Skip to main content

चेहरे पर चेहरा और किस्मत का खेल (विमल सीरीज)

“गुंडागर्दी, बदमाशी और दादागिरी के खूंरेज धंधे से कोई रिटायर नहीं होता, तुकाराम। ये रंडी का धंधा है। रंडी धंधा नहीं छोड़ती। धंधा रंडी को छोड़ता है। कोई इकबालसिंह या कोई तुकाराम धंधा नहीं छोड़ता। धंधा हम लोगों को छोड़ता है। ये वो धंधा है जिसमें आदमी अपने पैरों से चल के दाखिल होता है लेकिन जब रुखसत होता है तो चार भाइयों के कन्धों पर सवार होता है। इसलिए तू मुझे ये फैंसी बातें सुनाकर भरमाने की कोशिश मत कर कि तू रिटायर हो चुका है।”

उपरोक्त बात इकबालसिंह ने विमल सीरीज के उपन्यास ‘लेख की रेखा’ में तुकाराम से कहा था। लेकिन मैं इसका इस्तेमाल मौजूदा लेख में कर रहा हूँ। वैसे यह ‘संवाद’ वास्तविकता के करीब तो है पर अपने आप में आउटडेटिड हो चुका है। वर्तमान में ‘रंडी’ भी धंधा छोड़कर अन्य सुकून के ‘व्यवसाय’ में जा रही हैं। अपराधी भी रिटायर होते ही हैं, जैसे कि उदाहरण ‘डाकू अंगुलीमाल’ और ‘बाल्मीकि’ का है और वर्तमान में भी ऐसे ही कई उदाहरण हैं। लेकिन ये उदाहरण अपवाद हैं। अपराधी मानसिक तौर पर इतना मजबूर हो चुका होता है कि वह अपराध से किनारा करने के बारे में सोच भी नहीं पाता है।

Pic soure :- Dailyhunt Ebook Reader Mobile App


उदाहरण स्वरुप विमल सीरीज का उपन्यास ‘चेहरे पर चेहरा’ पढ़िए, इसमें केंद्रीय किरदार सरदार सुरेन्द्र सिंह ‘सोहल’ उर्फ़ ‘विमल’ का प्लास्टिक सर्जरी के जरिये चेहरा बदल दिया जाता है। पहले हमें यह जान लेना चाहिए की सरदार सुरेन्द्र सिंह ‘सोहल’ कैसा किरदार है – वह सात राज्यों में घोषित खतरनाक इश्तिहारी मुजरिम है जिसकी पुलिस को तलाश उसके द्वारा किये गए डकैती, हत्या, चोरी आदि अपराधों के लिए है। अगर ‘चेहरे पर चेहरा’ उपन्यास के पहले दो उपन्यासों पर गौर करें जिनके नाम ‘जीना यहाँ’ एवं ‘मरना यहाँ’ था, में एक आर्ट गैलरी को लूटने की कोशिश होती है जिसमे असफल होकर भी विमल सफल होता है क्यूंकि उसके पल्ले उतने पैसे पड़ ही जाते हैं जिससे वह प्लास्टिक सर्जरी करवाकर अपना चेहरा बदलवा सके। अब बात ये है कि – वह अपना चेहरा क्यूँ बदलवाना चाहता है – एक इश्तिहारी मुजरिम अपना चेहरा क्यूँ बदलवाना चाहता है – सामान्य सी बात है ताकि वह अपनी आने वाली जिन्दगी चैन से काट सके। ‘सोहल’ सिर्फ प्रशासन के लिए इश्तिहारी मुजरिम नहीं है बल्कि वह मुंबई में आर्गनाइज्ड क्राइम का दूसरा नाम ‘कंपनी’ के लिए भी इश्तिहारी मुजरिम है। इवन, पुलिस से ज्यादा शिद्दत से विमल की तलाश ‘कंपनी’ को है, क्यूंकि ‘सोहल’ ने आर्गनाइज्ड क्राइम को खत्म करने की कसम खायी हुई है। प्लास्टिक सर्जरी करा कर सोहल चैन की जिन्दगी काटना चाहता है, वह प्रशासन और कंपनी दोनों से ही बचकर रहना चाहता है लेकिन वह चैन से जिन्दगी जीने के बजाय फिर से आर्गनाइज्ड क्राइम को जड़ों से खत्म करने के लिए उस यज्ञ में कूद पड़ता है जिसका आरम्भ उसने अपनी पहली पत्नी सुरजीत कौर के मौत बाद किया था। जिस यज्ञ की अग्नि में राजबहादुर सिंह बखिया और उसके सिपहसालारों की एक-एक कर आहुति दी गयी थी और एक तरीके से मुंबई से आर्गनाइज्ड क्राइम का अंत हो गया था।

मैं यह समझ नहीं पाया कि एक पल सोहल का मोटिव ‘नया चेहरा’ हासिल करके शांति से, सुकून से जिन्दगी को जीना था दुसरे ही पल जब उसे तुकाराम की चिट्ठी मिली तो उसे अपनी कसम याद आ गयी। तुकाराम ने उसे यह बताया कि ‘इकबालसिंह’ ने कंपनी की बागडोर अपने हाथों ले ली है। वही इकबालसिंह जिसे सोहल ने कभी बख्श दिया था। विमल ने अपने पुराने मोटिव को बस्ते में डाला और फिर से निकल पड़ा मुंबई इकबालसिंह की बादशाहत को खत्म करने।

अपराध एक ऐसी बेल है जिसको कहीं से भी काटो वह फिर से बढ़नी शुरू होगी। हमें बचपन में यह बताया जाता था कि किसी भी वृक्ष या पेड़-पौधों में पेशाब कर दो तो वह समूल नष्ट हो जाता है। विमल ने बखिया को मारकर काम तो अच्छा किया लेकिन एक कलम ‘इकबाल सिंह’ के रूप में छोड़ दी। मेरे मित्र कहते हैं कि फिर कहानी कैसे आगे बढती – इसका जवाब मैं यही दूंगा कि – असफल अभियान एवं खाली वार के बाद – कहानी कैसे आगे बढ़ी थी। सोहल ने आरम्भ में मजबूर होकर डाका डाला, हत्याएं की – हालाँकि मैं इसे मजबूर होना नहीं कहता लेकिन मैं मान लेता हूँ कि मजबूर होकर की - असफल अभियान से उसने अपने जमीर पर पत्थर रखकर अपराध करने शुरू किये। तभी तो वह बार-बार अपने बनाने वाले से गुनाह बख्सवाता रहता है। आगे की कहानी में वह कई हत्याएं करता है, हाँ कानूनन इसे हत्या कहना ही सही होगा। बखिया के एम्पायर को खत्म करने के लिए, उस तक पहुँचने के लिए, उसे कई लाशों पर पैर रखकर गुजरना पड़ा, तब कहीं वह बखिया के सर को धड़ से अलग कर पाया। लेकिन क्या ये अपराध की गिनती में नहीं आते। एक्चुअली विमल अपराध की वह बेल है जिसे कोई काटना पसंद ही नहीं करता है। वह अपराध दर अपराध करता गया लेकिन उस युद्ध को ‘महाभारत’ सरीखा ‘धर्मयुद्ध’ मानकर हम ताली पीटते रहे।

साहेबान, बखिया के निजाम से भिड़ने के लिए ‘सोहल’ ने कौन सा बैंक लूटा था, किससे कर्जे पर पैसे लिए थे। बखिया से भिड़ने के लिए जब विमल निकला था, उस समय के अनुसार, मजरूह सुल्तानपुरी का यह शेर पढ़िए –

मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर 
लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया


ऐसा ही कुछ जिगरवाला था, सोहल, जो उस वक़्त आर्गनाइज्ड क्राइम के खिलाफ अकेला ही निकल पड़ा था, बाद में उसका साथ देने वाले कई आये और इस तरह से उसने बखिया के निजाम को खत्म किया। लेकिन जब सोहल ‘इकबालसिंह’ से टक्कर लेने के लिए निकलता है तो वह सबसे पहले ‘रूपये’ का इंतजाम करने की कोशिश करता है। इसलिए वह जौहरी बाज़ार में प्रीमियम वाल्ट को लूटने की कोशिश करता है जो कि असफल साबित होता है। उसके बाद धन की लालसा में वह जौहरी बाज़ार में हिन्दू-मुस्लिम दंगे करवाकर जौहरी बाज़ार में मौजूद ज्वेलर्स की दुकानों को लूटता है। हिन्दू-मुस्लिम दंगे कराकर धन लूटना फिर उसका इस्तेमाल आर्गनाइज्ड क्राइम को खत्म करने के लिए करना जाने कहाँ तक सही है। लेकिन आपराध इंसान के जमीर को, उसकी आत्मा में इतना अँधेरा भर देता है कि उसे खबर ही नहीं होती की जो वह कर रहा है कितना सही है।

“भावुक होना बुरी बात नहीं होती, लेकिन भावुकता पर ज्ञान का अंकुश न हों यह बुरी बात होती है।”


उपरोक्त सूक्ति सुनील द्वारा सोहल को कहा गया था, चेहरे पर चेहरा में, लेकिन लगता नहीं कि उसने इस बात कोई सीख ली। क्यूंकि विमल इतना भावुक हो गया कि वह यह तक भूल गया है वह क्या करने जा रहा है। प्रीमियम वाल्ट की डकैती और जौहरी बाज़ार की लूट इस बात का उदाहरण है। अपने आपको ‘सवा लाख’ के बराबर ‘एक’ बताने वाला सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल, इकबाल सिंह के निजाम से लोहा लेने के लिए डकैतियां करता फिर रहा है।

Pic soure :- Dailyhunt Ebook Reader Mobile App


“चेहरे पर चेहरा” और “किस्मत का खेल” – में ऐसे ही बदले हुए ‘सोहल’ से मुलाक़ात होती है। एक एंटी-हीरो के रूप में पाठक साहब ने ‘सोहल’ की रचना की थी और उसे बखूबी आगे भी बढाया। लेकिन ‘सोहल’ के नैतिक मूल्यों में निरंतर हास्र देखने को मिला, जिससे वह ‘एंटी-हीरो’ में से सिर्फ ‘एंटी’ ही बनकर रह गया है। लेकिन पाठकों की चाहत और लेखक की मेहनत ने आज भी, विमल सीरीज के प्रशंसकों के बीच, उसे एंटी-हीरो नहीं, हीरो के रूप में जिन्दा रखा है।

इन दोनों ही उपन्यासों में ‘इकबालसिंह’ का किरदार कंपनी के बॉस के रूप में बहुत कमजोर है, जबकि कई बार व्यास शंकर गजरे और श्याम डोंगरे का किरदार इस पर भारी पड़ता है। मुबारक अली का किरदार बेहतरीन तरीके लिखा गया और आगे बढ़ाया गया है। लेकिन यहाँ वह मुबारक अली नहीं जिसके चर्चे विमल के साथी के रूप लिए जाते हैं। वह भी उतना ही घिसा हुआ, काइयां अपराधी है, जैसा दुसरे अपराधियों को पाठक साहब चित्रित करते हैं। तुकाराम को तो पाठक बखिया सीरीज से ही जानते हैं लेकिन इन दोनों उपन्यासों में उसे उतनी जगह नहीं मिल पायी, वहीँ उसके जोड़ीदार ‘वागले’ को ज्यादा जगह मिली जो परछाई की तरह विमल के साथ-साथ रहा।

डॉ. स्लेटर का क़त्ल होना, इन दोनों ही उपन्यासों की प्रमुख घटना में से एक है। क्यूंकि ऐसा नहीं हुआ होता तो सोलंकी सोनपुर से उसके कातिल की तलाश में मुंबई नहीं आता। अगर ऐसा नहीं हुआ होता तो सोहल के नये चेहरे को लेकर जो मेहनत की गयी थी वह अपने स्थान पर कायम रहती। लेकिन डॉ. की हत्या और विमल के चेहरे को लेकर, सामानांतर चली कहानी पाठकों के अन्दर थ्रिल और सस्पेंस पैदा करती है।

इकबालसिंह द्वारा विमल को तलाश किये जाने को लेकर लेखक ने जो सस्पेंस पैदा किया – उसमे पाठक हर बार यही मनाता है कि सोहल इकबालसिंह के हाथ न लगे – लेकिन लेखक हर बार यही कोशिश करता है कि वह इकबालसिंह के हाथ लग जाए – लेकिन सर सुरेन्द्र मोहन पाठक जी जानते हैं कि कैसे पाठक को किताब से बांधे रखना है – इसलिए वे हर बार इकबालसिंह और सोहल के बीच में चूहे-बिल्ली का दौड़ दिखाकर – अंत में बिल्ली को जीतने नहीं देते। इकबाल सिंह के हाथ में आया सोहल, बार-बार उससे दूर छिटक कर चला जाता है।

दोनों ही उपन्यासों में, कंपनी के आर्गनाइज्ड क्राइम को लेकर एक सामानांतर कहानी भी है, जिसमें एक ड्रग डिलीवरी करने वाली लड़की का शिनाख्त प्रशासन द्वारा कर लिया जाता है। आगे की कहानी में प्रशासन उस लड़की के द्वारा ड्रग के धंधे के जड़ तक पहुंचना चाहती है। ऐसे में कंपनी और प्रशासन के बीच चूहे-बिल्ली का खेल चलता है, जिसमे बलि पर वह लड़की चढ़ती है।

“चेहरे पर चेहरा” का वो प्रसंग मुझे बहुत पसंद आया जब ‘सोहल’, सुनील से मिलने जाता है और सुनील अपने केबिन में सोहल को बिठा कर, मालिक साहब को इसकी बाबत बताने जाता है वह उसके पीछे जाएगा ताकि मुंबई जो वह करने वाला है उसकी फर्स्ट हैण्ड रिपोर्ट ब्लास्ट को मिल सके। सुनील जब वापिस अपने केबिन में आता है तो वहां से सोहल को गायब पाता है क्यूंकि सोहल को सुनील पर शक हो जाता है। इसके बीच में ही मलिक साहब पुलिस को फोन करके ‘जिम्मेदार नागरिक’ होने का कर्त्तव्य निभा देते हैं। इतने उपन्यासों को पढने के बाद मुझे ऐसा लगता है, कि पाठक साहब के संसार में गर किसी आदर्शवान किरदार की बात आएगी तो सबसे पहला नाम ‘मलिक’ साहब का लिया जाएगा। इस प्रसंग को अगर ठीक से पढ़ें तो समझ में आता है कि सुनील अपना ‘जिम्मेदार नागरिक’ वाला कर्त्तव्य भूलकर ‘ब्लास्ट’ के लिए ‘रिपोर्ट’ लाने के बारे में सोचता है – यह प्रोफेशनल सोच है – वैसे भी कौन सा सुनील को, ‘जिम्मेदार नागरिक’ वाली मसल की परवाह होती है इसलिए तो प्रभुदयाल उससे कुढ़ता रहता है। नूरपूर में सुनील ने विमल के लिए जो किया वो काबिलेतारीफ था और परिस्थितिनुसार था लेकिन इस उपन्यास में जो किया वह कतई काबिलेतारीफ नहीं था। मेरे मित्र कहते हैं कि गर सुनील पुलिस को ‘सोहल’ की बाबत सूचित कर देता तो ‘कहानी’ आगे कैसे बढती, उस समय जवाब नहीं दे पाया था लेकिन शायद वैसे ही बढती जैसे इससे पहले ‘सोहल’ के गिरफ्तार होने पर बढ़ी थी।

यहाँ मैं एक बात और जिक्र करना चाहूँगा कि जब ‘सोहल’ सुनील से मिलने जाता है तो एक लिफाफा देता है उसे, जिसमे ‘सोहल’ का वर्तमान एवं भूतकाल वाला फोटो होता है। कमाल की बात यह है कि आगे के सुनील सीरीज के उपन्यासों में इसका कोई जिक्र नहीं आता है और मैं उम्मीद करता हूँ कि ‘विमल सीरीज’ में भी इसका जिक्र नहीं आया होगा। सुनील के नज़रिए से देखा जाए तो अपराधी अपराधी होता है ऐसे में उन फोटोग्राफ्स को उसे पुलिस को सौंप देना चाहिए था लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं। शायद आगे ऐसा हो।

एक और बात है जिस पर मेरा ध्यान गया कि – ‘चेहरे पर चेहरा’ में प्रीमियम वाल्ट को लूटने के जिस तरीके का इस्तेमाल हुआ वह ‘पैंसठ लाख की डकैती’ से काफी मिलता जुलता था। जैसे कि ‘पैंसठ लाख की डकैती’ में एसीटीलिन के छड़ी के द्वारा वॉल्ट को खोला गया था वैसा ही कुछ इसमें भी होता है। ‘पैंसठ लाख की डकैती’ में ‘लाभ सिंह मटर पनीर’ दारु का रसिया होता है जबकि इसमें ‘जामवंत राव’ चरस/अफीम का रसिया होता है। इस डकैती में विमल और खांडेकर को छोड़कर बाकी से सभी के कुछ न कुछ ऐब होते हैं – जैसे कि ‘जामवंत राव’ स्मेकी, जॉर्ज सबेस्टियन ‘अल्कोहलिक’ और सतीश आनंद ‘वूमेनाइज़र’। वहीँ मुबारक अली, क्रोधी, घमंडी, अनपढ़ और बददिमाग। वहीँ वो बूढा जगनानी, जो पहले ड्रग एडिक्ट था, फिर मटका चलाने वाला बना फिर जुए में मटका के पैसे हारने पर कंपनी के हाथों बेइज्जत होकर डकैती में शामिल हुआ। दोनों उपन्यास में इस किरदार की सबसे ज्यादा बद से बदतर हालत हुई। कहते हैं न, जिसके जैसे कर्म होते हैं वैसा ही उसको फल मिलता है।

दोनों ही उपन्यासों में महिला किरदारों पर गौर करें तो पाते हैं कि – सी हान (जो लड़की ड्रग हैंडलिंग के चक्कर में पुलिस के हाथ चढ़ती है), एल्गा (डॉ. स्लेटर की असिस्टेंट), सतीश आनंद की दो बुलबुल अर्थात गर्लफ्रेंड और आंटी (मिसेज खांडेकर, खांडेकर की माँ)। वहीँ एक स्थान पर नीलम का जिक्र आता है और एक स्थान पर रेणु का जिक्र जो कि जबरदस्ती की झकझकि को दर्शाता है। वहीँ इंस्पेक्टर अशोक जगनानी की पत्नी और बेटी का भी जिक्र आता है। (अगर कोई छुट गया हो तो उसका जिक्र करने में मेरी सहायता करें)

दोनों ही ‘उपन्यासों’ की बाबत कई ऐसी बातें हैं जो कही जा सकती हैं, चर्चा की जा सकती हैं, कई खामियों के हिस्से में आती है तो कई खूबियों के हिस्से में आती है। विमल सीरीज के उपन्यासों की एक खासियत है कि वह आपको निरंतर, लगातार पढने और पढ़कर खत्म करने के लिए मजबूर करता है। ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी हुआ, हालांकि इस उपन्यास सम्बंधित कई बातों की चर्चा बीच-बीच में मैं अपने मित्रों से करता रहा लेकिन जब भी पढने का वक़्त होता था, इन्हीं दोनों उपन्यासों को पढता था। इस मामले में, चर्चा के बाद, जब पाठक मित्र कहते हैं कि – मजा तो आया न – तब मेरा जवाब यही होता है – “हाँ, बहुत आया।”

कुल मिलाकर अगर मैं देखूं तो विमल सीरीज के ये दोनों उपन्यास ‘रिवेंज सागा’ पर आधारित हैं जिसमे विमल बदला लेने के लिए अपराध पर अपराध किये जा रहा है। इस ‘हार्डबॉयल्ड थ्रिलर’ में अपराध और हिंसा का तालमेल पाठकों को मनोरंजन देता है, भरपूर मनोरंजन देता है लेकिन जब बात ‘सोहल’ को एक ऐसे स्तर पर लाकर खड़ा कर देने की होती है जहाँ वह ‘न भूतो न भविष्यति’ का दर्जा पाता है, जब बात विमल को हीरो के स्तर पर लाने की होती है तो हमें इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि वह एक अपराधी है, जिसकी सजा उसे ‘मौत का खेल’ में ही हो जानी चाहिए थी। सर सुरेन्द्र मोहन पाठक जी कहते हैं कि ‘क्राइम डज नॉट पे’, लेकिन जब कोई अपराधी अपराध करके बच निकलता है तब उनका यह कोट किसी काबिल नहीं रहता है।

एक ‘हार्ड-बॉयल्ड थ्रिलर’ ‘रिवेंज सागा’ को गर आप कभी पढना चाहते हैं तो आपको विमल सीरीज पढना चाहिए। अगर आप ‘एंटी-हीरो’ नामक चिड़ियाँ से वाकिफ नहीं तो आपको विमल सीरीज जरूर पढनी चाहिए। अगर आपको ‘अंडरवर्ल्ड’ को करीब से देखना है तो विमल सीरीज पढना चाहिए। गर आप कभी ‘गैंगस्टर्स’ और ‘गैंग किलिंग’ जैसे शब्दों से रूबरू नहीं हुए तो उसे महसूस करने के लिए विमल सीरीज पढना चाहिए। अगर आपको देखना है कि कैसे एक अपराधी रॉबिनहुड का तमगा पा लेता है तो, आपको विमल सीरीज पढना चाहिए। गर आपको देखना है कि कैसे एक मजबूर इंसान जुर्म के दलदल में फंस कर अपराध की दुनिया का तारणहार बन जाता है तो आपको विमल सीरीज पढना चाहिए। गर आपको देखना हो कि कैसे एक आम इंसान, माफियाओं के खिलाफ जंग छेड़कर ‘दीन’ का हितेषी बन जाता है तो, विमल सीरीज पढना चाहिए। चूँकि विमल सीरीज एक अविरल गाथा है, इसलिए, इन दोनों उपन्यास को भी पढना पड़ेगा।

मेरे कई अभिन्न मित्र कहते हैं कि मेरी ‘विमल सीरीज’ से कोई दुश्मनी है, उन्हें लगता है कि मुझे विमल सीरीज पसंद नहीं है। विमल सीरीज पर मेरे पॉइंट ऑफ़ व्यू से कई मित्रों को समस्या है, जिसके कारण वे मुझे कई बार लताड़ते भी हैं, जो मुझे पसंद भी आता है। मेरा कहना है ‘मैं’ भी विमल सीरीज को उसी नज़रिए से पढता हूँ, जैसे आप पढ़ते हैं, मैं भी पढ़ते वक़्त वैसा ही थ्रिल, वैसा ही सस्पेंस, वैसा ही अंदाजे-बयां महसूस करता हूँ जैसा कि आप करते हैं लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि मैं आँख बंद करके पढता हूँ। एक और बात है, जिसके कारण मेरा ‘पॉइंट ऑफ़ व्यू’ विमल सीरीज के लिए थोड़ा नकारात्मक हो जाता है, वह ये कि मैं ‘अपराध’ और ‘अपराधी’, दोनों ही जमात से नफरत करता हूँ, उतना ही जितना सोहल ‘आर्गनाइज्ड क्राइम’ से नफरत करता है।

अंतिम में निम्न बात से मैं अपनी बात को खत्म करना चाहूँगा जिसे मैंने कहीं पढ़ा था और नोट कर लिया था :-

“जिस प्रकार किसी स्थान में होने वाले शारीरिक रोगों से वहां की प्राकृतिक जलवायु का अनुमान होता है, उसी प्रकार अपराध रोग हमारे नैतिक जलवायु का मापक है।”

जैसा कि मैंने अपने पिछले रिव्यु में लिखा था, मुझे रिव्यु-सिव्यु लिखना नहीं आता है और इतने लंबे लेख को गर कोई रिव्यु मानता है तो मैं उसका तहेदिल से आभारी हूँ। साथ ही, अगर किसी भाई-बंधु को मेरे किसी विचार से असहमति हो तो कृपया जरूर प्रकट करें, कोशिश करूंगा कि मैं उन्हें अपने 'एक्सटेंडेड' विचारों से सहमत कर पाऊं। फिर भी असहमति बनी रही तो मैं उनकी असहमति का सम्मान करते हुए, उनकी असहमति से सहमत रहूंगा।

आभार
राजीव रोशन 

नोट:- आप उपरोक्त दोनों ही पुस्तक को डेलीहंट इबुक रीडर मोबाइल एप्लीकेशन पर, निम्न लिंक से खरीद कर पढ़ सकते हैं:- 


Comments

Popular posts from this blog

कोहबर की शर्त (लेखक - केशव प्रसाद मिश्र)

कोहबर की शर्त   लेखक - केशव प्रसाद मिश्र वर्षों पहले जब “हम आपके हैं कौन” देखा था तो मुझे खबर भी नहीं था की उस फिल्म की कहानी केशव प्रसाद मिश्र की उपन्यास “कोहबर की शर्त” से ली गयी है। लोग यही कहते थे की कहानी राजश्री प्रोडक्शन की फिल्म “नदिया के पार” का रीमेक है। बाद में “नदिया के पार” भी देखने का मौका मिला और मुझे “नदिया के पार” फिल्म “हम आपके हैं कौन” से ज्यादा पसंद आया। जहाँ “नदिया के पार” की पृष्ठभूमि में भारत के गाँव थे वहीँ “हम आपके हैं कौन” की पृष्ठभूमि में भारत के शहर। मुझे कई वर्षों बाद पता चला की “नदिया के पार” फिल्म हिंदी उपन्यास “कोहबर की शर्त” की कहानी पर आधारित है। तभी से मन में ललक और इच्छा थी की इस उपन्यास को पढ़ा जाए। वैसे भी कहा जाता है की उपन्यास की कहानी और फिल्म की कहानी में बहुत असमानताएं होती हैं। वहीँ यह भी कहा जाता है की फिल्म को देखकर आप उसके मूल उपन्यास या कहानी को जज नहीं कर सकते। हाल ही में मुझे “कोहबर की शर्त” उपन्यास को पढने का मौका मिला। मैं अपने विवाह पर जब गाँव जा रहा था तो आदतन कुछ किताबें ही ले गया था क्यूंकि मुझे साफ़-साफ़ बताया गया थ

विषकन्या (समीक्षा)

विषकन्या पुस्तक - विषकन्या लेखक - श्री सुरेन्द्र मोहन पाठक सीरीज - सुनील कुमार चक्रवर्ती (क्राइम रिपोर्टर) ------------------------------------------------------------------------------------------------------------ नेशनल बैंक में पिछले दिनों डाली गयी एक सनसनीखेज डाके के रहस्यों का खुलाशा हो गया। गौरतलब है की एक नए शौपिंग मॉल के उदघाटन के समारोह के दौरान उस मॉल के अन्दर स्थित नेशनल बैंक की नयी शाखा में रूपये डालने आई बैंक की गाडी को हजारों लोगों के सामने लूट लिया गया था। उस दिन शोपिंग मॉल के उदघाटन का दिन था , मॉल प्रबंधन ने इस दिन मॉल में एक कार्निवाल का आयोजन रखा था। कार्निवाल का जिम्मा फ्रेडरिको नामक व्यक्ति को दिया गया था। कार्निवाल बहुत ही सुन्दरता से चल रहा था और बच्चे और उनके माता पिता भी खुश थे। चश्मदीद  गवाहों का कहना था की जब यह कार्निवाल अपने जोरों पर था , उसी समय बैंक की गाड़ी पैसे लेकर आई। गाड़ी में दो गार्ड   रमेश और उमेश सक्सेना दो भाई थे और एक ड्राईवर मोहर सिंह था। उमेश सक्सेना ने बैंक के पिछले हिस्से में जाकर पैसों का थैला उठाया और बैंक की

दुर्गेश नंदिनी - बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय

दुर्गेश नंदिनी  लेखक - बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय उपन्यास के बारे में कुछ तथ्य ------------------------------ --------- बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय द्वारा लिखा गया उनके जीवन का पहला उपन्यास था। इसका पहला संस्करण १८६५ में बंगाली में आया। दुर्गेशनंदिनी की समकालीन विद्वानों और समाचार पत्रों के द्वारा अत्यधिक सराहना की गई थी. बंकिम दा के जीवन काल के दौरान इस उपन्यास के चौदह सस्करण छपे। इस उपन्यास का अंग्रेजी संस्करण १८८२ में आया। हिंदी संस्करण १८८५ में आया। इस उपन्यस को पहली बार सन १८७३ में नाटक लिए चुना गया।  ------------------------------ ------------------------------ ------------------------------ यह मुझे कैसे प्राप्त हुआ - मैं अपने दोस्त और सहपाठी मुबारक अली जी को दिल से धन्यवाद् कहना चाहता हूँ की उन्होंने यह पुस्तक पढने के लिए दी। मैंने परसों उन्हें बताया की मेरे पास कोई पुस्तक नहीं है पढने के लिए तो उन्होंने यह नाम सुझाया। सच बताऊ दोस्तों नाम सुनते ही मैं अपनी कुर्सी से उछल पड़ा। मैं बहुत खुश हुआ और अगले दिन अर्थात बीते हुए कल को पुस्तक लाने को कहा। और व