धोखा - The Deception
(उपन्यास समीक्षा)
(स्पॉयलर अलर्ट)
“धोखा देना और धोखा खाना इंसानी फितरत
है, जो इस लानत से
आजाद है वो जरूर जंगल में रहता है।”
-उपन्यास “धोखा”
“अपनी सोच का
दायरा बढ़ाइए।”
उपरोक्त फिकरा जो
आपने पढ़ा है वह हैरी पॉटर फिल्म के उस किरदार द्वारा बार-बार बोला जाता है जो होग्वार्ट्स
स्कूल में भविष्य पढना सिखाती थी। यह फिकरा अपने आप में बहुत बड़ी बात है जो हर
इंसान को सीखनी चाहिए। मैंने एक बार एक जादू का खेल देखने गया था जिसमे जादूगर एक
इंसान को मेज पर लेटाता है और उसके ऊपर से एक चादर डाल देता है। सभी दर्शकों की
निगाहें उस मेज पर चादर के नीचे लेटे इंसान पर टिकी रहती है। जादूगर चादर पर अपनी
छड़ी घुमाता है और चादर को झटके से हटा देता है। सभी दर्शकों की आँखें आश्चर्य के
मारे फटी की फटी रह जाती है क्यूंकि वह इंसान जो मेज पर लेटा हुआ था वह गायब था। दर्शकों के मस्तिष्क में
क्षण भर के लिए यह प्रश्न आता है की जादूगर ने यह कैसे किया। लेकिन जैसे ही जादूगर
उस इंसान को फिर से उनके आँखों के सामने ला खड़ा कर देता है – “कैसे किया?” जैसा
प्रश्न काफूर हो जाता है। ऐसे दर्शक मनोरंजन को प्राप्त करते हैं। लेकिन वहीँ अगर
कुछ दर्शक इस प्रश्न पर टिके ही रह जाएँ और प्रश्न का जवाब खोजने की कोशिश करें तो
उन्हें मनोरंजन नहीं सत्य प्राप्त होता है। इस सत्य को प्राप्त करने के लिए उन्हें
कई पापड बेलने पड़ते हैं और मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। ऐसे दर्शकों को
मनोरंजन नहीं बल्कि आत्मसंतुष्टि की प्राप्ति होती है। होता यह है की जिन दर्शकों
को मनोरंजन की प्राप्ति होती है वह अपनी सोच का दायरा नहीं बढाते। जबकि जो सत्य को
खोजते हैं उन्हें अपनी सोच का दायरा बढ़ाना पड़ता है।
दिल्ली में रह
रहे एक युवक को कुछ अजीबोगरीब घटनाओं का सामना करना पड़ता है जिसके कारण उसे उसके
परिचित और अपरिचित मानसिक रूप से बीमार की श्रेणी में ले आते हैं। इस युवक यह
समस्या है कि दिल्ली में भिन्न-भिन्न चार स्थानों पर वह अलग-अलग अवस्था में चार
लाशों से रूबरू होता है। वह जब उन लाशों के बारे में पुलिस को बताने के लिए कुछ
समय के लिए उन लाशों को छोड़ कर जाता है और वापिस पुलिस के साथ आता है तो वह लाशें
उसे गायब मिलती हैं। पुलिस को और उस युवक को उन स्थानों पर लाश की मौजूद होने के
नाम-मात्र चिन्ह भी नहीं मिलते हैं। जब एक के बाद एक ऐसी घटनाओं से उसका सामना
होता है और वह कुछ साबित नहीं कर पाता है तो उसका एक परिचित उसे एक अस्पताल में
भर्ती करवा देता है जहाँ मानसिक रूप से बीमार लोगों का इलाज़ होता है। उस युवक की
अंत तक यही पुकार होती है की जो कुछ उसने देखा वह शाश्वत सत्य है लेकिन वह कुछ
साबित नहीं कर पाता। पुलिस अपनी यह थ्योरी बना कर चलती है कि युवक जान-बूझ कर
पुलिस को तंग करने के मतलब से ऐसी घटनाओं का ताना-बाना बुन कर कहानी परोसता है की
वह सुनने में तो सत्य लगती हैं लेकिन सत्यता कुछ साबित नहीं हो पाती। जहाँ पूरी
दिल्ली को उसकी कहानी पर कोई विश्वास नहीं होता वहीँ दो इंसान ऐसे भी होते हैं
जिनको उसकी कहानी पर पूरा विश्वास होता है। जिसमे से एक, दिल्ली में प्राइवेट
डिटेक्टिव का व्यवसाय करने वाला और क्राइम क्लब जैसी उच्चस्तरीय संस्था का अध्यक्ष
होता है। यह व्यक्ति, जिसका नाम विवेक अगाशे है, पुलिस से इतर युवक के साथ घटी
घटनाओं को सच मानकर पड़ताल करता है लेकिन उसके हाथ में भी कोई सुराग नहीं लगता।
अंततः वह भी युवक को मानसिक रोगियों के लिए बनाए गए अस्पताल में ले जाने से रोक
नहीं पाता।
“क्या गेम है तुम्हारा”
हर कोई उससे यही सवाल करता था।
कोई उसे नशे में समझता था, तो कोई उसके दिमाग में नुक्स बताता था।
किसी को उस खून खराबे पर यकीन नहीं आता था जो वो अपनी आँखों से देखा
बताता था।
आखिरकार ये हाल हुआ कि खुद उसे हकीकत सपना जान पड़ने लगी।
फिर भी एक शख्स था जिसको उसकी हर बात पर एतबार था।
एक नौजवान की भंवर में फंसी जिन्दगी की लोमहर्षक दास्तान।
अब आप अपनी सोच का दायरा बढ़ाइए और बताइये –
क्या युवक के साथ घटी घटनाएं सच हैं या वह मनगढ़ंत कहानी बनाता फिर रहा
है?
क्या युवक उन घटनाओं की सच्चाई को साबित कर पायेगा या वह सेनेटोरियम
के ही लायक था?
क्या विवेक अगाशे को कोई सुराग प्राप्त होगा जिससे वह इस अनोखे केस के
तह तक पहुँच पाए?
क्या युवक के साथ घट रही घटनाएं उसके दिमाग की उपज थी या किसी षड़यंत्र
का एक हिस्सा?
आपको इन सभी प्रश्नों के उत्तर तभी मिलेंगे जब आप “धोखा” उपन्यास
पढेंगे। उपरोक्त घटनाएं जिस युवक के साथ घटित होती है वह सर सुरेन्द्र मोहन पाठक
जी के २७१ वां कारनामे का केंद्रीय किरदार है जो जनवरी २००९ में “राजा पॉकेट
बुक्स” में छपा था। “धोखा” उपन्यास “कोजी क्राइम फिक्शन” और “डिटेक्टिव क्राइम
फिक्शन” का एक मिश्रित रूप है। इसमें आपको विवेक अगाशे की तहकीकात डिटेक्टिव
फिक्शन का रूप देती है वही जुर्म का एक सिमित दायरा इसे कोज़ी क्राइम फिक्शन का
हिस्सा बनाती है। वैसे पाठक साहब की इस श्रेणी की पुस्तकों को थ्रिलर श्रेणी में
लिया जाता है। थ्रिलर सीरीज का यह ५७ वां उपन्यास है और विवेक अगाशे का चौथा
उपन्यास है। लगभग ३५० पन्नों से अधिक पृष्ठों में समायी यह कहानी दिमाग के सभी
दरवाजे खोल देने के काबिल है। अगर आप अपनी सोच का दायरा नहीं बढ़ाएंगे को तो यह
विस्तृत उपन्यास अपने क्लाइमेक्स के द्वारा आपके दिमाग के परखच्चे उड़ाने में सक्षम
है और मनोरंजन का ऐसा तड़का लगाएगा की आप भूल जायेंगे की इससे बेहतर उपन्यास भी
आपने कभी पढ़ा होगा। कहा जाता है की एक अच्छी कहानी बेहतरीन कहानी तभी बन पाती है
जब उसका प्रस्तुतीकरण बेहतरीन हो। कुछ ऐसा ही इस उपन्यास का बेहतरीन प्रस्तुतीकरण
इस उपन्यास की सफलता को दर्शाता है।
पाठक साहब के जादुई कलम से निकला यह जादुई कलाम उनकी प्रतिभा का वह
रूप दर्शाता है जिसका सानी पुरे भारत-वर्ष में कोई नहीं है। रहस्य और रोमांच, इस
कहानी के हर पन्ने पर ताला लगाए बैठा है और उसे इंतज़ार है तो बस आपका। आप जब इस
उपन्यास को पढेंगे तो पृष्ठ-दर-पृष्ठ आप एक नए रहस्य से खुद को रूबरू पायेंगे और
अगर आपने अपनी सोच का दायरा बढ़ा लिया तो परत-दर-परत हर रहस्य से पर्दा उठाते चले
जायेंगे। वैसे पाठक साहब पर्दा उठाने में आपकी पूरी मदद करेंगे लेकिन जो आप करेंगे
वह आपके अन्दर के रोमांच को दोबाला कर देगा। अनेकों को किरदार से भरी हुई इस कहानी
में बस उस युवक का किरदार ही है जो आपके मस्तिष्क पर छाप छोड़ती नज़र आएगी क्यूंकि
उपन्यास की कहानी ही इस किरदार के इर्द-गिर्द घुमती रहती है।
इस उपन्यास के क्लाइमेक्स में कहानी से सम्बंधित एक खोट या खामी है
जिसको इस समीक्षा में लिखना पूरी कहानी का मजा खराब करता है इसलिए गौर से पढियेगा
ताकि मुझे बताना न पड़े की वह गलती क्या थी।
उपन्यास का शीर्षक “धोखा”, पाठकों को इसे पढने के लिए आकर्षित करता है।
वहीँ इस उपन्यास के बेक कवर में इस उपन्यास से सम्बंधित छपी पंक्ति वर्ग के पाठक को
इस उपन्यास को पढने के लिए, अंत तक पढने के लिए मजबूर करती है। “राजा पॉकेट बुक्स”
ने इस उपन्यास को सफ़ेद कागज़ पर छापा है जिसमे उन्होंने ५४-५६ जी.एस.एम्. के पेपर
सफ़ेद कागज़ का इस्तेमाल किया है। इस पेपर की आयु कम से कम १०-१२ वर्ष है लेकिन अगर
साफ़-सफाई का ख्याल रखा जाए तो और भी अधिक वर्ष इसकी आयु है। बाइंडिंग और फिक्सिंग
“राजा पॉकेट बुक्स” की बेहतरीन होती है और इस उपन्यास में भी खासतौर से नज़र आती
है। प्रत्येक पृष्ठ पर उन्होंने ३३ लाइनों को स्थान दिया है जिसके कारण हार्ड-बुक
में इसे पढने में कोई परेशानी नहीं आ सकती। पाठक सर के नाम जैसे “डायमंड पॉकेट
बुक्स” से छपने वाले उपन्यास पर उभार लेते हुए आया करते थे कुछ वैसा ही इस उपन्यास
के फ्रंट कवर पर पाठक साहब का नाम “सुरेन्द्र मोहन पाठक” उभार लेते हुए छापा गया
है। फ्रंट कवर में उम्दा ग्राफ़िक्स का इस्तेमाल नहीं किया गया है और बेक कवर में
तो बिलकुल भी नहीं। उपन्यास का बाहरी आवरण इसे बहुत ही साधारण पुस्तक के रूप में
प्रदर्शित करता है जबकि इसका अंदरूनी कंटेंट इसे बेहतरीन उपन्यासों की श्रेणी में
लाता है।
आप इस उपन्यास को Dailyhunt मोबाइल एप्लीकेशन (कुछ समय पहले तक Newshunt के नाम से भी जाना जाता था) पर भी पढ़ सकते हैं| इसका लिंक आपको नीचे दिया गया है|
http://ebooks.newshunt.com/Ebooks/default/Dhokha/b-44915
आशा करता हूँ आप सभी को इस उपन्यास की समीक्षा पसंद आएगी। अपने
मूल्यवान विचारों से मुझे जरूर अवगत कराएं।
आभार
राजीव रोशन
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