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Robbery V/s डकैती

मैं कभी इस सोच में पड़ जाता हूँ की इंसान की मानसिकता के गिरने का क्या स्तर होता है या यूँ कहूँ कि उसे मापने का क्या स्तर होता है ताकि यह पता लग सके की वह किस स्तर तक गिर चूका है। मैं उन महानुभावों के बारे में बात करना चाहता हूँ जिन्होंने कभी किसी बात का अनुभव नहीं किया होता लेकिन वे उस बात की आलोचना उस स्तर की करते हैं जैसे की उस बात ने उनकी इज्ज़त लूट ली हो। समय-समय की बात है या भाषा-भाषा की बात है, यह समझना मुश्किल है।
मैं बात कर रहा हूँ भारत में लोगों के अन्दर उस दोहरी मानसिकता के चलते विचार कि जिसमे वे पल्प-फिक्शन में लिखी जाने वाली अच्छी कृतियों को भी निम्न स्तर का मानते हैं क्यूंकि किसी फलां पुस्तक में उन्होंने कुछ भयावह और घिनौना पढ़ लिया था। आप अड़े हैं की आप किसी अंतरष्ट्रीय लेखक की किसी भी कृति को अंग्रेजी में जरूर पढेंगे जबकि उसी कृति के सामानांतर और उससे अधिक उम्दा कृति को आप बस महज इसलिए नकार देंगे क्यूंकि वह हिंदी पल्प फिक्शन में लिखी गयी है।

मैं यहाँ किसी लेखक की तुलना नहीं करना चाहता हूँ। बस इतना बताना चाहता हूँ भारत में उम्दा लेखकों और उनकी कृतियों की कमी नहीं है। अगर आपने किसी बेस्टसेलर अन्तराष्ट्रीय लेखक की डकैती पर आधारित उपन्यास देखते हैं जिसका नाम “Bank Van Robbery” or “The heist of 1 million” आदि हो तो उसे हाथों-हाथ लेते हैं और पढ़ते हैं और उसकी तारीफ भी करते हैं। वहीँ अगर आपने “पैंसठ लाख की डकैती” या “दिन दहाड़े डकैती” जैसे उपन्यास कहीं देख लिए तो उसे तुच्छ नज़रों से देखते हैं। जबकि आपने तो उसके अन्दर का माल भी नहीं देखा। आपने तो यह भी नहीं देखा की उसमे लेखक ने क्या लिखा है।

इस प्रकार के दोहरी और तुच्छ मानसिकता वाले इंसान, अपने आप को बहुत ही बुद्धिमान और बुद्धिजीवी कहलाना पसंद करते हैं। जबकि उनकी बुद्धि का विस्तार सिर्फ और सिर्फ अन्तराष्ट्रीय लेखकों के उपन्यासों तक ही सिमित होता है। वही अन्तराष्ट्रीय रचनाओं में कहानियों की पृष्ठभूमि और घटनाएं विदेशी होती हैं जबकि आपको भारतीय परिवेश की आदत है। सोचने वाली बात है की भारत के ये महानुभाव भारत के लिए बहुत कुछ करना चाहते हैं लेकिन भारतीय साहित्य को बढ़ावा देना ही पसंद नहीं करते हैं।

सबसे बड़ी बात यह है की जैसे आप किसी व्यक्ति से बिना मिले उसके बारे में कोई कयास नहीं लगा सकते वैसे ही किसी पुस्तक को पढ़े बिना उसका मूल्यांकन करना – सरासर अन्याय है।


मेरे एक मित्र का कहना है की पल्प-फिक्शन में छपने वाले उपन्यास बहुत ही निम्न स्तर के होते हैं। उनमे सेक्स-क्राइम-खून-खराबे को ही बढ़ावा दिया जाता है। मेरा उससे कहना है की क्या अंग्रेजी उपन्यासों में ऐसा नहीं होता। होता है लेकिन अंग्रेजी में उसके भाव को उतने सरल रूप में नहीं ले पाते जितने सरल रूप में आप हिंदी उपन्यासों के कहानी में देख पाते हैं। ऐसा इसलिए है क्यूंकि आप भारतीय परिवेश में रहते हैं और रोजाना ऐसी ही खबरे सुनते हैं। वैसे मेरा उसको इस बात के लिए समझाना “भैंस के सामने बीन बजाने” के बराबर है। खैर इंसान शायद अपने अन्दर बदलाव तब करता है जब उसे ठोकर लगती है या यूँ कहूँ की धड़का लगता है।



मेरी सभी मित्रों से सिफारिश है कि ऐसी कोई भी मानसिकता बनाने से पहले एक बार गहराई से सोच लें। हाथ की पाँचों अंगुलियाँ बराबर नहीं होती लेकिन होती तो वह आपके हाथ में ही। छोटी अंगुलियाँ का अस्तित्व और महत्व उतना ही है जितना की बड़ी अंगुली का है। 

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