवी के सामने फिर से उसे सजा दिला पायेगा। क्या कुलभूषण
अपनी धमकी पर खड़ा उतर पायेगा? किसी भी अपराधी को आसानी से पकड़ा जा सकता है अगर शहर
कि जनता पुलिस का साथ दे तो। लेकिन क्या “राजनगर” की जनता इंस्पेक्टर विक्रमसिंह
का साथ देगी? क्या राजनगर के पुलिस विभाग में बैठे इंस्पेक्टर विक्रमसिंह के
उच्चाधिकारी जो इंस्पेक्टर विक्रमसिंह की जाबाजी और फ़र्ज़ कि राह को खामखाह ही
मानते हैं, इंस्पेक्टर विक्रमसिंह का साथ देंगे।
आपके मन में कई सवाल
उमर कर बाहर आयेंगे जब आप इस उपन्यास के पहले पन्ने से कहानी शुरू करेंगे और आधे
उपन्यास तक आते-आते आप इस कहानी के शैदाई बन जायेंगे और स्वयं ही अंत तक पढ़ कर
मानेंगे की आखिर जीत किसकी हुई।
आखिरकार जीत किसकी
हुई? फ़र्ज़ की राह पर चलने वाले सिपाही की, जिसके लिए कर्म और धर्म दोनों ही खाकी
वर्दी कि सेवा थी। अपने शहर के नागरिकों की सुरक्षा और अमन-चैन जिसके जीवन का
लक्ष्य था। शहर से अपराध को जड़ से उखाड़ फेंकना ही जिसका पहला कर्तव्य था। या उस
अपराधी की जीत हुई जिसे अपराध करने में उतना ही मजा आता था जितना किसी बच्चे को
किसी खिलौने को तोड़ने में आता है।
इंस्पेक्टर
विक्रमसिंह और कुलभूषण जहाँ इस कहानी के दो प्रमुख पात्र हैं वहीँ सब-इंस्पेक्टर राजीव
खन्ना, इंस्पेक्टर विक्रम सिंह का उच्चाधिकारी एस.पी. और राजीव खन्ना कि प्रेमिका,
गुप्ता बंधू। ये सभी किरदार इस कहानी को एक ऐसे स्तर की कहानी का रूप प्रदान करते
हैं जो भारत में लिखे नहीं जाते हैं। सर सुरेन्द्र मोहन पाठक जी ने कहानी को चार
भागों में बांटा है जो व्यक्तिप्रधान नज़र आता है लेकिन, लेकिन प्रत्येक भाग एक
असीमित आनंद और गहरी कथा लेखन का असर छोड़ जाता है। राजनगर को पृष्ठभूमि में लेकर
इस कहानी को लिखा गया है। राजनगर एक काल्पनिक शहर है जिसे सर सुरेन्द्र मोहन पाठक
जी के कई उपन्यासों में देखा गया है।
एक काबिलेगौर बात यह
भी है की भूतकाल में इस उपन्यास के ऊपर एक फिल्म का निर्माण भी हो रहा था जिसको
बीच में ही रोक देना पड़ा क्यूंकि निर्माता और निर्देशक इस फिल्म के निर्माण को आगे
नहीं बढ़ा सके। आशा है कि भविष्य में इस बेहतरीन उपन्यास पर जरूर फिल्म का निर्माण
होगा क्यूंकि यह फिल्म निर्माण कि अपेक्षा से तैयार मटेरियल है।
अगर मुझे किसी मित्र
को या नए पाठक को कोई पुस्तक पढने के लिए देना हो तो मैं निःसंदेह यह पुस्तक उसको
पढने के लिए अवश्य कहूँगा। मेरी तरफ से इस पुस्तक १० सितारे में पुरे १० सितारे।
आप इस पुस्तक को
निम्न लिंक से न्यूज़-हंट एप्लीकेशन पर आसानी से पढ़ सकते हैं:- http://ebooks.newshunt.com/Ebooks/default/Dial-100/b-33303
आभार
राजीव रोशन
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